1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 1971 की भयावह त्रासदी के 54 साल बाद बांग्लादेश एक बार फिर अस्थिरता, हिंसा और कट्टरता के चौराहे पर खड़ा दिखता है।
शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद हालात तेजी से बदले हैं।
चुनाव से पहले बढ़ती हिंसा, अल्पसंख्यकों पर हमले और एंटी-इंडिया नैरेटिव यह संकेत दे रहे हैं कि देश अपने इतिहास के सबसे काले अध्याय को भूलने की कीमत चुका रहा है।
कट्टरपंथ का उभार और पाकिस्तान की छाया
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: आज बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों की सक्रियता बढ़ी है।
भारत-विरोधी माहौल को हवा देने में पाकिस्तान समर्थित इस्लामिक समूहों की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं।
1971 की तरह ही भारत को शत्रु बताकर जनभावनाओं को भड़काया जा रहा है, ताकि क्षेत्रीय अस्थिरता से रणनीतिक लाभ उठाया जा सके।
शेख हसीना की चेतावनी
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: शेख हसीना ने हालिया इंटरव्यू में आगाह किया कि पाकिस्तान के करीब जाने की हड़बड़ी बांग्लादेश को फिर उसी अंधेरे में धकेल सकती है, जहां से वह खून-पसीने से बाहर निकला था।
उनके मुताबिक आज अल्पसंख्यकों पर हमले, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और मुक्ति संग्राम के इतिहास को मिटाने की कोशिशें 1971 की भयावह यादों की गूंज हैं।
जब पाकिस्तान दो हिस्सों में था
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान दो सिरों पर फैला था।
पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश)। भाषा, संस्कृति और प्रशासन में गहरे अंतर के बावजूद सत्ता का केंद्रीकरण पश्चिमी हिस्से में रहा।
बंगाली आबादी खुद को उपेक्षित महसूस करती रही, जिससे असंतोष बढ़ता गया।
चुनाव जीता, सत्ता छीनी गई
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 1970 के आम चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिला, लेकिन सत्ता हस्तांतरण रोक दिया गया।
यही वह चिंगारी थी जिसने जनआक्रोश को भड़काया और टकराव को हिंसक संघर्ष में बदल दिया।
ऑपरेशन सर्चलाइट, क्रूरता की पराकाष्ठा
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 25-26 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया।
इसकी उद्देश्य था कि बंगाली अस्मिता और राजनीतिक मांगों को कुचलना।
ढाका से लेकर पूरे देश में नरसंहार, यौन हिंसा और मानवाधिकार उल्लंघन हुए।
जमात-ए-इस्लामी ने पाकिस्तानी सेना का साथ देकर मुक्ति वाहिनी के खिलाफ मोर्चा संभाला।
सदी के सबसे बड़े नरसंहारों में एक
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 1971 का जनसंहार आर्मेनिया, बोस्निया और रुआंडा जैसे काले अध्यायों की कतार में गिना जाता है।
लाखों महिलाओं के साथ यौन अपराध हुए, बलात्कार शिविर बने, ‘वॉर बेबी’ जन्मे और सामाजिक बहिष्कार व आत्महत्याओं की त्रासद घटनाएं सामने आईं।
रज़ाकारों की भूमिका और हिंदुओं पर हमले
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: पाकिस्तानी सेना को रज़ाकार, अल-बदर और अल-शम्स जैसे स्थानीय सहयोगियों का साथ मिला।
बंगाली हिंदुओं को ‘भारत समर्थक’ बताकर विशेष रूप से निशाना बनाया गया।
मंदिरों का ध्वंस, जबरन धर्मांतरण और हिंदू बहुल गांवों में सामूहिक हत्याएं दर्ज हुईं। ढाका विश्वविद्यालय सहित शिक्षित वर्ग को योजनाबद्ध तरीके से खत्म किया गया।
सामूहिक कब्रों की गवाही
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: रायरबाज़ार और मीरपुर जैसे इलाके सामूहिक हत्यास्थल बने।
दिसंबर 1971 में शिक्षकों, पत्रकारों, डॉक्टरों और कलाकारों की सूचियां बनाकर उन्हें उठाया गया, ताकि बौद्धिक रीढ़ तोड़ी जा सके।
भारत की निर्णायक भूमिका
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: 3 दिसंबर 1971 को भारत ने सैन्य कार्रवाई शुरू की। 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण किया।
93,000 से अधिक पाक सैनिकों का सरेंडर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा माना गया। इसी के साथ बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्मा।
सबक भूलने की कीमत
1971 का खूनखराबा भूलता बांग्लादेश: इतिहास गवाही देता है कि कट्टरता और बाहरी दखल ने बांग्लादेश को तबाही के सिवा कुछ नहीं दिया।
आज फिर वही संकेत दिख रहे हैं। सवाल यही है कि क्या बांग्लादेश 1971 के जख्मों से मिली सीख को याद रखेगा, या इतिहास खुद को दोहराने पर मजबूर होगा?

