रायपुर: 83 साल के जागेश्वर प्रसाद अवधिया आखिरकार बरी हो गए। 1986 में मात्र 100 रुपये रिश्वत लेने के आरोप में शुरू हुआ मुकदमा अब जाकर खत्म हुआ। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने सबूतों की कमी और गवाहियों में खामियों के चलते निचली अदालत का फैसला रद्द किया।
रायपुर: अदालत ने साफ कहा कि सिर्फ नोट बरामद होना रिश्वत लेने का सबूत नहीं है, जब तक मांग और स्वेच्छा से स्वीकार करना साबित न हो।
लेकिन सवाल यही है, क्या 39 साल बाद आया यह फैसला सच में न्याय है?
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लंबा मुकदमा, तबाह हुई ज़िंदगी
रायपुर: अवधिया पर आरोप था कि उन्होंने अपने सहकर्मी अशोक कुमार वर्मा से 100 रुपये मांगे थे। लोकायुक्त ने जाल बिछाया और पाउडर लगे नोट बरामद किए।
अवधिया का दावा है कि नोट उनकी जेब में जबरन रखे गए थे। बावजूद इसके, उन्हें दोषी ठहराया गया और नौकरी से निलंबित कर दिया गया।
करीब चार दशक तक चले केस ने न सिर्फ उनका करियर खत्म कर दिया, बल्कि परिवार की आर्थिक स्थिति और बच्चों का भविष्य भी तबाह कर दिया।
“न्याय तो मिला, लेकिन मेरे लिए नहीं”
रायपुर: फैसले के बाद भावुक अवधिया ने कहा.“न्याय मिला जरूर है, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं। मेरी पूरी ज़िंदगी इस मुकदमे में बर्बाद हो गई।
आधी तनख्वाह में बच्चों की पढ़ाई तक पूरी नहीं कर सका। बेटियों की शादी मुश्किल से हुई, बेटे बेरोजगार रह गए।
अब बस इतना चाहता हूं कि मेरे छोटे बेटे नीरज को नौकरी मिल जाए ताकि उसका भविष्य सुधर सके।”
बेटों का दर्द: पढ़ाई से समझौता, गरीबी का बोझ
रायपुर: अवधिया के बड़े बेटे अखिलेश ने याद करते हुए कहा, “मैं 10वीं कक्षा में था, जब यह घटना हुई। पढ़ाई छोड़कर 300 रुपये की छोटी नौकरी करनी पड़ी ताकि खर्च चल सके।
गरीबी इतनी थी कि पेट भर खाना भी मुश्किल हो गया। आज भी खोए हुए समय की भरपाई नहीं हो सकती। मैं चाहता हूं कि न्यायपालिका में सुधार हो ताकि कोई और परिवार इस पीड़ा से न गुज़रे।”
Justice Delayed is Justice Denied
अवधिया का मामला भारत की न्याय व्यवस्था पर बड़ा सवाल उठाता है।
- क्या 39 साल बाद आया फैसला सच में इंसाफ कहलाया जा सकता है?
- क्या खोया हुआ करियर, बिगड़े रिश्ते और बच्चों का भविष्य वापस मिल सकता है?
कानून कहता है कि हर नागरिक को न्याय मिलना चाहिए, लेकिन जब न्याय इतनी देर से मिले कि ज़िंदगी ही खत्म हो जाए, तो वह न्याय से इनकार के बराबर है।
मुआवजे की उम्मीद और आखिरी अरमान
रायपुर: अब जागेश्वर अवधिया और उनका परिवार चाहता है कि राज्य सरकार निलंबन और वर्षों की पीड़ा को देखते हुए उन्हें मुआवजा दे।
साथ ही उनका आग्रह है कि उनके बेटे नीरज को नौकरी दी जाए, ताकि संघर्ष से टूटे परिवार को सहारा मिल सके।

