उत्तर प्रदेश पुलिस
उत्तर प्रदेश पुलिस अनियंत्रित होती जा रही है। राज्य सरकार की पकड़ कमजोर दिख रही है और उत्तर प्रदेश पुलिस के भीतर एक लॉबी सक्रिय बताई जा रही है जो सरकार गिराने की योजनाओं में संलिप्त है।
हालात ऐसे हैं कि कैबिनेट मंत्री तक स्वयं को असहाय महसूस कर रहे हैं, जबकि भाजपा कार्यकर्ता प्रशासनिक उत्पीड़न झेल रहे हैं।
यदि यह स्थिति बनी रही तो कार्यकर्ताओं का नैतिक बल कमजोर होगा और उनकी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता डगमगाएगी।
यह चिंता का विषय है कि विधायक, सांसद और मंत्री केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि क्षेत्र की जनता की आवाज हैं।
उनका अपमान केवल व्यक्ति नहीं बल्कि जनता के भरोसे का अपमान है, जिसके आधार पर संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र की नींव रखी थी।
उत्तर प्रदेश पुलिस पर बढ़ते सवाल और नेताओं का अधिकार संकट
जनता की समस्याओं का समाधान प्रशासन के पास होता है और उसका श्रेय जनप्रतिनिधि को मिलना चाहिए। लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस और अफसरशाही उल्टा कर रही है।
अधिकारी खुद श्रेय लेने और “सिंह बनने” में लगे हैं। इससे न केवल जनप्रतिनिधियों की भूमिका कम हो रही है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी प्रभावित हो रही है।
प्रशासन अक्सर संवेदनहीन दिखाई देता है जबकि सामान्य नेता भी जनता की तकलीफों को अधिक संवेदनशीलता से समझता है। यदि नेता को अधिकार मिले तो जनता की समस्याओं का सहानुभूतिपूर्वक समाधान संभव है।
लेकिन यदि प्रशासन हावी रहेगा तो जनता का शोषण होगा। इसलिए जरूरत है कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन को बैकसीट पर बैठाकर चुने हुए नेताओं को आगे किया जाए।
उत्तर प्रदेश में अफसरशाही की साजिश और राजनीतिक झुकाव
राज्य में एक बड़ा नौकरशाही वर्ग है जो सपा नेतृत्व की नीतियों के प्रति झुकाव रखता है। मौजूदा भाजपा सरकार में भी उत्तर प्रदेश पुलिस और अधिकारी तब तक सक्रिय नहीं होते जब तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं हस्तक्षेप न करें।
यहां तक कि कैबिनेट मंत्रियों तक की बात को नौकरशाह महत्व नहीं देते और खुद को सरकार समझने लगते हैं।
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि यहां चुनी हुई व्यवस्था और चयनित व्यवस्था के बीच टकराव स्पष्ट हो गया है।
चयनित नौकरशाही केवल उन्हीं भाषाओं और संकेतों को समझती है जिन्हें समाजवादी पार्टी का नेतृत्व पहले प्रयोग करता रहा है।
उत्तर प्रदेश पुलिस, स्थायी नौकरशाही और लोकतांत्रिक चुनौती
जब तक अंग्रेजों द्वारा दी गई स्थायी नौकरशाही को हर पाँच साल में जनता के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जाता, तब तक असली परिवर्तन असंभव है।
वर्तमान हालात यह हैं कि यदि नेताओं को नियंत्रित किया जाए तो नौकरशाह लूट और हिंसा मचाते हैं, और यदि नेताओं को छूट दी जाए तो वे नौकरशाहों के साथ मिलकर भ्रष्टाचार करते हैं।
स्थायी नौकरशाही को लोकतंत्र का सबसे बड़ा कोढ़ कहा जा रहा है, जबकि जनता अक्सर नाराज़गी नेताओं पर निकालती है।
भाजपा की सरकार हो तो नौकरशाही जनता का खून चूसती है और विपक्षी दलों की सरकार में नेता और नौकरशाही मिलकर जनता को लूटते हैं।
दुनिया के कई देश बिना स्थायी नौकरशाही के चलते हैं, लेकिन किसी ने भी बिना नेताओं के शासन नहीं चलाया।
अंग्रेजों ने जिस तरह उपनिवेश काल में देशों को लूटा, उसी तरह स्थायी नौकरशाही की व्यवस्था देकर उन्होंने भविष्य तक देशों को बंधक बनाए रखा।