तेजस्वी यादव: बिहार की राजनीति एक बार फिर लालू प्रसाद यादव की विरासत के इर्द-गिर्द घूम रही है।
फर्क बस इतना है कि अब चेहरा तेजस्वी यादव का है। महागठबंधन ने तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, लेकिन सवाल यही है कि क्या तेजस्वी वाकई बदलाव की तस्वीर हैं या फिरवही उनके परवार की पुरानी छवि का नया चेहरा?
लालू की विरासत और परिवारवाद की जकड़न
तेजस्वी यादव ऐसे परिवार से आते हैं जिसने दशकों तक बिहार की राजनीति को अपने कब्जे में रखा।
लालू प्रसाद यादव को कभी “गरीबों का मसीहा” कहा गया तो कभी “घोटालों का बादशाह”।
उनके शासन का असर आज भी बिहार की टूटी सड़कों, बेरोज़गारी और पलायन में दिखता है।
अब तेजस्वी उसी विरासत के साथ मैदान में हैं, लेकिन जनता के मन में सवाल है क्या वो लालू राज की छाया से निकल पाएँगे या वही पुराना परिवारवाद जारी रहेगा, जहाँ सत्ता की चाबी हमेशा घर के भीतर ही घूमती है?
वादे ऊँचे, पर जमीनी हकीकत नदारद
तेजस्वी यादव ने पिछले चुनावों में 10 लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया था। यह घोषणा भले ही सुर्खियाँ बनी, लेकिन इसके पीछे ठोस योजना कभी दिखाई नहीं दी।
उपमुख्यमंत्री रहते हुए भी तेजस्वी किसी बड़ी नीति या सुधार से जनता को प्रभावित नहीं कर पाए।
बिहार के युवा अब भाषण नहीं, अवसर चाहते हैं। ऐसे में जनता का सवाल वाजिब है कि “अगर आधी कुर्सी पर कुछ नहीं बदला, तो पूरी कुर्सी पर क्या होगा?”
स्टीव जॉब्स और मार्क जुकरबर्ग वाली तुलना या अतिआत्मविश्वास?
तेजस्वी यादव ने हाल ही में अपनी तुलना स्टीव जॉब्स और मार्क जुकरबर्ग से कर डाली।
वो भी तब जब उन्होंने खुद 9वीं कक्षा तक पढ़ाई की है! सोशल मीडिया पर इस बयान का मज़ाक उड़ा और लोगों ने लिखा, “जॉब्स ने आईफोन बनाया, आपने बस भाषण।”
ऐसे ओवरकॉन्फिडेंट बयान राजनीति में अक्सर उलटे पड़ जाते हैं, क्योंकि जनता अब बातों से नहीं, काम से भरोसा करती है।
महागठबंधन के भीतर दरारें और भरोसे का संकट
महागठबंधन ने भले ही तेजस्वी को CM चेहरा घोषित किया हो, लेकिन भीतर सबकुछ सहज नहीं है। कांग्रेस को यह फैसला नागवार गुज़रा है,
वहीं पप्पू यादव जैसे सहयोगी खुलकर कह रहे हैं कि “वोट तो राहुल गांधी के नाम पर ही पड़ेंगे।”
जब गठबंधन के भीतर ही भरोसे की कमी हो, तो जनता से भरोसे की उम्मीद कैसे की जाए?
दूसरी ओर बीजेपी और एनडीए तेजस्वी पर पुराने आरोपों का बोझ डालकर उन्हें घेरने में जुटे हैं।
चारा घोटाला, भूमि के बदले नौकरी घोटाला, और अब ‘माई-बहन योजना’ में गड़बड़ी के आरोप फिर चर्चा में हैं।
ऐसे में तेजस्वी का “नया बिहार” वाला वादा बार-बार पुराने घोटालों की यादों में फँस जाता है।
राजनीति ट्वीट्स तक सीमित या सुशासन की नई दिशा?
तेजस्वी यादव अब बिहार के युवाओं की उम्मीदों के प्रतीक बनने का दावा कर रहे हैं।
परंतु अब तक उनकी राजनीति ट्वीट्स, भाषणों और वादों तक सीमित नजर आती है।
अगर वे वाकई बदलाव लाना चाहते हैं, तो उन्हें यह साबित करना होगा कि वे केवल लालू के बेटे नहीं, बल्कि बिहार के विकास के नेता हैं, जो बेरोज़गारी, अपराध और निवेश की समस्याओं पर ठोस कदम उठा सकते हैं।
बदलाव की आखिरी उम्मीद या लालू 2.0 की वापसी?
महागठबंधन के लिए तेजस्वी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाना एक राजनीतिक जुआ है।
अगर वे अपने पिता की विवादित छवि से बाहर निकलकर सुशासन की नई मिसाल कायम कर पाए, तो वे बिहार के इतिहास में एक नई पहचान बना सकते हैं।
लेकिन अगर वही पुराने आरोप, वही वादे और वही जातिवादी राजनीति दोहराई गई, तो जनता यह कहने में देर नहीं लगाएगी। “नाम बदल गया, पर नजरिया वही रहा……लालू 2.0, बस नए पैकेज में।”
बिहार को अब चेहरा नहीं, चरित्र की जरुरत
बिहार की जनता अब परिपक्व हो चुकी है। उसे किसी खानदान का चेहरा नहीं, बल्कि काम का चेहरा चाहिए।
तेजस्वी यादव चाहे जितने भी पोस्टर लगवा लें, लेकिन अगर नतीजे वही पुराने रहे, तो महागठबंधन का “CM फेस” चुनाव के बाद केवल “सेल्फी फेस” बनकर रह जाएगा।

