Wednesday, December 17, 2025

ओवैसी अगले जिन्ना और मदनी अगले इकबाल साबित होंगे?

ओवैसी की रणनीति और भारत के सामने मुंह बाए खड़ा संकट

भारत की राजनीति में वास्तविक खतरे अक्सर भाषणों के शोर में नहीं, चुनावी गणित की शीतल गणना में छिपे रहते हैं। सत्ता का रास्ता कई बार विचारों से नहीं, समाज की दरारों से होकर निकलता है। जब कोई नेतृत्व इन दरारों को पहचानकर उन्हें स्थायी वोट ब्लॉक में बदल देता है, तब लोकतंत्र का ढांचा भीतर से कमजोर होने लगता है। इसी संदर्भ में ओवैसी की राजनीतिक चालें केवल तात्कालिक चुनावी गतिविधि नहीं, बल्कि एक लंबी परियोजना के रूप में पढ़ी जाएँगी।

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तुर्कों का युग और राजपूत प्रतिरोध की ऐतिहासिक दीवार

भारत में तुर्कों का प्रारम्भिक दौर संगठित लुटेरों के आतंक, विनाश और अस्थिरता का दौर रहा है। व्यापक विध्वंस हुआ, अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक आघात पहुंचे, और समाज ने लंबे समय तक उस असुरक्षा का भार उठाया। इसके बावजूद राजपूतों ने उन्हें कभी भी डोमिनेंट नहीं होने दिया और निरंतर प्रतिरोध के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया कि यह भूमि केवल भय से नहीं चलने वाली है। यह इतिहास का वह पक्ष है जो बताता है कि जब समाज की रीढ़ सीधी रहती है, तब आक्रमणकारी का स्थायी प्रभुत्व सीमित रह जाता है।

मुगलों का युग: विनाश से आगे बढ़कर रणनीतिक सत्ता निर्माण

मुगलों का दौर एक अलग रणनीति का युग रहा है। उस काल में सत्ता ने केवल जीत और दमन पर भरोसा नहीं किया, बल्कि समाज की आंतरिक शक्तियों को अपने हित में मोड़ने की नीति अपनाई। अकबर ने छोटे छोटे राजपूत राज्यों को जीतकर उन्हीं राजपूतों की सैन्य क्षमताओं का इस्तेमाल शेष राजपूत राज्यों और भारत के अनेक हिस्सों को जीतने में किया। इससे प्रतिरोध का साझा आधार कमजोर होता गया और स्थानीय शक्ति विदेशी सत्ता के विस्तार का औजार बनती चली गई।

अंग्रेजों की नीति: पल्टनों से पल्टनें हरवाना और 1857 की निर्णायक कुचलन

यही नीति अंग्रेजों ने अधिक व्यवस्थित रूप में अपनाई। पूर्वी और दक्षिणी पल्टनों से सिखों, मराठों व गोरखों को हराने की प्रक्रिया चली और फिर 1857 में सिख व गोरखा पल्टनों से पूर्वी पल्टनों के विद्रोह को कुचला गया। इस नीति का सार यही रहा कि भारतीय समाज के भीतर ही ऐसे तंत्र खड़े किए जाएँ जो एक हिस्से को दूसरे हिस्से के विरुद्ध खड़ा कर दें। तब शासक को कम लड़ना पड़ता है और समाज को अधिक टूटना पड़ता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य: वही पुराना सूत्र, आधुनिक राजनीतिक भाषा में

आज की राजनीति में वही पुराना सूत्र नए रूप में काम कर रहा है। समाज के भीतर की जातिगत रेखाएँ, वैचारिक भ्रम, और चुनावी मजबूरियाँ मिलकर ऐसे अवसर बनाती हैं जहाँ संगठित वोट ब्लॉक निर्णायक शक्ति बन जाता है। इस वातावरण में ओवैसी की राजनीति को दीर्घकालिक रणनीति के रूप में देखा जाएगा, जिसमें लक्ष्य केवल कुछ सीटें नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर एकाधिकार वाली सामुदायिक नेतृत्व धुरी बनाना है। इसी धुरी के सहारे आगे चलकर सत्ता के दरवाजों तक पहुँचा जाएगा और शर्तें तय की जाएँगी।

कांग्रेस के क्षरण पर आधारित रणनीति: विकल्पहीनता से एकछत्र नेतृत्व तक

ओवैसी की राजनीति कांग्रेस के क्षरण को अवसर में बदलने की दिशा में बढ़ती दिखाई दे रही है। कांग्रेस यदि निकट भविष्य में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से और कमजोर होती जाती है, तो मुस्लिम मतदाताओं के भीतर विकल्पहीनता का वातावरण बनेगा। विकल्पहीनता लोकतंत्र में सबसे खतरनाक चीज है, क्योंकि वह मतदाता को विचार नहीं, मजबूरी के आधार पर एक ही ध्रुव पर समेट देती है। ऐसी स्थिति में ओवैसी मुस्लिम राजनीति के जिन्ना सरीखे एकछत्र नेता के रूप में स्थापित होते जाएंगे और यही उनकी परियोजना का केंद्रीय लक्ष्य रहेगा।

25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली लगभग 70 सीटें और जीत का सीधा रास्ता

लगभग 70 सीटें ऐसी मानी जाती हैं जहाँ मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत के आसपास है। इन सीटों पर यदि मुस्लिम वोट एकमुश्त दिशा में पड़ते हैं और हिंदू समाज जातिगत विभाजन के आधार पर बिखरा रहता है, तो जीत की राह सरल हो जाती है। First Past the Post व्यवस्था में संगठित अल्पसंख्या का वोट, बिखरी बहुसंख्या को बार बार पराजित कर सकता है। यह कोई भावनात्मक अनुमान नहीं, चुनावी गणित का ठोस नियम है, और यही नियम इस रणनीति का आधार रहेगा।

10 से 15 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में हिंदू उम्मीदवार का प्रयोग

जहाँ मुस्लिम जनसंख्या 10 से 15 प्रतिशत के बीच होगी, वहाँ एक अलग शैली अपनाई जाएगी। वहाँ हिंदू उम्मीदवार उतारे जाएंगे और मुस्लिम वोट एकमुश्त उस उम्मीदवार के पक्ष में केंद्रित किए जाएंगे। साथ में हिंदू समाज का जातिगत विभाजन अपनी जगह निर्णायक भूमिका निभाता रहेगा, जिससे विरोधी वोट एक साथ नहीं आ पाएगा। इसके अतिरिक्त गांधी के सैक्युलर चेलों की वैचारिक धुंध और नैरेटिव आधारित समर्थन भी ऐसे उम्मीदवारों के लिए सार्वजनिक वैधता का आवरण बनता जाएगा।

70 से 100 सांसदों तक का लक्ष्य और संसद में निर्णायक संख्या की राजनीति

इन दोनों मॉडल्स के आधार पर 70 से 100 के बीच सांसदों की संख्या तक पहुँचना रणनीतिक लक्ष्य बनता जाएगा। यह संख्या भारतीय राजनीति में छोटी नहीं होती, क्योंकि गठबंधन युग में इतनी ताकत सरकार बनवाने और गिराने दोनों के लिए पर्याप्त मानी जाती है। जब किसी सरकार की सांसें निर्णायक संख्या पर टिकती हैं, तब नीति से पहले सौदा आता है और राष्ट्रीय हित से पहले सत्ता गणित। यही वह क्षण होगा जब एक संगठित वोट ब्लॉक का नेता राष्ट्रीय राजनीति का किंगमेकर बनकर उभरेगा और फिर धीरे धीरे सत्ता का केंद्र बनने की तरफ बढ़ेगा।

भाजपा के कमजोर प्रदर्शन की स्थिति और गठबंधन सरकार का खतरनाक मैदान

यदि संघ के गर्भ से किसी अन्य उग्र हिंदुत्ववादी दल का जन्म नहीं होता और भाजपा कमजोर प्रदर्शन करती है, तो गठबंधन राजनीति का मंच तेजी से फैल सकता है। अखिलेश, तेजस्वी, ममता, उद्धव, स्टालिन, केरल के वामपंथी, केजरीवाल और अवशिष्ट कांग्रेस जैसे दल और व्यक्ति सत्ता के लिए साथ आ सकते हैं। ऐसे गठबंधनों में सिद्धांत अक्सर सबसे पहले गिरते हैं और वोटों की भूख सबसे पहले बोलती है। ऐसी स्थिति में मुस्लिम वोटों की खातिर ओवैसी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया जाना राजनीतिक रूप से संभव बनाया जाएगा, क्योंकि गठबंधन का प्राथमिक लक्ष्य सरकार बनाना रहेगा, न कि राष्ट्र के दीर्घकालिक हित की रक्षा।

1946 की याद: जिन्ना को शीर्ष सत्ता तक ले जाने वाली मानसिकता

1946 का घटनाक्रम यह दिखाता रहा है कि सत्ता संतुलन के नाम पर कितनी दूर तक समझौते करने की मानसिकता मौजूद रही है। उस समय गांधी ने जिन्ना को प्रधानमंत्री पद की पेशकश तक का विचार आगे बढ़ाया और मंत्रिमंडल चुनाव सहित असीमित अधिकार का आश्वासन देने जैसी बातें भी सामने आईं। यह प्रसंग इस तथ्य का संकेत देता है कि जब नेतृत्व कट्टर सामुदायिक राजनीति को हल्के में लेता है, तब राष्ट्र को ऐसी योजनाओं के किनारे तक लाया जा सकता है जहाँ से वापसी कठिन हो जाती है। इसी संदर्भ में नेहरू की सत्तालोलुपता द्वारा गांधी के उस प्रस्ताव को न मानना निर्णायक मोड़ बना, क्योंकि अन्यथा पटेल की चेतावनी को दबाकर हिंदुओं के लिए नरक के दरवाजे खुल सकते थे।

पटेल की चेतावनी, गांधी की हठ, और बंगाल का घाव

यह भी स्मरण में रखा जाएगा कि पटेल ने सामुदायिक राजनीति की प्रकृति को लेकर स्पष्ट चेतावनियाँ दी थीं। इसके बावजूद गांधी ने व्यावहारिकता की सीमाओं की उपेक्षा कर कई अवसरों पर ऐसे फैसले किए जिनसे हिंदू समाज पर दीर्घकालिक संकट आया। बंगाल में सुहरावर्दी के दौर की स्मृति इसी बात का कठोर उदाहरण मानी जाती है, जहाँ हिंदुओं के लिए भय और असुरक्षा का वातावरण बना। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ओवैसी की परियोजना को हल्के में लेना वैसी ही भूल मानी जाएगी जैसी भूल जिन्ना के संदर्भ में की गई थी।

ओवैसी का सीधा गणित: 9 प्रतिशत और 20 से 25 प्रतिशत की तुलना

ओवैसी की राजनीति का एक घोषित और व्यावहारिक आधार यह गणित रहेगा कि यदि 9 प्रतिशत होकर भी यादव उत्तर प्रदेश में राज्य कर सकते हैं, तो 20 से 25 प्रतिशत होकर भी मुसलमान अन्य दलों के पिछलग्गू क्यों बनें। इसी गणित से आगे बढ़कर उत्तर प्रदेश के माई, यानी MY समीकरण को उलटने की दिशा में काम किया जाएगा। यह लक्ष्य केवल नारा नहीं रहेगा, बल्कि सीट चयन, उम्मीदवार चयन और वोट ट्रांसफर की रणनीति से इसे संभव बनाने की कोशिशें की जाएँगी। भारत की राजनीति में जहाँ वर्षों से जातिगत गोलबंदियाँ सत्ता की धुरी रही हैं, वहाँ इस प्रकार का उलटाव असंभव नहीं माना जाएगा।

सबसे बड़ी चिंता: हिंदुओं का टिकट लालच और जातिगत भीड़

मुस्लिम वोट यदि एकमुश्त होने लगते हैं, तो ओवैसी के यहाँ टिकट माँगने जातिगत गणित के मारे हिंदुओं की भीड़ भी लगती दिखाई देगी। यह चिंता केवल अनुमान नहीं, हिंदू समाज की ऐतिहासिक कमजोरी के अनुभव पर आधारित मानी जाएगी, जहाँ तात्कालिक लाभ के लिए वैचारिक रीढ़ छोड़ देने की प्रवृत्ति बार बार सामने आती रही है। सोशल मीडिया के दौर में केवल Likes और चंद रुपयों के लिए कुछ लोगों को विचारधारा पर शर्मनाक यू टर्न लेते हुए देखा गया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि सत्ता का लालच कहीं अधिक बड़ी गिरावट पैदा कर सकता है। ऐसे अवसरवादियों के भीतर धर्मांतरण तक की मानसिक तैयारी बन जाना भी असंभव नहीं माना जाएगा, यदि राजनीतिक लाभ के रूप में उनके सामने प्रलोभन रखे जाते हैं।

प्रधानमंत्री न भी बने तो गृह या रक्षा मंत्रालय की निर्णायक लड़ाई

ओवैसी प्रधानमंत्री पद तक न भी पहुँचें, तब भी यदि गृह मंत्रालय या रक्षा मंत्रालय जैसे विभाग हाथ लगते हैं, तो परिणाम वही दिशा पकड़ सकते हैं जिनकी चेतावनी दी जा रही है। गृह मंत्रालय के स्तर पर प्रशासनिक प्राथमिकताओं और नीति दिशा के माध्यम से डेमोग्राफी को पाँच वर्षों में बदल देने की कोशिशें की जा सकती हैं और यह प्रयास संस्थागत दबाव के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है। रक्षा मंत्रालय के स्तर पर अग्निवीर योजना में मुस्लिमों को भर भरकर शामिल करवाने, सामुदायिक दबाव बढ़ाने और मुस्लिम मिलिशिया जैसी संरचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ने का खतरा पैदा किया जा सकता है। यह सब काम तथाकथित कूटनीतिक ढंग से नहीं, बल्कि खुले आम और प्रदर्शनात्मक तरीके से करने की शैली अपनाई जा सकती है, जिससे सामाजिक तनाव और सुरक्षा जोखिम बढ़ते जाएंगे।

जिन्ना को हल्के में लेने वाली भूल का करें

गांधी और पटेल ने जिन्ना को हल्के में लेने की जो गलती की थी, वैसी ही गलती भाजपा द्वारा दोहराई जाती दिखाई दे सकती है। राजनीति में किसी नेता को सीमित क्षेत्र का, सीमित समुदाय का, या केवल भाषणबाज मानकर छोड़ देना रणनीतिक दृष्टि से महँगा पड़ता है। जो व्यक्ति समुदाय आधारित शक्ति का केंद्रीकरण कर रहा हो और जो संख्या गणित के आधार पर राष्ट्रीय सौदेबाजी का केंद्र बनने की दिशा में बढ़ रहा हो, उसे समय रहते राजनीतिक चुनौती के रूप में लेना आवश्यक माना जाएगा। राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक समरसता और सभ्यता की निरंतरता की रक्षा के लिए ऐसे प्रयोगों को केवल चुनावी घटना मानकर नहीं छोड़ा जाएगा।

ओवैसी अगले जिन्ना और मदनी अगले इकबाल साबित होंगे

ओवैसी अगले जिन्ना साबित होंगे और मदनी अगले इकबाल साबित होंगे, यह निष्कर्ष इस पूरी रणनीति के ढांचे से निकलता हुआ राजनीतिक परिणाम माना जाएगा। एक तरफ राजनीतिक नेतृत्व का चेहरा होगा जो समुदाय की विकल्पहीनता को एकछत्र शक्ति में बदलेगा, दूसरी तरफ वैचारिक और धार्मिक वैधता की जमीन तैयार करने वाली भूमिका होगी जो उस शक्ति को नैरेटिव का कवच देगी। यही वह संयोजन है जो समाज को नागरिकता की एकता से हटाकर पहचान की दीवारों में बाँधता है और फिर सत्ता को सौदेबाजी का अखाड़ा बना देता है।

राष्ट्रवादी हिंदू दृष्टि से इस संकट का उत्तर स्पष्ट रहेगा। हिंदू समाज को जातिगत विभाजनों के भीतर आत्मघात करने की आदत छोड़नी होगी, क्योंकि बिखराव ही वह ईंधन है जिससे यह परियोजना आगे बढ़ेगी। राजनीतिक सजगता, वैचारिक स्पष्टता, और राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च रखने वाली सामाजिक एकजुटता ही वह दीवार बनेगी, जिसके बिना यह देश बार बार वही गलतियाँ दोहराता रहेगा जो इतिहास में सबसे महँगी साबित हुई हैं।

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