ध्वज
प्रधानमंत्री के कांपते हुए हाथों से हिन्दू राष्ट्र के राष्ट्रीय ध्वज को प्रणाम करने का वह दृश्य केवल किसी राजनेता की भावुकता नहीं था बल्कि भारतीय सभ्यता के गहनतम संवेदन तंतु को स्पर्श करने वाला क्षण था। यह वह क्षण था जिसमें राजनीति का आवरण हट गया और शुद्ध भारतीयता अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुई।
यह दृश्य प्रधानमंत्री बनने के गौरव से भी ऊपर था क्योंकि इसमें वह आत्मगौरव था जो कई पीढ़ियों के संघर्ष, पीड़ा और दमन के बाद साकार हुआ। उस क्षण में जो भावप्रधान ऊर्जा थी वह किसी मंचन का परिणाम नहीं हो सकती थी। वह एक जागृत होती सभ्यता का स्वाभाविक उभार था।

राजनीतिक लोग इस पर अपने अर्थारोपण कर सकते हैं लेकिन यह दृश्य किसी राजनीतिक विश्लेषण का विषय नहीं बल्कि प्रकृति के उस चक्र का दृश्य था जब युग बदलता है, जब समय स्वयं अपनी घोषणा करता है और जब सभ्यता अपने नए स्वरूप में प्रकट होती है।
भारतीयता का दीर्घ अवरोध और स्वाभाविक मुक्तिघोष
भारत की चेतना लंबे समय तक दबी रही। विदेशी आक्रमणों ने इसकी जड़ों को चोट पहुंचाई और स्वतंत्रता के बाद एक नई वैचारिक दासता ने हिन्दू पहचान को हीनभावना से जोड़ दिया। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपने धर्म का नाम लेने से घबराते थे।
हिन्दू होने को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करना राजनीतिक आत्मघात माना जाता था और इस भय ने पूरे राष्ट्र को एक कृत्रिम संकोच में बांध दिया। दूसरी ओर दूसरे धर्मों के प्रतिनिधि बिना किसी संकोच के अपनी धार्मिक परंपराओं का पालन करते थे।

सिख नेता गुरुद्वारे जाते, मुस्लिम नेता सार्वजनिक नमाज पढ़ते, ईसाई नेता चर्च में प्रस्तुत होते, पर हिन्दू प्रधानमंत्री मंदिर जाने से भी डरते थे। इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री का ध्वज प्रणाम वह क्षण बना जिसने सदियों की वैचारिक बेड़ियों को तोड़कर भारतीयता को उसके स्वाभाविक स्वरूप में पुनर्स्थापित किया।
प्रकृति की अपनी कार्य पद्धति और पात्रों का चयन
भारतीय परंपरा में प्रकृति का अपना चक्र है। समय अपने पात्र चुनता है और उनसे कार्य करवाता है। वर्तमान में परिवर्तन के दृश्यमान चेहरे मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ हैं, लेकिन यह परिवर्तन केवल इन तीन व्यक्तित्वों की देन नहीं है।

यह सैकड़ों वर्षों की सामूहिक साधना, संघर्ष और अनगिनत अनाम सेनानियों की तपश्चर्या का परिणाम है। इन दृश्यमान चेहरों के पीछे असंख्य लोग हैं जिन्होंने बिना किसी पहचान की इच्छा के इस परिवर्तन को सम्भव बनाने में भूमिका निभाई। उनके प्रयासों का संचय ही आज इस राष्ट्रीय चेतना के रूप में प्रकट हुआ है।
रामजन्मभूमि आंदोलन से सांस्कृतिक पुनउत्थान तक का ऋण
रामजन्मभूमि आंदोलन एक साधारण आंदोलन नहीं था बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रस्थान बिंदु था। महंत परमहंस दास, महंत अवैद्यनाथ, अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह और लाखों कारसेवकों ने अपने जीवन को इस संघर्ष में झोंक दिया।

उन्होंने अपमान सहा, जेलें झेलीं, राजनीतिक आघात सहे और फिर भी धर्म के इस संग्राम में अडिग रहे। कारसेवकों का बलिदान रामलला के प्रकट स्वरूप के साथ आज भी जुड़ा हुआ है। यह वही ऊर्जा है जिसने समय के साथ भविष्य के नेतृत्व को खड़ा किया और उसे सामर्थ्य प्रदान की।
इसी संघर्ष की शक्ति ने आगे चलकर इन नेताओं को इतना सक्षम बनाया कि वे आज निर्भीक होकर भारतीयता का उद्घोष कर सकें।
अप्रत्यक्ष नायक सामाजिक churn जिसने नया नेतृत्व निर्माण किया
यह परिवर्तन केवल धार्मिक आंदोलन का परिणाम नहीं था बल्कि सामाजिक churn ने भी इस परिवर्तन को गति दी। अन्ना आंदोलन और रामदेव बाबा का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भारतीय समाज की अंतरात्मा को झकझोर देने वाली घटनाएँ थीं।
इन आंदोलनों ने भारतीय मानस को पुनर्चिंतन के लिए बाध्य किया। इससे एक ओर नकारात्मक तत्व भी निकले पर दूसरी ओर इसी churn ने नरेंद्र मोदी के लिए निर्णायक नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया और योगी आदित्यनाथ के उभार के लिए भूमि तैयार की।

यह churn प्रकृति का वह मंथन था जिसमें विष और अमृत दोनों निकले परंतु अमृत के रूप में जो नेतृत्व उभरा उसने भारत की दिशा बदल दी।
सेकुलर राजनीति का पतन और हिंदू चेतना का उभार
बीते दो दशकों तक भारतीय राजनीति में हिन्दू पहचान को लेकर संकोच व्यापक था। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता उस दौर के प्रतिनिधि थे जहाँ हिन्दू शब्द का उच्चारण भी जोखिम माना जाता था। लेकिन आज वही नेता हिन्दू प्रतीकों के साथ खड़े दिखाई देते हैं।

यह केवल राजनीतिक रणनीति नहीं बल्कि समाज की दिशा के परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समाज बदलता है तो राजनीति उसकी छाया में बदलती है। यह परिवर्तन हिन्दू चेतना के पुनरुत्थान का स्पष्ट संकेत है।
संघ नेतृत्व की भविष्य दृष्टि और 2025 का महत्त्व
रामदेव बाबा के आश्रम में संघ के पूर्व सरसंघचालक केपी सुदर्शन जी ने 2012 के आस पास जो भविष्य दृष्टि व्यक्त की थी वह आज एक मूर्त सत्य की तरह सामने खड़ी है। उन्होंने कहा था कि संधि काल समाप्त होकर 2014 से नया युग आरम्भ होगा।

2017 को उन्होंने संकेत काल बताया और 2025 को नए युग का पूर्ण प्रकट होने वाला समय। 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ, 2017 में योगी आदित्यनाथ का उभार हुआ और 2025 में यह परिवर्तन पूर्ण रूप से दिखाई दे रहा है। प्रधानमंत्री का ध्वज प्रणाम उसी बदले हुए युग का प्रत्यक्ष साक्ष्य है।
धार्मिक नेतृत्व की आलोचना और उनकी वास्तविक भूमिका
राम मंदिर उद्घाटन या अन्य धार्मिक आयोजनों पर कुछ शंकराचार्यों की असंतुष्टि सामने आती है पर उन्हें यह समझना चाहिए कि उनका कार्य धर्म का संरक्षण और उपदेश है। राजनीतिक नेतृत्व का प्रभाव वैश्विक होता है। जब एक संवैधानिक प्रमुख सनातन संस्कृति के साथ खड़ा होता है तो उसका संदेश विश्व मंच पर जाता है।

धार्मिक नेतृत्व को इस पर प्रसन्न होना चाहिए कि आज भारत का सर्वोच्च नेतृत्व हिन्दू पहचान को छुपाकर नहीं बल्कि गर्व के साथ स्वीकार कर रहा है। यह वह दृश्य है जिसकी प्रतीक्षा कई पीढ़ियों से की जा रही थी।
डरे हुए प्रधानमंत्री से निडर प्रधानमंत्री तक की यात्रा
भारत ने वह समय भी देखा है जब प्रधानमंत्री धार्मिक नेताओं को डराते थे। शंकराचार्य जैसे सर्वोच्च धार्मिक नेता राजनीतिक दबाव में जेल भेजे जाते थे। यह वह समय था जब भारत को उसके अपने धर्म से भयभीत कर दिया गया था। आज वह समय बदल गया है।

आज प्रधानमंत्री संत वेश में मंदिर जाते हैं और निर्भीकता से सनातन संस्कृति का उद्घोष करते हैं। यह केवल राजनीतिक बदलाव नहीं बल्कि सभ्यतागत क्रांति है। यह उस भारत का उदय है जिसने अपनी जड़ों को पहचान लिया है।
ध्वज प्रणाम का अर्थ सभ्यता का जागरण
प्रधानमंत्री का ध्वज प्रणाम किसी व्यक्ति की भावुकता नहीं बल्कि पूरी सभ्यता का प्रणाम था। यह कारसेवकों के बलिदान के प्रति कृतज्ञता थी। यह उन संतों और साधकों के तप का सम्मान था जिन्होंने अपने जीवन को धर्म रक्षा के लिए समर्पित किया।

ध्वज के सामने प्रधानमंत्री के कांपते हाथ इस बात का संकेत थे कि भारत अब अपने स्वाभाविक स्वरूप में खड़ा है। यह दृश्य आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सांस्कृतिक स्मृति बनेगा।
पुनर्जागरण अब घोषणा नहीं प्रत्यक्ष अनुभव है
अब यह घोषित नहीं करना पड़ता कि भारत बदल चुका है। यह परिवर्तन अब प्रत्यक्ष अनुभव है। भारतीयता पुनः उन्नत आत्मविश्वास के साथ खड़ी है।

सनातन संस्कृति अब रक्षात्मक नहीं बल्कि उद्घोष करती हुई खड़ी है। प्रधानमंत्री का ध्वज प्रणाम एक दृश्य नहीं बल्कि सभ्यता के जागरण का उद्घोष है।
यह वह भारत है जिसकी प्रतीक्षा सदियों से थी और जो अंततः 2025 में अपने पूर्ण तेज के साथ प्रकट हुआ है।

