Sunday, November 23, 2025

श्रीरामजन्मभूमि: बाबरी ढ़हाने से ध्वजा चढ़ाने तक, अदम्य हिन्दुत्व की यात्रा

श्रीरामजन्मभूमि

श्रीरामजन्मभूमि की प्राचीन महिमा

अयोध्या में भगवान् श्रीराम के पवित्र जन्मस्थान पर प्राचीन काल से एक दिव्य और अलौकिक मंदिर स्थित माना जाता रहा।

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परंपराओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सम्राट् विक्रमादित्य ने कराया था। यह केवल एक ईंट-पत्थर का ढाँचा नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के रामभक्तों की आस्था का केन्द्रीय धाम था।

देश के कोने-कोने से साधु-संत, गृहस्थ, राजपुरुष और सामान्य जन अयोध्या पहुँचकर उसी जन्मभूमि पर प्रणाम करते, दर्शन करते, पूजन-अर्चन करते और इसे ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली मानकर अपना जीवन धन्य समझते थे।

इस्लामी आक्रमण, मंदिर-विध्वंस और बाबरी ढाँचा

कालचक्र ने करवट ली। भारत पर मुगलों के निरंतर आक्रमण शुरू हुए। कई स्थानों पर असंगठित हिन्दू समाज आक्रांताओं का सामना न कर सका।

सन् 1528 में अयोध्या पर भी बाबर की सत्ता स्थापित हो गई। उसके आदेश से श्रीरामजन्मभूमि पर स्थित वह प्राचीन, भव्य और पूज्य मंदिर ध्वस्त कर दिया गया।

मंदिर की पावन भूमि पर तीन गुंबदों वाला एक ढाँचा खड़ा किया गया, जिसे आगे चलकर “बाबरी मस्जिद” कहा जाने लगा।

आक्रांता मुस्लिम सेनाओं ने केवल अयोध्या में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में असंख्य हिन्दू तीर्थों, देवालयों और धर्मस्थलों को इसी रणनीति के तहत तोड़ा, ताकि हिन्दू समाज का आत्मविश्वास चूर हो जाए, उसका मनोबल टूट जाए और वह गुलामी को अपना भाग्य समझकर निरुत्साहित हो जाए।

विश्व इतिहास में प्रायः सभी आक्रामक शक्तियों ने स्थानीय सभ्यताओं को तोड़ने के लिए सबसे पहले उनके पूजास्थलों पर प्रहार किया है; अयोध्या इसका जीवित उदाहरण बनी।

1885 : न्यायालय में पहली पुकार

हिन्दू समाज ने इस अन्याय और मंदिर-विध्वंस को कभी वैध या स्वाभाविक नहीं माना। जन्मभूमि को पुनः प्राप्त करने का संकल्प पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहा।

संघर्ष का यह प्रवाह पहली बार औपचारिक रूप से न्यायालय की दहलीज पर 15 जनवरी, 1885 को पहुँचा।

उस समय बाबरी ढाँचे के भीतर के भाग में तथाकथित मस्जिद थी, किंतु उसके बाहर स्थित राम चबूतरे पर हिन्दू निरंतर पूजा-पाठ और आराधना करते थे।

महंत रघुबर दास ने ब्रिटिश न्यायालय में एक मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने राम चबूतरे पर एक छोटा सा मंडप बनाने की अनुमति माँगी, ताकि वहां व्यवस्थित रूप से पूजा हो सके। निचली अदालत ने यह वाद खारिज कर दिया। अपील हुई, फिर दूसरी अपील हुई।

अंततः ज्युडिशियल कमिश्नर कर्नल एफ.ई.ए. कैमियर ने अपने निर्णय में यह स्वीकार भी किया कि जिस स्थान को हिन्दू भगवान् राम का जन्मस्थान मानते हैं, वहाँ मस्जिद का निर्मित होना दुर्भाग्यपूर्ण है; पर साथ ही उन्होंने यह तर्क देकर अपील ठुकरा दी कि इतने लंबे समय बाद यथास्थिति बदलने से शांति भंग हो सकती है। इस प्रकार न्यायालय ने सत्य को मानते हुए भी न्याय से दूरी बना ली।

1949 : “भए प्रकट कृपाला”, रामलला का प्राकट्य

समय फिर बदला। 22–23 दिसंबर, 1949 की मध्यरात्रि में बाबरी ढाँचे के मध्य गुंबद के नीचे स्थित स्थान पर रामलला की प्रतिमाओं का दिव्य प्राकट्य हुआ।

यह समाचार अयोध्या और आसपास के क्षेत्रों में आग की तरह फैल गया। हजारों की संख्या में लोग वहाँ पहुँचने लगे, भजन-कीर्तन और आरती शुरू हो गई, और उस ढाँचे के भीतर ही श्रीराम के बालरूप की आराधना होने लगी।

देश के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की मानसिकता अलग थी। पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि कुछ मुसलमानों ने इस घटना की शिकायत उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से की।

नेहरू ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि “मस्जिद” से मूर्तियाँ तुरंत हटाई जाएँ। उन्होंने तार भेजकर भी इस स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त की।

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय ने अयोध्या के डिप्टी कमिश्नर के.के. नायर को आदेश दिया कि मूर्तियाँ हटा दी जाएँ, और आवश्यकता पड़े तो बल प्रयोग भी किया जाए।

श्री नायर ने मुख्य सचिव को लिखित उत्तर दिया कि उस स्थान से मूर्तियाँ हटाना बिना गोली चलाए संभव नहीं है और ऐसा करना व्यापक हिंसा व अशांति को जन्म दे सकता है।

उन्होंने सुझाव दिया कि पूरे परिसर को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अंतर्गत अटैच कर दिया जाए, यथास्थिति बनाए रखी जाए, और स्वामित्व का प्रश्न दीवानी न्यायालय तय करे।

साथ ही नायर ने स्पष्ट कहा कि यदि सरकार हर हाल में मूर्तियाँ हटाने पर अडिग रहती है, तो वे इस कार्य के लिए अपने पद पर बने नहीं रह सकते।

सरकार ने अंततः मूर्तियाँ हटाने का जोखिम नहीं उठाया। परिसर में धारा 144 लगा दी गई, मध्य गुंबद को सील कर दिया गया, और केवल मंदिर के पुजारियों को ही भीतर जाकर रामलला की पूजा-अर्चना की अनुमति दी गई।

बाकी भक्तों को केवल द्वार पर लगी लोहे की जाली के पीछे से ही दर्शन करने की विवशता रही।

1950 : रामलला के पूजन-अधिकार की न्यायिक मान्यता

16 जनवरी, 1950 को रामभक्त गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद के सिविल न्यायालय में मुकदमा दायर किया।

उनकी शिकायत थी कि प्रशासन उन्हें बाबरी ढाँचे के मध्य गुंबद के अंतर्गत स्थित गर्भगृह तक जाकर भगवान् राम की पूजा-अर्चना करने से रोक रहा है।

उन्होंने न्यायालय से प्रार्थना की कि वह यह घोषित करे कि रामभक्तों को वहाँ जाकर भगवान् के दर्शन-पूजन का अधिकार है।

न्यायालय ने अंतरिम आदेश जारी कर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और प्रशासन को पूजा में बाधा न देने का निर्देश दिया। बाद में फैजाबाद के सिविल जज ने यह भी आदेश दिया कि भगवान् की मूर्तियाँ अपने स्थान से हटाई नहीं जाएँगी।

दूसरे पक्ष ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की, पर 26 मई, 1955 को उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत के आदेश को सही ठहराया।

इसी कालखंड में महंत परमहंस रामचंद्र दास ने 5 दिसंबर, 1950 को फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में एक और वाद दायर किया, जिसकी माँगें लगभग वही थीं जो विशारद जी के मुकदमे में थीं।

यह वाद बाद में 18 सितंबर, 1990 को वापस ले लिया गया, पर संघर्ष और न्यायिक लड़ाई का सिलसिला निरंतर चलता रहा।

1959 : निर्मोही अखाड़ा, प्रबंधन अधिकार का दावा

17 दिसंबर, 1959 को निर्मोही अखाड़ा न्यायालय पहुँचा। अखाड़े ने वाद स्थापित कर यह घोषणा चाही कि श्रीरामजन्मस्थान एवं वहाँ स्थित मंदिर का संपूर्ण प्रबंधन, पूजा-अर्चना की व्यवस्था एवं संचालन का अधिकार निर्मोही अखाड़े को प्राप्त है।

इसलिए विवादित जन्मस्थान तथा मंदिर का स्वामित्व और प्रबंधन अखाड़े को सौंप दिया जाए।

1961 : सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड का वाद

इसके बाद 18 दिसंबर, 1961 को सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड तथा नौ अन्य मुसलमानों ने फैजाबाद की सिविल अदालत में मुकदमा दायर किया।

इसमें दावा किया गया कि बाबरी ढाँचा और उससे जुड़ी भूमि एक सार्वजनिक मस्जिद है। उन्होंने यह भी माँग रखी कि वहाँ से सभी मूर्तियों को हटाया जाए और संपूर्ण परिसर का कब्जा वक्फ बोर्ड को सौंपा जाए।

1989 : स्वयं रामलला विराजमान का मुकदमा

एक निर्णायक मोड़ 1 जुलाई, 1989 को आया, जब स्वयं “भगवान् श्रीराम विराजमान” तथा “स्थान श्रीरामजन्मभूमि, अयोध्या” को वादी बनाकर उनके ‘वाद-मित्र’ देवकीनंदन अग्रवाल के माध्यम से एक वाद स्थापित किया गया।

इस मुकदमे में स्पष्ट घोषणा की माँग की गई कि समस्त विवादित भूमि पर स्वामित्व स्वयं भगवान् श्रीराम का है। साथ ही न्यायालय से यह निषेधाज्ञा भी माँगी गई कि इस स्थान पर मंदिर-निर्माण में कोई बाधा न उत्पन्न की जाए।

इसी वर्ष इन सभी प्रमुख मुकदमों, गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला विराजमान के वाद, को एक साथ सुनवाई के लिए जोड़ दिया गया। 10 जुलाई, 1989 को ये सभी वाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किए गए।

21 जुलाई, 1989 को उच्च न्यायालय ने तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ गठित की और 14 अगस्त, 1989 को सभी पक्षकारों को यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।

1986 : मध्य गुंबद के ताले खुलने तक की स्थिति

रामलला के प्राकट्य के बाद 1949 में परिसर पर धारा 144 लगी थी। बाद में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत परिसर को ‘अटैच’ कर उसका कब्जा रिसीवर के रूप में फैजाबाद म्युनिसिपल बोर्ड के अध्यक्ष को सौंप दिया गया।

केवल पुजारी ही भीतर जाकर आराधना कर सकते थे; आम भक्तों को जाली के बाहर से ही दर्शन की अनुमति थी।

25 जनवरी, 1986 को उमेशचंद्र ने संबंधित न्यायालय में प्रार्थना पत्र देकर मध्य गुंबद के नीचे स्थित मंदिर का ताला खोलने की माँग की, ताकि सभी रामभक्त भीतर जाकर रामलला के दर्शन कर सकें।

1 फरवरी, 1986 को अदालत ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। मंदिर के ताले खोले गए और सभी भक्तों के लिए भीतर जाकर पूजा-अर्चना का मार्ग खुल गया।

इस आदेश को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में रिट दाखिल हुई, परंतु ताले पुनः नहीं लगाए गए, और भक्तों के प्रत्यक्ष दर्शन का मार्ग खुला रहा।

1991–1994 : भूमि अधिग्रहण, रद्दीकरण और सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप

7–10 अक्टूबर, 1991 के बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने विवादित ढाँचे और आसपास की 2.77 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया।

सरकारी आदेश के अनुसार, यह अधिग्रहण अयोध्या में आने वाले भक्तों की सुविधा, व्यवस्था तथा विकास कार्यों के नाम पर किया गया था।

इस अधिग्रहण को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और 11 दिसंबर, 1992 को न्यायालय ने इस अधिग्रहण को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया।

इसके बाद 1993 में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश (और बाद में कानून) के माध्यम से विवादित ढाँचे सहित लगभग 68 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया।

इसी कानून में यह प्रावधान जोड़ा गया कि इस भूमि-संबंधी चल रहे स्वामित्व-विवादों को समाप्त माना जाएगा।

साथ ही, भारत के राष्ट्रपति के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय से एक प्रश्न पूछा गया कि क्या बाबरी मस्जिद के निर्माण से पहले उस स्थल पर कोई हिन्दू मंदिर या धर्मस्थान विद्यमान था?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस “राष्ट्रपति संदर्भ” के उस हिस्से पर विचार करने से इंकार किया, और बाद में इस पूरी व्यवस्था को डॉ. एम. इस्माइल फारुकी द्वारा चुनौती दिए जाने पर 24 अक्टूबर, 1994 के ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि सरकार इस प्रकार एकपक्षीय कानून बनाकर संपत्ति-संबंधी लंबित मुकदमों को समाप्त नहीं कर सकती।

न्यायालय ने सभी मुकदमों को पुनर्जीवित कर दिया, सरकार को भूमि की सुरक्षा और व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी, तथा निर्देश दिया कि स्वामित्व विवाद के अंतिम निपटारे के बाद भूमि उसके वास्तविक स्वामी को सौंप दी जाए।

2010 : इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विस्तृत सुनवाई और निर्णय

लंबी सुनवाई के दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को निर्देश दिया कि विवादित स्थल की वैज्ञानिक खुदाई की जाए और यह पता लगाया जाए कि क्या वर्तमान ढाँचे के नीचे कोई प्राचीन मंदिर या हिन्दू स्थापत्य मौजूद था।

दोनों पक्षों और फैजाबाद के जिला जज की उपस्थिति में की गई इस खुदाई में यह स्पष्ट प्रमाण सामने आए कि बाबरी ढाँचे के नीचे एक विशाल मंदिरनुमा संरचना के अवशेष विद्यमान थे।

पूरे प्रकरण में 87 गवाहों की बयानबाजी दर्ज हुई, जो लगभग 13,990 पृष्ठों में फैली थी। 533 दस्तावेज साक्ष्य के रूप में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए गए।

इसके अतिरिक्त वकीलों ने संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फारसी, तुर्की, फ़्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं की एक हज़ार से अधिक पुस्तकों व पूर्व निर्णयों का अध्ययन कर न्यायालय के सामने रखा, जो इतिहास, संस्कृति, पुरातत्व और धर्म से संबंधित थीं।

30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने अपना निर्णय सुनाया। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने पूर्णतः भगवान् श्रीराम विराजमान के पक्ष में निर्णय देते हुए पूरी विवादित भूमि को रामलला की मानी।

जबकि अन्य दो न्यायाधीशों ने यह तो माना कि निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे विधिक रूप से बाधित हैं और खारिज होने योग्य हैं, परंतु उन्होंने व्यावहारिक समाधान के नाम पर यह व्यवस्था दी कि विवादित भूमि को तीन बराबर भागों में विभाजित कर दिया जाए –

  • मध्य गुंबद और उसके नीचे विराजित विग्रह वाला भाग हिन्दू पक्ष को,
  • राम चबूतरा और समीपवर्ती भूमि निर्मोही अखाड़ा को,
  • तथा एक तिहाई भाग मुसलमान पक्ष को, इस प्रकार कि उन्हें वहाँ तक बाधामुक्त रास्ता मिले।

यह “तीन भागों” वाला समाधान न हिन्दू पक्ष को स्वीकार्य था, न मुस्लिम पक्ष को। सभी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे।

सर्वोच्च न्यायालय तक लंबी प्रतीक्षा और अंतिम सुनवाई

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सभी पक्षों की अपीलें सर्वोच्च न्यायालय ने 30 सितंबर, 2010 को स्वीकार कीं तथा उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाकर यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए। इसके बाद लगभग नौ वर्षों तक मामला सुनवाई की प्रतीक्षा में रहा।

8 जनवरी, 2019 को पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ गठित की गई। 26 फरवरी, 2019 को, हिन्दू पक्ष की आपत्ति के बावजूद, मामला मध्यस्थता के लिए भेज दिया गया। यह मध्यस्थता अंततः असफल रही।

6 अगस्त, 2019 से सर्वोच्च न्यायालय में प्रत्यक्ष सुनवाई आरंभ हुई, जो लगातार 40 दिनों तक चली और 16 अक्टूबर, 2019 को पूरी हुई।

हिन्दू पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने इसे मात्र मुकदमे की बहस नहीं, बल्कि धर्म और आस्था की सेवा माना। 90 वर्ष से अधिक आयु के के. पारासरन ने न्यायाधीशों के बार-बार आग्रह के बावजूद बैठकर बहस करना स्वीकार नहीं किया।

वे पूरे समय खड़े होकर ही रामलला का पक्ष रखते रहे। सी.एस. वैद्यनाथन नंगे पैर रहकर बहस करते थे। समस्त अधिवक्ता अपने तर्कों को एक प्रकार का आध्यात्मिक दायित्व मानकर प्रस्तुत कर रहे थे।

9 नवंबर 2019 : विजय का शंखनाद और मंदिर-निर्माण का मार्ग प्रशस्त

9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। न्यायालय ने समस्त विवादित भूमि को श्रीरामलला विराजमान की मान्य और वैध संपत्ति घोषित किया तथा केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस भूमि पर भगवान् श्रीराम के भव्य मंदिर के निर्माण हेतु एक स्वतंत्र ट्रस्ट का गठन करे।

निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट को विस्तार से पढ़कर यह माना कि,

  • मस्जिद की नींव खाली जमीन पर नहीं, बल्कि 12वीं शताब्दी की एक विशाल, स्थानीय, गैर-इस्लामिक शैली की इमारत की दीवारों पर रखी गई थी।
  • खुदाई में मिले स्तंभों, खंभों, नक़्क़ाशी और अवशेषों की शैली उस समय के हिन्दू मंदिर स्थापत्य के अनुरूप थी।
  • यात्रियों एवं इतिहासकारों के वर्णनों से यह सिद्ध हुआ कि हिन्दू सदियों से इस स्थान को ही भगवान् राम की जन्मस्थली मानकर पूजा करते रहे।
  • राम चबूतरा, सीता रसोई, भंडारे आदि स्थानों पर निरंतर हिन्दू पूजा-पाठ और कार्यक्रम होते रहे और ये सदैव हिन्दू प्रभाव-क्षेत्र में रहे।
  • विवादित ढाँचे की बाड़ाबंदी अंग्रेजों ने 1857 के बाद अवश्य करवाई, पर मस्जिद का भीतरी भाग और बाहरी प्रांगण, दोनों एक ही संपत्ति माने गए, जिन पर हिन्दुओं की उपस्थिति और गतिविधियाँ निरंतर चलती रहीं।
  • मुस्लिम गवाहों ने भी स्वीकार किया कि ढाँचे के अंदर और बाहर वराह, जय-विजय, गरुड़ जैसे स्पष्ट हिन्दू प्रतीक मौजूद थे।

न्यायालय के सामने 30 नवंबर, 1858 की एक महत्वपूर्ण प्राथमिकी (FIR) भी प्रस्तुत की गई, जिसमें मोहम्मद सलीम नामक व्यक्ति ने शिकायत की थी कि निहंगों के एक समूह ने विवादित स्थल पर चबूतरा बनाकर अपना निशान स्थापित किया और अंदर “राम-राम” लिख दिया।

इसे थानेदार शीतल दुबे ने सत्यापित किया। यह दस्तावेज इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण बना कि मस्जिद के अंदर और बाहर, दोनों स्थानों पर हिन्दुओं की उपस्थिति और धार्मिक गतिविधि चलती रही।

इन सभी साक्ष्यों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष दिया कि विवादित स्थल पर हिन्दू आस्था, पूजा और अधिकार की निरंतर परंपरा रही है, और वही भूमि श्रीरामजन्मभूमि है।

श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट और भव्य मंदिर-निर्माण

5 फरवरी, 2020 को भारत के प्रधानमंत्री ने संसद में घोषणा की कि “श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र” नाम से एक स्वतंत्र ट्रस्ट बनाया जा रहा है, जो जन्मभूमि पर भव्य मंदिर के निर्माण और व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालेगा।

उसी दिन सायंकाल अयोध्या के जिलाधिकारी ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार अधिगृहीत 68 एकड़ भूमि ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दी।

5 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत तथा देशभर के प्रमुख संतों और हिन्दू समन्वय-नेताओं की उपस्थिति में अयोध्या में भूमि-पूजन सम्पन्न हुआ।

यह केवल एक शिलान्यास नहीं, पाँच शताब्दियों के सतत संघर्ष, बलिदान, तपस्या और धैर्य का प्रत्यक्ष प्रतीक था।

ट्रस्ट ने समस्त राष्ट्र से मंदिर-निर्माण के लिए निधि-समर्पण का आह्वान किया। 15 जनवरी, 2021 (मकर संक्रांति) से लेकर 27 फरवरी, 2021 (संत शिरोमणि श्री रविदास जयंती) तक देशव्यापी निधि समर्पण अभियान चला।

लगभग 10 लाख कार्यकर्ता 5.50 लाख से अधिक स्थलों पर गए और 12.50 करोड़ से ज्यादा परिवारों तक राममंदिर का संदेश और निधि-समर्पण का आग्रह लेकर पहुँचे।

कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक एक ही स्वर गूँजा, “मेरे राम के मंदिर में मेरा भी अंश हो।”

इतिहास में पहली बार पूरे भारत ने, लगभग एक स्वर में, एक ही देवता, एक ही तीर्थ और एक ही संकल्प, “राम मंदिर”, के लिए अपना उदार योगदान दिया।

यह केवल पत्थरों का मंदिर नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा के पुनर्जागरण, सांस्कृतिक स्वाभिमान और भविष्य के भारत के परम वैभव के लिए खड़ा हो रहा एक जीवंत प्रतीक है।

मंदिर-निर्माण के साथ-साथ राष्ट्रनिर्माण की यह यात्रा अब अविराम चलने वाली शक्ति के रूप में स्थापित हो चुकी है।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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