पड़ोसियों के सत्ता परिवर्तन और भारत की रणनीतिक सूझबूझ
अफ़ग़ानिस्तान से लेकर नेपाल और बांग्लादेश से लेकर श्रीलंका तक पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक घटनाक्रम ने पूरे दक्षिण एशिया का स्वरूप बदल दिया।
हर जगह सत्ता परिवर्तन, जनता का ग़ुस्सा, चीन की चालबाज़ियाँ और संकटों के बीच भारत ने जो नीति अपनाई, उसने उसे स्थिरता और मज़बूती प्रदान की।
यह नीति आक्रामक नहीं बल्कि शांत, सूझबूझ भरी और अवसर की प्रतीक्षा करने वाली रही।
अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन और पाकिस्तान की खुशफ़हमी
जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर कब्ज़ा किया तो पाकिस्तान में जश्न का माहौल था। उन्हें लगा कि अब अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ आतंकवाद फैलाने में किया जा सकेगा।
लेकिन भारत ने प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नहीं दी। भारत ने न तो बयानों में उत्तेजना दिखाई और न ही सीमा पर तनाव बढ़ाया। वह चुपचाप अपना कार्य करता रहा।
आज स्थिति पलट चुकी है। तालिबान अब पाकिस्तान के ख़िलाफ़ खड़ा है। वही पाकिस्तान, जो तालिबान को अपना औज़ार मान रहा था, अब उसी से परेशान है।
यह परिस्थितियाँ भारत के लिए अप्रत्यक्ष रूप से लाभकारी बन गईं। भारत को बिना कोई गोली चलाए या युद्ध छेड़े वह परिस्थिति मिल गई जो पाकिस्तान के लिए सिरदर्द साबित हो रही है।
मालदीव में ‘इंडिया आउट’ से ‘इंडिया इन’ तक
मालदीव में “इंडिया आउट” का नारा उस समय ज़ोर पकड़ने लगा जब मोहम्मद मोइज़्ज़ू सत्ता में आए। वे लगातार चीन की ओर झुकते रहे और भारत विरोधी माहौल बनाते रहे।
भारत ने इस बार भी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया से बचते हुए रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू लक्षद्वीप गए, वहाँ फ़ोटो सेशन हुआ और अप्रत्यक्ष संदेश दिया गया।
यह हल्का-सा दबाव मालदीव के लिए पर्याप्त था। केवल दो महीने के भीतर “इंडिया आउट” का नारा ग़ायब हो गया।
मोइज़्ज़ू ने स्वयं स्वीकार कर लिया कि मालदीव भारत के बिना चल ही नहीं सकता। भारत ने बिना कठोर बयानबाज़ी किए, केवल प्रतीकात्मक कूटनीति से अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी।
श्रीलंका का कर्ज़ संकट और भारत की निर्णायक भूमिका
श्रीलंका ने चीन के निवेश के मोह में भारत को दरकिनार करना शुरू कर दिया था। चीन ने बुनियादी ढाँचे में भारी निवेश किया, लेकिन उससे कर्ज़ का बोझ बढ़ता गया।
हालात तब और बिगड़े जब सरकार ने ऑर्गेनिक खेती को ज़बरदस्ती लागू करने का निर्णय लिया। नतीजा यह हुआ कि उत्पादन घटा, महंगाई बढ़ी और जनता सड़कों पर उतर आई।
आख़िरकार जनता राष्ट्रपति भवन में घुस गई। राष्ट्रपति देश छोड़कर भागे। श्रीलंका कर्ज़ और अव्यवस्था में डूब गया। उसी समय भारत ने हाथ बढ़ाया।
भारत ने वित्तीय सहायता दी, खाद्यान्न और ईंधन की आपूर्ति की और संकट से उबारने में मदद की। नई सरकार बनी और हालात सुधरे।
इस तरह भारत ने अपने पड़ोसी को बचाया और साथ ही यह संदेश दिया कि वास्तविक मित्र वही है जो संकट में काम आता है।
बांग्लादेश में संकट और भारत का दबाव
बांग्लादेश में सबकुछ ठीक चल रहा था कि अचानक आरक्षण को लेकर आंदोलन शुरू हुआ। सरकार ने आंदोलनकारियों से संवाद करने के बजाय उन पर गोली चलवा दी।
सैकड़ों लोग मारे गए। हालात बिगड़े और प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को देश छोड़ना पड़ा।
इसके बाद हिंदुओं पर हमले बढ़े। भारत ने इस बार भी संयम से काम लिया, लेकिन दबाव डालना शुरू किया। निर्यात को प्रभावित किया गया, जिससे बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा।
परिणाम यह हुआ कि सेना को संवाद की राह पर आना पड़ा। आज वहाँ हालात स्थिर नहीं हैं, लेकिन निकट भविष्य में चुनाव होने पर तस्वीर बदलेगी।
इस बीच सत्ता परिवर्तन का मुख्य विदेशी किरदार रहस्यमयी गोलीबारी में मारा गया, जिससे घटनाक्रम और पेचीदा हो गया।
नेपाल में कम्युनिस्ट शासन की विफलता
नेपाल में कम्युनिस्टों ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने न केवल आर्थिक ढांचे को नुकसान पहुँचाया बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों को भी कमजोर किया।
रोजगार के अवसर घटे, राजनीति में जनता की सहभागिता कम हुई और मीडिया पर नियंत्रण बढ़ गया।
चीन के इशारे पर भारत विरोधी माहौल बनाया गया और सीमा विवाद खड़े किए गए। सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की कोशिश ने जनता के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया।
अब वहाँ की स्थिति ऐसी है कि जो भी नई सरकार बनेगी, वह इस भय में रहेगी कि उसका भी वही हाल हो सकता है जो पिछली सरकार का हुआ।
साथ ही यह समझ भी होगी कि अंततः भारत ही वह पड़ोसी है जिसके साथ रिश्ते बनाए बिना आगे बढ़ना असंभव है।
भारत और नेपाल की तुलना क्यों ग़लत है
कुछ लोग यह माहौल बनाने की कोशिश करते हैं कि भारत में भी नेपाल जैसी स्थिति आ सकती है। लेकिन यह पूरी तरह भ्रम है।
भारत की संघीय संरचना उसे अतिरिक्त सुरक्षा देती है। यहाँ केवल केंद्र सरकार ही सब कुछ तय नहीं करती। राज्यों के पास भी बड़ी शक्तियाँ हैं।
तमिलनाडु की राजनीति, बिहार की राजनीति और कश्मीर की राजनीति का आपस में कोई संबंध नहीं। नागालैंड, उड़ीसा और गुजरात की राजनीति भी बिल्कुल अलग है।
इसलिए यहाँ किसी एक आंदोलन से पूरे देश को हिला पाना संभव नहीं है। यही विविधता भारत की ताक़त है।
भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा की सीमाएँ
भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा को कभी व्यापक स्वीकृति नहीं मिली। कभी-कभार कुछ समूह इसे उठाते हैं लेकिन जनता ने इसे बार-बार नकारा है।
आम आदमी पार्टी जैसी अराजक ताक़तें अपवाद हैं, लेकिन पूरे देश में इस विचारधारा को स्वीकार्यता नहीं मिल पाती।
मीडिया और यूट्यूब चैनल रोज़ सत्ता परिवर्तन की भविष्यवाणी करते रहते हैं, पर भारतीय लोकतंत्र इतना मज़बूत है कि केवल चुनाव के ज़रिये ही सत्ता बदली जा सकती है। यहाँ जनता का वोट ही अंतिम निर्णय करता है।
हिंसक आंदोलनों पर भारत की संयमित नीति
भारत में हिंसक आंदोलन की कोशिशें हुई हैं। गणतंत्र दिवस पर लालकिले पर ट्रैक्टर चढ़ाने से लेकर खालिस्तानी झंडा फहराने तक घटनाएँ हुईं।
महीनों तक चले किसान आंदोलन में सड़कों पर डेरा डालने वाले भी सामने आए। हिंसा में निर्दोषों की जान भी गई।
लेकिन भारत सरकार ने कहीं भी गोली नहीं चलाई। उसने संयम और सूझबूझ से काम लिया।
नतीजा यह हुआ कि समय के साथ इन आंदोलनों का असली चेहरा जनता के सामने आ गया। लोगों ने ballot के ज़रिये ही जवाब दिया।
क्यों असंभव है भारत में नेपाल जैसी स्थिति
भारत में नेपाल जैसी स्थिति उत्पन्न होना लगभग असंभव है। यहाँ सत्ता केवल एक दल के हाथों में नहीं है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दल सत्ता संभालते हैं।
इसके अलावा यहाँ समाज और राजनीति में इतनी विविधता है कि कोई एक विचारधारा पूरे देश पर हावी नहीं हो सकती।
यदि कोई खतरा है भी तो वह केवल वंशवाद और नेपोटिज़्म से जुड़ा है। लेकिन वहाँ भी जनता धीरे-धीरे ballot से जवाब दे रही है।
इसलिए यह माहौल बनाना बंद होना चाहिए कि भारत नेपाल की राह पर जाएगा।
भारत की रणनीति ही है कारगर
दक्षिण एशिया के हालात बार-बार यह साबित करते हैं कि भारत की रणनीति चुप्पी, धैर्य और सही समय पर कदम उठाने की है।
अफ़ग़ानिस्तान से लेकर मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल तक भारत ने यही नीति अपनाई और लाभ उठाया।
इसलिए यह कहना गलत है कि भारत में नेपाल जैसी उथल-पुथल होगी। भारत का लोकतंत्र, संघीय ढांचा और जनता की परिपक्वता इसे सुरक्षित बनाते हैं।