सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने राज्यपालों के लिए विधेयकों पर फैसला लेने की टाइमलाइन तय करने वाले अपने पिछले फैसले को खुद ही पलट दिया है और उसे असंवैधानिक करार दिया है। इसको लेकर राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से आर्टिकल 143 के तहत 14 सवाल पूछे थे।
राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भेजे गए 14 सवालों वाले रिफरेन्स पर आज सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले को निम्न बिंदुओं से आप समझ सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का देश की संवैधानिक संरचना को झकझोरने वाला फैसला:
1. राज्यपाल के सामने विधेयक आने पर उपलब्ध सभी संवैधानिक विकल्प
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी विधेयक के प्रस्तुत होने पर राज्यपाल केवल तीन ही संवैधानिक रास्ते अपना सकता है।
पहला—वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है।
दूसरा—वह स्वीकृति रोककर विधेयक को पुनर्विचार हेतु विधानमंडल को लौटा सकता है।
तीसरा—वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है। अदालत ने कहा कि इन तीन विकल्पों से बाहर कोई अतिरिक्त अधिकार राज्यपाल के पास नहीं है।
2. क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधा है या स्वतंत्र विवेक रखता है?
फैसले में कहा गया कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से पूर्णत: बाध्य नहीं है।
राज्यपाल अपने संवैधानिक विवेक का स्वतंत्र उपयोग कर सकता है, और यह विवेक पद का स्वाभाविक तत्व है। अदालत ने इसे राज्यपाल की विशिष्ट भूमिका का अनिवार्य पक्ष माना।
3. क्या राज्यपाल के संवैधानिक विवेक की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है
निर्णय के अनुसार राज्यपाल द्वारा लिए गए निर्णयों के गुण-दोष का परीक्षण न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
अदालत केवल सीमित प्रक्रिया-संबंधी आदेश दे सकती है, पर राज्यपाल के विवेक की गुणवत्ता, निर्णय के उद्देश्य या उसकी प्रामाणिकता पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकती।
4. क्या राज्यपाल के कार्यों पर न्यायिक कार्यवाही पूरी तरह प्रतिबंधित है
अदालत ने माना कि व्यक्ति के रूप में राज्यपाल के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती। परंतु राज्यपाल का “पद” न्यायिक दायरे से बाहर नहीं है।
अर्थात्, राज्यपाल द्वारा पदाधिकार के रूप में लिए गए निर्णय न्यायिक समीक्षा के विषय हो सकते हैं, बशर्ते कि उनकी सीमाएं संविधान ने निर्धारित की हों।
5. क्या विधेयक पर निर्णय के लिए समय सीमा तय करने का अधिकार न्यायालय के पास है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान ने जान-बूझकर समय सीमा निर्धारित नहीं की है, इसलिए न्यायालय कोई समय सीमा तय नहीं कर सकता।
ऐसा करना संविधान की लचीलापन-प्रदत्त संरचना के खिलाफ होगा। अदालत ने इसे संवैधानिक “elasticity” का अनिवार्य हिस्सा बताया।
6. क्या राष्ट्रपति के संवैधानिक विवेक की न्यायिक समीक्षा हो सकती है
निर्णय में कहा गया कि राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 200 और 201 के तहत उपयोग किए गए विवेक की न्यायालय में समीक्षा नहीं हो सकती।
संविधान ने इन धाराओं को लचीला रखने के उद्देश्य से बनाया है ताकि राज्यपाल और राष्ट्रपति बदलते राजनीतिक-संघीय परिदृश्यों में आवश्यक संतुलन बनाए रख सकें।
7. क्या राष्ट्रपति द्वारा विवेक-प्रयोग के लिए कोर्ट समयसीमा बाँध सकता है
अदालत ने इसे भी अस्वीकार किया। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति के विवेक पर कोई समय सीमा थोपना संविधान द्वारा प्रदत्त मूलाधिकारों में हस्तक्षेप होगा।
8. क्या हर संदिग्ध विधेयक पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेना अनिवार्य है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति पर अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट से राय लेने का कोई दायित्व नहीं है। राय लेना राष्ट्रपति का अधिकार है, कर्तव्य नहीं।
यदि राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति को भेजता है, तब भी राष्ट्रपति की “व्यक्तिगत संतुष्टि” पर्याप्त मानी जाएगी।
9. विवादास्पद विधेयक की न्यायिक समीक्षा कब संभव है
अदालत ने कहा कि किसी विधेयक को उसके कानून बन जाने से पहले चुनौती नहीं दी जा सकती।
बिल को न्यायालय में तभी चुनौती दी जा सकेगी जब वह अंतिम रूप से अधिनियम बनकर लागू हो जाए; उससे पूर्व की समीक्षा संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ है।
10. क्या अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल की शक्तियाँ सीमित की जा सकती हैं
फैसले में यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को ऐसा कोई अधिकार नहीं है जिससे वह राष्ट्रपति या राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को समाप्त या सीमित कर सके।
अदालत किसी भी परिस्थिति में “मान ली गई स्वीकृति” जैसी अवधारणा लागू नहीं कर सकती।
11. क्या राज्यपाल की स्वीकृति के बिना विधानसभा का विधेयक लागू कानून बन सकता है
अदालत ने इसे पूरी तरह खारिज किया। निर्णय में कहा गया कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की सहमति के बिना राज्य का कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता।
राज्यपाल की विधायी भूमिका को कोई अन्य प्राधिकारी समाप्त नहीं कर सकता, न ही अदालत इसे दरकिनार कर सकती है।
12, 13 और 14, अन्य बिंदुओं का अप्रासंगिक हो जाना
अदालत ने कहा कि उपर्युक्त विस्तृत उत्तरों के बाद शेष तीन सवाल स्वतः ही अप्रासंगिक हो जाते हैं और उन्हें अलग से संबोधित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
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