चीन के मंसूबे और भारत की भूमिका
भारत-चीन संबंधों को लेकर देश में कई तरह की राय बन रही है। कुछ विश्लेषक ‘ब्रिक्स’ और ‘रिक्स’ जैसे नए गठबंधन को लेकर आशावान हैं।
तो कई विशेषज्ञ चीन के बदलते व्यवहार से उलझन में हैं। उत्साही गुट मानता है कि अमेरिकी दबाव से बचने का रास्ता बीजिंग से होकर गुजरता है।
इस धारणा का आधार राष्ट्रपति शी जिनपिंग का बयान है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हाथी और ड्रैगन को साथ चलना चाहिए।
लेकिन निराशावादी विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत चीन को केवल कच्चा माल ही बेच सकता है, जबकि उच्च तकनीकी उपकरणों और रेयर अर्थ मिनरल्स के लिए भारत स्वयं चीन पर निर्भर है।
मेरे विचार से चीन का उद्देश्य भारत की आर्थिक मदद करना नहीं बल्कि उसे अमेरिका से दूर करना है। चीन वास्तव में एशिया में अमेरिका को अलग-थलग करने की नीति पर काम कर रहा है।
इसका प्रमाण है कि उसने ऑस्ट्रेलिया और जापान से भी हाल के वर्षों में संबंध सुधारने की पहल की है।
चीन की रणनीति और छिपे उद्देश्य
चीन की इस नीति के पीछे पाकिस्तान की भूमिका और ताइवान का मसला गहराई से जुड़ा है। चीन का असली लक्ष्य ताइवान का विलय करना है।
पाकिस्तान में अमेरिकी न्यूक्लियर मिसाइल अड्डों की संदिग्ध मौजूदगी और असीम मुनीर द्वारा अमेरिका को हवाई आक्रमण की सुविधा देना इसका हिस्सा है।
यही कारण है कि मैंने पहले ही कहा था कि 27 अगस्त को भारत पर टैरिफ का फैसला नहीं होगा बल्कि ताइवान के भविष्य पर निर्णय होगा।
चीन जानता है कि उत्तर-पश्चिम में उसका कमजोर बिंदु सिक्यांग है, जहाँ अमेरिका पाकिस्तान और तालिबान की मदद से मुस्लिम मिलिशिया बना सकता है।
साथ ही, चीन की दूसरी कमजोरी मलक्का जलडमरूमध्य है, जहाँ से उसकी 70 प्रतिशत तेल आपूर्ति गुजरती है।
इस मार्ग का प्रभावी अवरोध केवल भारत के अंडमान स्थित नौसैनिक अड्डों से संभव है। यही वजह है कि चीन भारत के पक्ष में बयानबाजी करता दिखाई देता है।
भारत को लेकर चीन की सोच
चीन की रणनीति है कि किसी भी तरह भारत को अमेरिका का दुश्मन बना दिया जाए। इसी मकसद से चीन प्रेरित एजेंसियां मोदीजी को विश्व स्तर पर लाइमलाइट में रखती हैं ताकि ट्रम्प जैसे नेताओं को भड़का कर भारत-अमेरिका संबंधों में दरार डाली जा सके।
मोदी जी भले आंतरिक मामलों में उतने सक्रिय न दिखें, लेकिन वैश्विक राजनीति में उनकी समझ और चालबाजियाँ बेजोड़ हैं।
पुतिन भी इसी श्रेणी के माहिर खिलाड़ी हैं, जिन्हें भलीभांति पता है कि यूक्रेन संकट के बाद रूस की अर्थव्यवस्था कमजोर रहेगी और चीन शीर्ष पर पहुंच जाएगा।
चीन का इरादा वियतनाम सागर को पूरी तरह कब्जाने और पूर्वी एशियाई देशों को अपनी गिरफ्त में लेने का है। कम लोग जानते हैं कि उसकी नज़र ताजिकिस्तान के पामीर क्षेत्र पर भी है।
जिसका 35 प्रतिशत हिस्सा वह हड़पना चाहता है ताकि मध्य एशिया से लेकर अरब देशों तक दबदबा बना सके।
चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएँ
यह कल्पना नहीं बल्कि वास्तविकता है कि चीन पहले ही पामीर का 10 प्रतिशत हिस्सा हड़प चुका है।
रूस ने भी मजबूरी में इसमें मदद की क्योंकि उसे चीनी पूंजी की आवश्यकता थी। पुराणों में यही पामीर ‘सुमेरु’ कहा गया है, जो आर्यावर्त की उत्तरी धरा थी।
चीन ने रूस के पूर्वी बंदरगाह शहर ‘ब्लादीवोस्तोक’ पर भी दावा जताया है। विडंबना यह है कि रूस के पास इसे बसाने के लिए पर्याप्त रूसी जनसंख्या नहीं है।
कहा जाता है कि रूस ने एक बार इसके संचालन में भारत से मदद मांगी थी। यही कारण है कि पुतिन ने मोदी को अपनी कार में डेढ़ घंटे तक बातचीत के लिए साथ रखा।
भारत-रूस समीकरण
विश्व राजनीति अत्यंत अस्थिर है और सच्चे मित्र वही हो सकते हैं जिनके हित आपस में जुड़े हों और जिनके बीच बड़े विवाद न हों।
रूस ने भी कई बार भारत को धोखा दिया है और अमेरिका ने भी भारत की मदद की है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में दोनों ही चीन को लेकर चिंतित हैं।
भारत और रूस इसीलिए एक-दूसरे के साथ आना चाहते हैं ताकि भविष्य में चीन की बढ़ती ताकत को रोका जा सके।
सौभाग्य से चीन और अमेरिका के बीच मित्रता संभव नहीं है। आज की स्थिति यह है कि अमेरिका हो या चीन या रूस, किसी का भी काम भारत के बिना नहीं चल सकता।
यह रणनीतिक स्थिति भारत के लिए संतोषजनक है। इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी की अर्थनीति, विदेशनीति और रक्षानीति के सफल संयोजन को जाता है, जिसने भारत को विश्व राजनीति में अपरिहार्य बना दिया है।