इज़राइल – ईरान टकराव
इज़राइल का ईरान पर निशाना और ट्रम्प की स्वीकृति
मध्यपूर्व में हालिया घटनाक्रम से यह साफ दिखता है कि इज़राइल अब ईरान को जड़ से समाप्त करने का मन बना चुका है। शुरुआती संकोच के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी इस अभियान में शामिल हो गए हैं।
ट्रम्प का मकसद केवल ईरान को रोकना ही नहीं, बल्कि रूस को बिना प्रत्यक्ष युद्ध में उतरे घेरना भी है। इस प्रकार इज़राइल और अमेरिका का साझा लक्ष्य सीधे रूस की रणनीतिक स्थिति पर प्रहार करना है।
रूस पर पश्चिम की नज़र: कैथरीन महान और क्रीमिया
पश्चिमी यूरोप और अमेरिका की नज़र रूस पर कोई नई बात नहीं है। यह निगाह तीन सौ साल पुरानी है, जब रूस की महारानी कैथरीन महान ने क्रीमिया पर कब्ज़ा कर लिया था। ब्लैक सी तक पहुँचने के बाद रूस सीधे भूमध्य सागर और फिर अटलांटिक तक पहुँच सकता था।
इसने उसे पूर्वी यूरोप से लेकर पश्चिम तक प्रभाव जमाने का अवसर दिया। ब्रिटेन ने उसी समय समझ लिया था कि क्रीमिया का कब्ज़ा भारत पर उनके सपनों के साम्राज्य के लिए बाधा बनेगा।
ब्रिटेन बनाम रूस: अफगानिस्तान का संघर्ष
कैथरीन के कदमों के बाद ब्रिटेन ने प्राथमिकता से अफगानिस्तान की ओर कूच किया। रूस मध्य एशिया पर कब्ज़ा जमा रहा था और अफगानिस्तान उसकी अगली मंज़िल था। ब्रिटेन ने उसे रोकने के लिए युद्ध किया, भारी नुकसान उठाया लेकिन धीरे-धीरे भारत पर अपनी पकड़ मजबूत की।
रूस अपने प्रयासों में असफल रहा और उसे सपना छोड़ना पड़ा। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर डेढ़ सौ साल तक राज किया और यूरोप की उठापटक से खुद को बचाए रखा, लेकिन मन में यही रहा कि किसी तरह रूस की पहुँच ब्लैक सी और मेडिटेरेनियन से समाप्त करनी है।
पेट्रोलियम युग और अमेरिका का उभार
20वीं सदी में पेट्रोलियम की खोज ने शक्ति समीकरण बदल डाले। ऊर्जा संसाधन शक्ति का नया आधार बने। ब्रिटेन की ताकत कमजोर हुई और उसकी ‘सुप्रेमेसी’ अमेरिका को मिली। अब पश्चिम का मकसद केवल क्रीमिया से रूस को धकेलना नहीं रहा, बल्कि उसके विशाल भूभाग और अपार खनिज-तेल संसाधनों पर कब्ज़ा करना बन गया।
जर्मनी समेत कई पश्चिमी नेता खुलेआम कहने लगे कि रूस की संपदा का बंटवारा होना चाहिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका और रूस साथ खड़े थे, पर जल्द ही वे दो धड़ों में बंट गए और शीत युद्ध का आरंभ हुआ।
शीत युद्ध और सोवियत विघटन
शीत युद्ध के दौरान रूस ने ब्लैक सी पर अपना घेरा मजबूत किया और अफगानिस्तान में दोबारा घुस गया। लेकिन पश्चिम ने उसी तीन सौ साल पुराने संघर्ष को जारी रखा।
अंततः सोवियत संघ बिखर गया और अमेरिका-ब्रिटेन ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। सोवियत पतन के बाद अमेरिका ने रूस का क्रीमिया से प्रभाव समाप्त कर दिया और उसे भूमध्य सागर से अलग कर दिया।
क्रीमिया की वापसी और रूस का संकल्प
रूस ने समझा कि क्रीमिया छोड़ना उसकी समाप्ति का संकेत होगा। यदि क्रीमिया गया तो पश्चिम सीधे उसके तेल और खनिज छीन लेगा।
इसलिए सोवियत पतन के महज बीस वर्षों के भीतर रूस ने फिर क्रीमिया पर कब्ज़ा कर लिया। इससे उसने साफ संदेश दिया कि भूमध्य सागर तक उसकी पहुँच उसके अस्तित्व का प्रश्न है।
नाटो का विस्तार और यूक्रेन की भूमिका
अमेरिका ने रूस को घेरने के लिए नाटो को एशिया तक विस्तार देना शुरू किया। सवाल उठा कि अटलांटिक सुरक्षा के लिए बने संगठन को एशिया में क्यों लाया जा रहा है।
असल वजह थी रूस को ब्लैक सी और भूमध्य सागर से दूर रखना। यूक्रेन लंबे समय तक न्यूट्रल रहा लेकिन सीआईए के प्रयासों के बाद धीरे-धीरे ज़ेलेंस्की को सत्ता में लाया गया।
ज़ेलेंस्की आते ही यूक्रेन नाटो में शामिल होने की ओर झुक गया। रूस के लिए इसका अर्थ था क्रीमिया खोना, और क्रीमिया खोने का मतलब भूमध्य से कट जाना तथा अंततः विभाजन और शोषण। इसलिए रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया।
रूस-यूक्रेन युद्ध और पश्चिम का दबाव
इस युद्ध में नाटो ने धन और हथियार दिए, यूक्रेन ने अपनी भूमि और मानव संसाधन झोंके, जबकि रूस ने अपनी पूरी शक्ति लगाई। रूस को साफ दिखा कि अगर पूरा पश्चिम उसके खिलाफ खड़ा रहा तो वह लंबे समय तक टिक नहीं पाएगा।
उसे समझ आ गया कि यदि युद्ध ट्रम्प के कार्यकाल तक खिंच जाए तो स्थिति बदल सकती है। बाइडेन शासन तक अमेरिकी मिलिटरी लॉबी हावी रहेगी लेकिन ट्रम्प आने पर सौदेबाजी संभव होगी।
ईरान की भूमिका और हमास का सक्रिय होना
रूस ने पश्चिम को उलझाने के लिए मध्यपूर्व का सहारा लिया और ईरान को सक्रिय किया। ईरान इस्लाम का नेता बनने की महत्वाकांक्षा रखता है और इसके लिए वह किसी हद तक जा सकता है।
रूस ने उसके इसी मनोविज्ञान का प्रयोग कर हमास को उकसाया। हमास ने इसराइल में प्रवेश कर नागरिकों की हत्या कर दी। रूस जानता था कि इज़राइल चुप नहीं बैठेगा। आठ सौ यहूदियों की मौत ने इज़राइल को भड़का दिया और नया युद्ध मोर्चा खुल गया, जिसमें अमेरिका भी कूदना पड़ा।
इज़राइल का जवाब और युद्ध का विस्तार
इज़राइल ने तेजी से हमले शुरू किए। यमन में हूती, गाजा में हमास और सीरिया में बसर अल-असद को निशाना बनाया। धीरे-धीरे यह लड़ाई ईरान तक पहुँच गई। रूस को इस संघर्ष से समय मिल गया और ट्रम्प की वापसी ने उसकी रणनीति को बल दिया।
ट्रम्प की वापसी और युद्ध की दिशा
ट्रम्प वैश्वीकरण की जगह स्थानीयता समर्थक हैं और सीधे युद्ध में अमेरिका को नहीं झोंकते। इससे रूस को सांस लेने का मौका मिला। वह अब सौदे कर सकता है और खुद को बचा सकता है। युद्ध की तीव्रता धीमी पड़ी और रूस-यूक्रेन संघर्ष अब प्राथमिकता नहीं रहा।
इज़राइल का नया खेल: अवसर में बदलती आपदा
अनायास इस युद्ध में घुसा इज़राइल अब इसे अवसर बना चुका है। उसने गाजा में हमास को कुचला, हूतियों को सबक सिखाया, सीरिया में बसर को हटा दिया और अब उसकी नजर ईरान पर है।
अमेरिका और ट्रम्प खुलकर उसके साथ हैं। अरब देश पहले से अमेरिका के साथ हैं, इसलिए इसराइल से उनके संबंध सुधर चुके हैं।
पाकिस्तान और अरब समझौता
पाकिस्तान अब तक इस्लामी उम्मा में हीरो बनने की नौटंकी कर रहा था, लेकिन अमेरिका ने उसे स्पष्ट निर्देश दिया कि ईरान के खिलाफ खड़ा हो।
प्रत्यक्ष रूप से जाने से पाकिस्तान की बदनामी होती, इसलिए ट्रम्प के जरिए दबाव डलवाया गया। अब सुरक्षा समझौते के बाद पाकिस्तान, अरब, अमेरिका और इज़राइल एक पाले में हैं और इन सबका दुश्मन ईरान है।
इस्लामी जगत और इसराइल का अस्तित्व
अरब और पाकिस्तान समेत पूरा इस्लामी जगत यह मानने पर मजबूर हो रहा है कि इसराइल का अस्तित्व अब वास्तविकता है। ट्रम्प और नेतन्याहू के गाजा संधि प्रस्ताव को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ का समर्थन इस परिवर्तन की घोषणा है।
यहूदी राष्ट्र से लड़ते-लड़ते इस्लामी जगत थक चुका है और समझ गया है कि इस युद्ध का अर्थ है आत्मविनाश।
रूस पीछे, इज़राइल आगे
आज की वास्तविकता यह है कि रूस-यूक्रेन संघर्ष अब पृष्ठभूमि में चला गया है। असली खेल मध्यपूर्व में चल रहा है, जहां इज़राइल ने आपदा को अवसर में बदल लिया है।
अमेरिका, अरब और पाकिस्तान उसके साथ हैं और ईरान घेराबंदी में है। यह केवल क्षेत्रीय संघर्ष नहीं बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन का नया अध्याय है, जिसमें इज़राइल सबसे बड़ा विजेता बनकर उभरता दिख रहा है।

