मोहन भागवत: एक युवा स्वयंसेवक से संघ प्रमुख तक की यात्रा
आज एक ऐसे व्यक्तित्व का 75वां जन्मदिवस है, जिन्होंने वसुधैव कुटुंबकम के मंत्र पर चलते हुए समाज को संगठित करने, समता-समरसता और बंधुत्व की भावना को सशक्त करने में अपना जीवन समर्पित किया है।
संघ परिवार में जिन्हें सरसंघचालक के रूप में संबोधित किया जाता है, ऐसे आदरणीय मोहन भागवत जी का आज जन्मदिन है। सुखद संयोग है कि इसी साल संघ भी अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है।
मेरा भागवत जी के परिवार से बहुत गहरा संबंध रहा है। मुझे उनके पिता स्व. मधुकर राव भागवत जी के साथ निकटता से काम करने का सौभाग्य मिला था।

मैंने अपनी पुस्तक ज्योतिपुंज में मधुकर राव जी के बारे में विस्तार से लिखा भी है। वकालत के साथ-साथ मधुकर राव जी जीवनभर राष्ट्र निर्माण के कार्य में समर्पित रहे। अपनी युवावस्था में उन्होंने लंबा समय गुजरात में बिताया और संघ कार्य की मजबूत नींव रखी।
उनका राष्ट्र निर्माण के प्रति झुकाव इतना प्रबल था कि अपने पुत्र मोहन राव को भी इस महान कार्य के लिए निरंतर गढ़ते रहे। उन्होंने मोहन राव के रूप में एक और पारसमणि तैयार कर दी।
भागवत जी 1970 के दशक के मध्य में प्रचारक बने। सामान्य जीवन में प्रचारक शब्द सुनकर ये भ्रम हो जाता है कि कोई प्रचार करने वाला व्यक्ति होगा, लेकिन जो संघ को जानते हैं उनको पता है कि प्रचारक परंपरा संघ कार्य की विशेषता है।
देशभक्ति की प्रेरणा से भरे हजारों युवक-युवतियों ने घर-परिवार त्यागकर पूरा जीवन संघ परिवार के माध्यम से राष्ट्र को समर्पित किया है। भागवत जी भी उस महान परंपरा की मजबूत धुरी हैं।
भागवत जी ने उस समय प्रचारक का दायित्व संभाला, जब कांग्रेस सरकार ने देश पर इमरजेंसी थोप दी थी। उस दौर में प्रचारक के रूप में भागवत जी ने आपातकाल-विरोधी आंदोलन को मजबूती दी।
उन्होंने कई वर्षों तक महाराष्ट्र के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों, विशेषकर विदर्भ में काम किया। 1990 के दशक में अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख के रूप में मोहन भागवत जी के कार्यों को आज भी कई स्वयंसेवक स्नेहपूर्वक याद करते हैं।
इसी कालखंड में भागवत जी ने बिहार के गांवों में अपने जीवन के अमूल्य वर्ष बिताए और समाज को सशक्त करने के कार्य में समर्पित रहे।

20वीं सदी के आखिरी पड़ाव पर वे संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बने। 2000 में वे सरकार्यवाह बने। 2009 में वे सरसंघचालक बने और आज भी अत्यंत ऊर्जा के साथ कार्य कर रहे हैं। सरसंघचालक होना मात्र एक संगठनात्मक जिम्मेदारी नहीं है।
यह एक पवित्र विश्वास है, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूरदर्शी व्यक्तित्वों ने आगे बढ़ाया है और राष्ट्र के नैतिक और सांस्कृतिक पथ को दिशा दी है।
भागवत जी का युवाओं से सहज जुड़ाव है और इसलिए उन्होंने अधिक से अधिक युवाओं को संघ कार्य के लिए प्रेरित किया है। वे लोगों से प्रत्यक्ष संपर्क में रहते हैं और संवाद करते रहते हैं।
श्रेष्ठ कार्य पद्धति को अपनाने की इच्छा और बदलते समय के प्रति खुला मन रखना, ये मोहन जी की बहुत बड़ी विशेषता रही है।
अगर हम व्यापक संदर्भ में देखते हैं तो संघ की 100 साल की यात्रा में भागवत जी का कार्यकाल संघ में सर्वाधिक परिवर्तन का कालखंड माना जाएगा। चाहे वो गणवेश परिवर्तन हो, संघ शिक्षा वर्गों में बदलाव हो, ऐसे अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन उनके निर्देशन में संपन्न हुए।
इस वर्ष की शुरुआत में, नागपुर में उनके साथ माधव नेत्र चिकित्सालय के उद्घाटन के दौरान मैंने कहा था कि संघ अक्षयवट की तरह है, जो राष्ट्रीय संस्कृति और चेतना को ऊर्जा देता है।
इस अक्षयवट की जड़ें इसके मूल्यों की वजह से बहुत गहरी और मजबूत हैं। इन मूल्यों को आगे बढ़ाने में जिस समर्पण से मोहन भागवत जी जुटे हुए हैं, वो हर किसी को प्रेरणा देता है।

समाज कल्याण के लिए संघ की शक्ति के निरंतर उपयोग पर मोहन भागवत जी का विशेष बल रहा है। इसके लिए उन्होंने पंच परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया है।
इसमें स्व बोध, सामाजिक समरसता, नागरिक शिष्टाचार, कुटुम्ब प्रबोधन और पर्यावरण के सूत्रों पर चलते हुए राष्ट्र निर्माण को प्राथमिकता दी गई है।
देश और समाज के लिए सोचने वाले हर भारतवासी को पंच परिवर्तन के इन सूत्रों से अवश्य प्रेरणा मिलेगी।
मोहन जी के स्वभाव की एक और बड़ी विशेषता ये है कि वो मृदुभाषी हैं। उनमें सुनने की भी अद्भुत क्षमता है। यह विशेषता न केवल उनके दृष्टिकोण को गहराई देती है, बल्कि उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व में संवेदनशीलता और गरिमा भी लाती है।
वे हमेशा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के प्रबल पक्षधर रहे हैं। भारत की विविधता और भारत भूमि की शोभा बढ़ा रही अनेक संस्कृतियों और परंपराओं के उत्सव में भागवत जी पूरे उत्साह से शामिल होते हैं।
वैसे बहुत कम लोगों को ये पता है कि मोहन भागवत जी अपनी व्यस्तता के बीच संगीत और गायन में भी रुचि रखते हैं। वे विभिन्न भारतीय वाद्ययंत्रों में भी निपुण हैं। पठन-पाठन में उनकी रुचि, उनके अनेक भाषणों और संवादों में साफ दिखाई देती है।
कुछ ही दिनों में विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 100 वर्ष का हो जाएगा। यह भारत और विश्वभर के लाखों स्वयंसेवकों के लिए ऐतिहासिक अवसर है।
हम स्वयंसेवकों का सौभाग्य है कि हमारे पास मोहन भागवत जी जैसे दूरदर्शी और परिश्रमी सरसंघचालक हैं, जो ऐसे समय में संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं।
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