Saturday, August 23, 2025

आवारा कुत्ते और वैक्सीन माफिया का गंदा खेल: भारत की नीतियों को तोड़ने के लिए विदेशी टूलकिट और अरबों डॉलर की साजिश

पश्चिमी देशों का दोहरा चरित्र और भारत में विदेशी एजेंडा

पश्चिमी देशों की नीतियां हमेशा दोहरेपन से भरी रही हैं। जिन मुद्दों पर वे अपने देशों में पाबंदी लगाते हैं, उन्हीं मुद्दों को वे तीसरी दुनिया के देशों में लागू न होने देने के लिए अरबों डॉलर खर्च करते हैं।

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यह खर्चा उनकी परोपकारी भावना का परिणाम नहीं होता बल्कि उनके गहरे स्वार्थ का हिस्सा होता है।

कृषि कानून और विदेशी हस्तक्षेप

भारत में लागू किए गए नए कृषि कानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। जब कृषि कानून आया तो ग्रेटा थनबर्ग, रिहाना और मियां खलीफा जैसे विदेशी हस्तियों ने अचानक भारतीय किसानों के समर्थन में ट्वीटों की झड़ी लगा दी।

यह वही हस्तियां हैं जिन्हें पश्चिमी ‘डीप स्टेट’ का एजेंडा आगे बढ़ाने वाला दलाल बताया गया। उनके ट्वीट्स ने अंतरराष्ट्रीय दबाव और भारत के भीतर उग्र विरोध खड़ा करने का काम किया।

विडंबना यह है कि अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में वही व्यवस्था पहले से लागू है, जिसे भारत में कानून के जरिए लाने का प्रयास किया गया।

Dog Bite Cases In India
आवारा कुत्ते और वैक्सीन माफिया का गंदा खेल: भारत की नीतियों को तोड़ने के लिए विदेशी टूलकिट और अरबों डॉलर की साजिश 3

अमेरिका में कोई एपीएमसी प्रणाली नहीं है। वहां किसान बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ सीधे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करते हैं और उन्हें किसी आढ़तिया या दलाल की जरूरत नहीं पड़ती।

किसान अपनी उपज देश के किसी भी हिस्से में जाकर बेच सकते हैं। यही स्थिति ग्रेटा थनबर्ग के देश स्वीडन की है।

लेकिन जब भारत में यही व्यवस्था लागू करने का प्रयास हुआ तो पूरे देश में उग्र आंदोलन खड़ा कर दिया गया। कई हिंसक घटनाएं हुईं।

इस दौरान एक टूलकिट का खुलासा हुआ, जिसमें विस्तार से बताया गया था कि किस तारीख को क्या करना है, कैसे सड़कें जाम करनी हैं, कहां हिंसा भड़कानी है और किस तरह से आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करना है।

इस टूलकिट को गलती से ग्रेटा थनबर्ग ने खुद ट्वीट कर दिया था, जिससे पूरी योजना दुनिया के सामने आ गई।

विदेशों में आवारा कुत्तों पर पाबंदी और भारत में राजनीति

पश्चिमी देशों के शहरों में घूम जाइए, वहां आपको एक भी आवारा कुत्ता सड़क पर नहीं दिखेगा। वहां सरकारें और स्थानीय प्रशासन शेल्टर होम चलाते हैं।

यदि कोई कुत्ता आवारा मिलता है या कोई पालक अपने पालतू कुत्ते को छोड़ देता है तो सरकार उसे पकड़कर शेल्टर होम में डाल देती है।

इन शेल्टर होम्स में सभी कुत्तों और कुतियों का नसबंदी और वैक्सीनेशन किया जाता है, ताकि वे प्रजनन न कर सकें और उनकी संख्या धीरे-धीरे घटती जाए। परिणामस्वरूप, पश्चिम के देशों की सड़कों पर कभी भी कुत्तों की समस्या नहीं दिखती।

इसके उलट भारत में स्थिति एकदम अलग है। यहां अमेरिकी एनजीओ पेटा इंटरनेशनल ने यह सुनिश्चित करने के लिए भारी दबाव बनाया कि भारत की सड़कों से आवारा कुत्तों को हटाया न जा सके।

SUPREME COURT ON DOGS
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इसके लिए इस संगठन ने भारत के वरिष्ठ वकीलों जैसे अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल को करीब 8 करोड़ रुपये की भारी रकम दी।

यह पैसा इसलिए खर्च किया गया ताकि कोर्ट में दलील देकर यह साबित किया जा सके कि भारत में आवारा कुत्तों को हटाना ‘अन्यायपूर्ण’ है।

वैक्सीन माफिया का असली खेल

अब सवाल उठता है कि आखिर पश्चिमी देशों और उनके एनजीओ को भारत के आवारा कुत्तों की इतनी चिंता क्यों है? इसका जवाब है ‘वैक्सीन माफिया’। वैक्सीन का कारोबार अरबों डॉलर का धंधा है।

किसी वैक्सीन को बनाने में सबसे ज्यादा खर्च उसकी रिसर्च पर आता है, जबकि एक बार रिसर्च पूरी होने के बाद बड़े पैमाने पर उत्पादन बेहद सस्ता पड़ता है।

सांप के जहर की वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया बेहद आसान है। सबसे पहले घोड़े के शरीर में थोड़ी मात्रा में एंटीजन यानी जहर इंजेक्ट किया जाता है।

इसके बाद घोड़े का शरीर उस जहर के खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। फिर घोड़े के शरीर से कुछ रक्त निकालकर उसमें से सीरम अलग किया जाता है और वही वैक्सीन के रूप में इस्तेमाल होता है।

लेकिन बीमारियों की वैक्सीन बनाना इतना आसान नहीं होता। इसके लिए वायरस के एमआरएनए, डीएनए, सेलुलर और मॉलेक्युलर संरचना की गहन रिसर्च करनी पड़ती है।

वैक्सीन का मुख्य काम वायरस के मैसेंजर आरएनए को तोड़ना होता है। यही mRNA वायरस के जेनेटिक कोड को आगे बढ़ाता है और वायरस अपनी संख्या बढ़ाता है।

जब वैक्सीन उस mRNA के बॉन्डिंग को तोड़ देती है तो वायरस की वृद्धि रुक जाती है और वह खत्म हो जाता है।

रिसर्च महंगी, उत्पादन सस्ता

बीमारियों की वैक्सीन के निर्माण में रिसर्च ही अरबों डॉलर खा जाती है। लेकिन एक बार जब किसी कंपनी ने रिसर्च कर ली कि कौन सा एंटीजन किसी खास वायरस के mRNA को तोड़ सकता है।

उसके बाद बल्क प्रोडक्शन बेहद सस्ता पड़ता है। बड़े पैमाने पर बनने के बाद एक वैक्सीन की लागत एक पैसे से भी कम में आती है।

इसके बावजूद बाजार में वैक्सीन की कीमत हजारों रुपये तक रखी जाती है। उदाहरण के लिए, रेबीज की वैक्सीन लें।

यह सरकारी अस्पतालों में मुफ्त दी जाती है क्योंकि सरकार कंपनियों से bulk में खरीद लेती है। लेकिन निजी बाजार में इसकी कीमत हजारों रुपये होती है।

डॉक्टर घाव देखकर यह तय करता है कि मरीज को कितनी डोज लगेगी, और उसी हिसाब से वैक्सीन बेची जाती है।

भारत क्यों वैक्सीन माफिया का टारगेट है

अगर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और ब्राजील जैसे देशों से आवारा कुत्ते पूरी तरह खत्म कर दिए जाएं तो पश्चिमी कंपनियों का अरबों डॉलर का निवेश और उनकी ROI (रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट) बर्बाद हो जाएगा।

क्योंकि रेबीज जैसी बीमारियों की वैक्सीन का बाजार वहीं सबसे बड़ा है, जहां सड़कों पर कुत्तों की संख्या अधिक है।

इसीलिए पेटा इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं भारत में सक्रिय रहती हैं। यह संगठन अमेरिका में मुख्यालय रखता है, लेकिन वहां की सड़कों पर आवारा कुत्ते दिखाई नहीं देंगे।

वहां तो सारी व्यवस्था पहले से लागू है। फिर भी पेटा को भारत के कुत्तों की चिंता है, जबकि असली कारण पश्चिमी वैक्सीन माफिया के अरबों डॉलर का धंधा है। यही इस पूरे खेल का सच है।

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