कोविड महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को झकझोर कर रख दिया था। इस संकट से निपटने के लिए विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं, विशेषकर अमेरिका और चीन ने जो आपातकालीन नीतियां अपनाईं, वे आज वैश्विक आर्थिक असंतुलन का कारण बन गई हैं। यह असंतुलन एक बुलबुले के रूप में विकसित हुआ, जो अब फटने की कगार पर है।
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आपातकालीन आर्थिक उपाय और उनके परिणाम
कोविड काल में अमेरिका ने एक अभूतपूर्व आर्थिक रणनीति अपनाई। सरकार ने बांड जारी करके प्रतिज्ञा की कि वह भविष्य में करों से वसूली करके ब्याज समेत तीन ट्रिलियन डॉलर लौटाएगी, और इसके बदले में एक ट्रिलियन डॉलर की मुद्रा को बाजार में प्रवाहित कर दिया। यह मुद्रा बिना किसी वास्तविक उत्पादन या मूल्य सृजन के डिजिटल या पेपर करेंसी के रूप में जनता को वितरित की गई।
इसके साथ ही, आर्थिक गतिशीलता बढ़ाने के लिए ब्याज दरें भी कम कर दी गईं। इसका उद्देश्य था कि लोग बैंकों से आसानी से ऋण ले सकें। परंतु इस नीति का एक अनपेक्षित परिणाम यह हुआ कि कम ब्याज दरों के कारण लोगों ने बैंक में पैसा जमा रखने के बजाय उसे निकालना शुरू कर दिया। आखिर जब बचत पर मिलने वाला प्रतिफल ही कम हो, तो कोई अपना धन बैंकों में क्यों रखे?
स्टॉक मार्केट में अतार्किक उछाल

लोगों ने इस अतिरिक्त मुद्रा का उपयोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया, और शेष धन को स्टॉक मार्केट में निवेश कर दिया। स्टॉक मार्केट में निवेश की विशेषता यह है कि यहां आपके पास न तो कोई वास्तविक संपत्ति होती है, न खेत, न प्लॉट, न सोना-चांदी, बस कंप्यूटर स्क्रीन पर अंकों का उतार-चढ़ाव दिखाई देता है।
इस अतिरिक्त मुद्रा ने स्टॉक मार्केट में एक भ्रामक धारणा बना दी कि अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है। परंतु वास्तविकता यह थी कि इस दौरान कोई गुणात्मक विकास नहीं हुआ था। केवल बैंकों द्वारा डिजिटल मुद्रा छापकर, कम ब्याज दरों पर बाजार में पहुंचा दी गई थी।
अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का चक्र
जब बिना वास्तविक उत्पादन या मूल्य सृजन के इतनी अधिक मुद्रा बाजार में प्रवाहित की जाती है, तो उसका मूल्य घटना स्वाभाविक है। यही कारण था कि डॉलर की क्रय शक्ति में गिरावट आई और मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई। महंगाई बढ़ने लगी, जिससे बाजार में प्रवाहित अतिरिक्त डॉलर भी अप्रभावी साबित हुए।
इस स्थिति में भी एक विरोधाभास देखने को मिला। जो लोग महंगाई से अधिक प्रभावित नहीं थे, उन्होंने इस अतिरिक्त मुद्रा को स्टॉक मार्केट में निवेश कर दिया। इससे बिना किसी वास्तविक उत्पादन वृद्धि के भी स्टॉक मार्केट में तेजी का आभास होने लगा।
ब्याज दरों में वृद्धि और उसके प्रभाव
बढ़ती मुद्रास्फीति से निपटने के लिए, केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाना शुरू कर दीं। इसके पीछे तर्क था कि अगर मुद्रास्फीति, यानी महंगाई को कम करना है, तो जो अतिरिक्त पैसा बाजार में डाला गया था, उसे वापस लेना होगा।
ब्याज दरों में वृद्धि के साथ, धन को बैंकों में जमा रखना पुनः लाभकारी हो गया और उधार लेना कठिन। इसके परिणामस्वरूप, लोग बचत की ओर उन्मुख हुए, जिससे बाजार में मांग में कमी आई। मांग में कमी के कारण पहले से मौजूद नौकरियों पर संकट गहराने लगा।
उच्च ब्याज दरों के कारण कंपनियों ने ऋण लेना कम कर दिया, जिससे व्यावसायिक विस्तार की संभावनाएं सीमित हो गईं और नई नौकरियों के सृजन में भी गिरावट आई। परंतु इस सब के बावजूद, स्टॉक मार्केट अपने ऊंचे स्तर पर बना रहा, क्योंकि बिना वास्तविक उत्पादन के प्रवाहित की गई मुद्रा अभी भी अपना प्रभाव दिखा रही थी।
आर्थिक बुलबुले के फटने का खतरा
यह आर्थिक दुश्चक्र, जिसमें एक ओर महंगाई है और दूसरी ओर स्टॉक मार्केट में अतार्किक तेजी, एक बुलबुला है जिसका फटना निश्चित है। यह केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है। चीन ने भी इसी प्रकार की आर्थिक नीतियां अपनाईं। ये दोनों देश मिलकर विश्व अर्थव्यवस्था का लगभग 75 प्रतिशत नियंत्रित करते हैं।
तात्कालिक मंदी से बचने के लिए इन देशों ने जो कदम उठाए, उनका दुष्परिणाम अब सामने आने वाला है। बाजार अपने वास्तविक स्वरूप में लौटेगा, जहां मुद्रा का मूल्य वास्तविक उत्पादन पर आधारित होगा। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था का आधारभूत सिद्धांत है कि जब तक वास्तविक उत्पादन के अनुरूप ही मुद्रा होगी, तभी बाजार स्थिर रह सकता है।
अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा और वैश्विक प्रभाव
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को इस आर्थिक बुलबुले के फटने की बात मालूम है। वे इस स्थिति का उपयोग अमेरिका को उत्पादन का केंद्र बनाने और चीन की आर्थिक शक्ति को सीमित करने के लिए करना चाहते हैं। उनका मानना है कि एक बार चरम स्तर की मंदी या महंगाई आनी ही है, तो ऐसे में अगर अमेरिका को उत्पादन का केंद्र बनाया जाए और चीन की आर्थिक प्रगति को अवरुद्ध किया जाए, तो यह अमेरिका के हित में होगा।
यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के ‘क्वांटिटेटिव टाइटनिंग’ (मौद्रिक संकुचन) का समय है, जहां अतिरिक्त मुद्रा को वापस बैंकिंग प्रणाली में लाया जा रहा है। इस प्रक्रिया में, अमेरिका और चीन के बीच की प्रतिस्पर्धा में अन्य देश पिस रहे हैं।
आर्थिक वास्तविकता की ओर लौटना ही हल
आर्थिक इतिहास और सिद्धांत यह बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में मुद्रा का मूल्य वास्तविक उत्पादन और मूल्य सृजन पर आधारित होता है। कोविड काल में अपनाई गई आपातकालीन नीतियां, जिनमें बिना वास्तविक उत्पादन के अत्यधिक मुद्रा प्रवाह शामिल था, अब अपने अंतिम चरण में हैं।
आने वाले समय में, वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक गंभीर समायोजन से गुजरना होगा, जिसमें मुद्रा प्रवाह और वास्तविक उत्पादन के बीच संतुलन पुनः स्थापित होगा। यह समायोजन दर्दनाक हो सकता है, परंतु अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीक स्थिरता के लिए आवश्यक है।
विकासशील देशों को इस आर्थिक उथल-पुथल के लिए तैयार रहना होगा और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को वास्तविक उत्पादन और मूल्य सृजन पर केंद्रित करना होगा। केवल इसी मार्ग से दीर्घकालीन आर्थिक स्थिरता और समृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है।
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