Thursday, August 28, 2025

संघ शताब्दी पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का संपूर्ण व्याख्यान: 26 अगस्त 2025, विज्ञान भवन, नई दिल्ली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं, शताब्दी वर्ष के इस अवसर पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यान माला का आयोजन किया गया है।

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इस कार्यक्रम का विषय ‘आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा: नए क्षितिज’ है। कार्यक्रम में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत तीन दिन व्याख्यान देकर संघ के विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

यह श्रृंखला 26 अगस्त से 28 अगस्त तक आयोजित की गई है। संघ शताब्दी के अवसर पर सरसंघचालक के तीनों दिन के सम्पूर्ण व्याख्यान यहां प्रकाशित किए जा रहे हैं।

सरसंघचालक मोहन भागवत जी का 26 अगस्त 2025 का संपूर्ण व्याख्यान :-

माननीय सरकार्यवाह जी, माननीय क्षेत्र संघचालक जी, माननीय प्रांत संघचालक जी, उपस्थित सभी संघ के माननीय अधिकारी गण और राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले सभी गणमान्य जन, विदेशों का प्रतिनिधित्व भारत में करने वाले सभी डिप्लोमेट्स, पूज्य संत, चरण माता, भगिनी।

2018 में इसी प्रकार का एक कार्यक्रम इसी सभागृह में हुआ था। संघ के बारे में बहुत सारी चर्चाएं चलती ही हैं। ध्यान में आया कि चर्चा में जानकारी कम है। जो जानकारी है, वह ऑथेंटिक नहीं है।

इसलिए अपने तरफ से संघ की सत्य और सही जानकारी देना, जो भी संघ के बारे में चर्चा हो, वह परसेप्शन के आधार पर न हो, फैक्ट्स के आधार पर हो। वह मालूम होने के बाद निर्णय क्या करना, निष्कर्ष क्या निकालना, वह तो जो सुनेगा, उसका अपना अधिकार है।

किसी को कन्विंस नहीं करना है। बस बताना है। इस उद्देश्य से वो संवाद हुआ। और वह संवाद अपेक्षाकृत बहुत अच्छी तरह हुआ।

संघ के बारे में सत्य जानने के बाद बहुत सी बातें जो मन में बिना कारण थीं, वो चली गईं। उस सभा में आए हुए सब लोग संघ के बन गए, ऐसा नहीं कह सकते, लेकिन वो उद्देश्य भी नहीं था।

अभी शताब्दी के कार्यक्रमों का विचार जब हो रहा था, तब फिर से यह कल्पना आई कि फिर से ऐसा एक संवाद उस समय एक ही स्थान पर हुआ था। देश में चार स्थानों पर हो ताकि अधिक लोग उसमें सहभागी हो सकें, बाद में प्रश्न पूछ सकें।

लेकिन जो पहले बताया है, उस समय भी मीडिया ने बहुत अच्छी तरह उसको सारे देश में पहुंचाया था। तो वही सारी बातें फिर से बतानी हैं क्या? संघ एक विषय है, तो संघ के बारे में हर साल नया बताने का कुछ नहीं रहता है।

तो इस बार यह हुआ कि 100 वर्ष पूरे हो गए हैं। आगे हम संघ के कार्य को कैसा देखते हैं? हमारे मन में क्या चल रहा है? यह भी रखा जाए।

इसलिए न्यू होराइजंस, नए क्षितिज, ऐसा शब्द व्याख्यानमाला के टाइटल में है। और दूसरा यह किया जाए कि 70-75% नए लोगों को बुलाया जाए।

तो इसलिए जो दो व्याख्यान होने वाले हैं, उसमें आज के व्याख्यान में संघ के बारे में मैं बताऊंगा। पिछली बार जो दो भाषणों में बताया, वह एक भाषण में बताऊंगा।

100 साल की संघ की यात्रा हो रही है। क्यों हो रही है? संघ चलाना है, ऐसा नहीं है। संघ चलाने का एक उद्देश्य है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्यों शुरू हुआ? इतनी सारी बाधाएं वगैरह आई। स्वयंसेवकों ने सारी कठिन परिस्थितियों में से रास्ता निकालकर इसको चलते क्यों रखा?

और 100 साल चलने के बाद भी नए क्षितिजों की बात क्यों कर रहा है? इसका अगर एक वाक्य में आपको उत्तर देना है, तो वो वाक्य संघ की प्रार्थना के अंत में हम स्वयंसेवक लोग रोज कहते हैं—भारत माता की जय।

अपना देश है। उस देश की जय-जयकार होनी चाहिए। उस देश को विश्व में एक अग्रगण्य स्थान मिलना चाहिए।

लेकिन क्यों मिलना चाहिए? अग्रगण्य स्थान तो एक ही देश प्राप्त करेगा। और विश्व में सैकड़ों देश हैं। उसके लिए भी एक नई स्पर्धा उत्पन्न करनी है क्या?

तो ऐसा कोई इरादा नहीं है। लेकिन उसके पीछे एक सत्य है। दुनिया में इतने देश हैं। क्यों हैं? विश्व बहुत पास आ गया है।

अभी ग्लोबल बात होती है। विश्व पास आ गया है, इसलिए ग्लोबल विचार करना ही पड़ता है। तो एक देश के बड़े होने का महत्व क्या है?

यद्यपि सारे विश्व का जीवन एक है। मानवता एक है। फिर भी वो एक जैसी नहीं है। उसके अलग-अलग रूप हैं। अलग-अलग रंग हैं।

और ऐसा होने के कारण विश्व की सुंदरता बढ़ी है। क्योंकि हर एक रंग का अपना-अपना कंट्रीब्यूशन है, योगदान है।

अगर विश्व के इतिहास को देखते हैं, तो स्वामी विवेकानंद का वो कथन कि एवरी नेशन हैज़ अ मिशन टू फुलफिल। प्रत्येक राष्ट्र को एक मिशन होता है, दुनिया में जो फुलफिल करना है।

प्रत्येक राष्ट्र का विश्व में कुछ योगदान होता है, जो समय-समय पर उसको करना पड़ता है। वैसे भारत का भी अपना एक योगदान है।

विश्व के किसी देश को बड़ा होना है। अपने बड़प्पन के लिए नहीं होना है। उसके बड़े होने से विश्व के जीवन में जो एक आवश्यक नई गति चाहिए, वह पैदा होती है।

उसका उस प्रकार का योगदान होता है। इसलिए योगदान करने लायक उसको बनना है। इसलिए बड़ा होना है।

और इसलिए संघ के निर्माण का प्रयोजन भारत है। संघ के चलने का प्रयोजन भारत है। और संघ की सार्थकता भारत के विश्व गुरु बनने में है।

क्योंकि भारत का एक योगदान दुनिया में होना है। उसको देना है। उसका समय आ गया है। इसके बारे में कल हम अधिक चर्चा करेंगे।

परंतु यह भारत के उत्थान की शुरुआत कब हुई? तो एक धीमी और लंबी प्रक्रिया है, जो अभी भी चल रही है।

हमारे इतिहास में हम जानते हैं कि हम वैभव के शिखर पर थे। स्वतंत्र थे। फिर आक्रमण हुए। हम परतंत्र हुए।

और दो बार बड़ी परतंत्रता झेलकर हम स्वतंत्र हुए। उस परतंत्रता में से मुक्त होना, यह पहला काम था।

अपने देश को बड़ा करना है, तो स्वतंत्र आवश्यक है। श्रृंखलाओं में बंधा आदमी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता।

और इसलिए अपने लिए कुछ कर भी नहीं सकता है। तो यह स्वतंत्रता के लिए प्रयास शुरू हुए।

एक व्यापक अखिल भारतीय प्रयास उसके लिए युद्ध 1857 में हुआ। वह युद्ध कुल मिलाकर विफल हुआ।

उस विफलता के कारण देश में विचार शुरू हुआ कि यह हमारा देश है। हमारी जनसंख्या प्रचंड है।

हमारे अपने राजा-महाराजा हैं। हजारों मील दूर से आकर मुट्ठी भर लोग जो इस देश को जबरदस्ती चला रहे थे, उनके सामने हम हार कैसे गए?

हार क्यों गए? तो बहुत आशावादी लोगों का उत्तर था कि इस बार हार गए, तो क्या हो गया? फिर से एक बार ऐसा ही प्रयास करना चाहिए।

सशस्त्र क्रांति तो एक धारा वो फिर से बह चली। क्रांतिकारकों की धारा देश के लिए अपना जीवन, अपना यौवन हवन करने वाले लाखों उदाहरण उस धारा में से निकले।

जो हम सबके आज भी प्रेरणा स्रोत हैं, आदर्श हैं, जीवन के बारे में देश समर्पित जीवन कैसा होता है।

परंतु उस धारा का प्रयोजन समाप्त हो गया स्वतंत्रता मिलने के बाद। और इसलिए सावरकर जी, उस धारा के एक दैदिप्यमान रत्न थे।

उन्होंने स्वतंत्रता के बाद पुणे में अपने उस क्रांतिकारक अभियान का समापन विधिवत कर दिया, सार्वजनिक कार्यक्रम करके।

तो वह धारा अब नहीं है। उसकी आवश्यकता भी नहीं है। परंतु देश के लिए जीने-मरने के लिए प्रेरणा स्रोत वो धारा बनी है।

लेकिन कुछ लोगों को लगा कि ये लड़ाई में हम कम थे, इसलिए नहीं आ रहे हैं। हमको राजनीति का पता नहीं है।

लोगों में राजनीतिक जागृति नहीं है। केवल सैनिक लड़ेंगे, तो काम नहीं होता है। सामान्य व्यक्ति भी खड़ा होना चाहिए।

और इसलिए हम परतंत्र हैं, इसका उनको भान करा देने वाला राजनीतिक उपक्रम करना चाहिए।

तो उस स्वतंत्रता के युद्ध के बाद 57 के बाद भारतीय असंतोष ठीक से व्यक्त हो और वह हानि न करे, इसलिए कुछ व्यवस्था हो रही थी।

लेकिन इन सब लोगों ने उसको अपने वश में कर लिया और उसको स्वतंत्रता की लड़ाई का हथियार बनाया।

इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से वह धारा चली। उसी में से अनेक प्रकार के राजनीतिक प्रवाह निकलकर आज हम देखते हैं, इतने सारे राजनीतिक दल अपने देश में हैं।

स्वतंत्रता के पहले, स्वतंत्रता के लिए लोगों की राजनीतिक जागृति, यह लक्ष्य उनका था और वो अच्छी तरह से हो गई।

सामान्य व्यक्ति भी चरखा तो अपने देश का परंपरागत है, वो नई बात नहीं थी। लेकिन देश के लिए चरखा चलाना, यह बात सिखाई उस राजनीतिक आंदोलन ने।

देश के लिए जीना-मरना, हर काम में देश का विचार करना। ये वातावरण सारे देश में हो गया। फलस्वरूप स्वतंत्रता मिली।

सशस्त्र संघर्ष भी चल रहा था। उनका भी बड़ा योगदान था। कुछ दुनिया की परिस्थिति भी थी।

स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद उस धारा को जिस प्रकार जैसे प्रबोधन करना चाहिए, उस प्रकार होता, तो आज का दृश्य कुछ अलग होता।

लेकिन वैसा हुआ नहीं। यह हम सब लोग देख रहे हैं। दोषारोपण करने की बात नहीं। यह फैक्ट है।

एक धारा थी, उन्होंने कहा कि यह सब होगा, लेकिन अपने समाज में कुछ कमियां हैं। रूढ़ि-कुरीतियों से ग्रस्त अपना समाज है।

उसको आधुनिक शिक्षा का स्पर्श नहीं है। अंधविश्वासों से भरा है। उसको ठीक करना चाहिए।

और इसलिए तरह-तरह के सुधार आंदोलन अपने देश में हुए और कुछ आज भी चल रहे हैं। उनका परिणाम तो हुआ, प्रभाव तो हुआ, लेकिन सब कुछ ठीक नहीं हुआ।

अभी भी ऐसे सुधार के उपक्रम, सुधार के अभियान, सुधार के आंदोलन करने पड़ते हैं। और एक धारा थी, जिन्होंने कहा कि पहले अपने मूल पर चलो, फिर से हम उसको भूल गए हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, दो मुख्य नाम उसमें लिए जाते हैं। जिन्होंने अपने मूल पर समाज को खींचने का प्रयास किया।

उसके चलते जो-जो हुआ, इन पहले की तीन धाराओं सहित भारत में आज जो कुछ चल रहा है, उस पर इनका प्रभाव है। कहीं न कहीं प्रेरणा स्रोत वहां पर है। कहीं न कहीं विचार का जो प्रवाह है, वो वहां से जुड़ता है।

परंतु ये चारों धाराएं चलीं। जैसा भारत हमको चाहिए, 75 वर्ष आजादी के पूरे हुए। लेकिन हम अभी ऐसा नहीं कह सकते कि वैसा खड़ा हुआ।

इसका कारण क्या है? संघ के निर्माता जो थे, डॉक्टर हेडगेवार, वो इन चारों धाराओं में काम कर चुके थे। उनको हम जन्मजात देशभक्त कहते हैं। क्योंकि बचपन से ही यह चिंगारी उनके मन में थी कि देश के लिए जीना चाहिए।

देश के लिए मरना चाहिए। स्वयं बचपन में ही अनाथ हो गए थे। दरिद्रता में आगे बढ़ना पड़ा। लेकिन देश के लिए चलने वाले कामों में भाग लेना, उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

और विद्यार्थी के नाते उनका जो कर्तव्य था, अपनी पढ़ाई अच्छी तरह से पूर्ण करना, उसमें अपने विद्यालय में पहले 10 में आना, यह भी कभी उनका छूटा नहीं।

वंदे मातरम आंदोलन 1905-06 में जो हुआ, उस समय उन्होंने नागपुर के सारे विद्यालयों में उस आंदोलन का संगठन किया।

जब इंस्पेक्टर लोग स्कूल इंस्पेक्शन के लिए आते थे, तो हर क्लास में उनका स्वागत वंदे मातरम से होता था। चिढ़कर उन्होंने सारे विद्यालय बंद कर दिए। कौन इसके पीछे है, पता लगाने का प्रयास किया। चार महीने स्कूल बंद रहे।

पता नहीं लगा। अंत में कंप्रोमाइज हो गया। जो अभिभावक, गार्डियंस थे और सरकारी, उनमें कि एक नॉमिनल अपोलॉजी हो जाए।

स्कूल में एंटर करते समय गेट पर और शिक्षक खड़ा रहे और पूछे, गलत हुआ ना, माफी चाहते हो ना, तो मुंडी हिलाना। नॉमिनल अपोलॉजी, स्कूल शुरू हुए। लेकिन दो छात्र नागपुर के थे, जिन्होंने यह भी करने का इंकार कर दिया।

कि भाई, भारतवासी हम हैं, भारत माता हमारी, उसके स्वतंत्रता की बात को नकारना, सपने में भी हम नहीं कर सकते।

वो हमारा श्रद्धा स्थान है। वंदे मातरम कहना, यह हमारा अधिकार है। और इसलिए हम सपने में भी उसको ना नहीं कर सकते।

तो हम माफी कैसे मांगेंगे? तो स्वाभाविक वो दोनों रेस्ट्रिक्ट हुए। उसमें एक डॉक्टर हेडगेवार थे, जो बाद में डॉक्टर बने। फिर उस समय राष्ट्रीय विद्यालय चलते थे, उनमें जाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की, मैट्रिक में।

इस परिस्थिति में भी वो फर्स्ट क्लास में पास हुए। नागपुर के लीडर लोगों ने उनका यह स्पार्क देखकर, ये चिंगारी देखकर तय किया कि इनको कोलकाता जाना चाहिए।

मेडिकल पढ़ना चाहिए। मेडिकल की पढ़ाई का बहाना है। परंतु करना है वहां क्या? क्रांतिकारकों की कोऑर्डिनेशन कमेटी वहां है, अनुशीलन समिति, उससे संबंध स्थापित करना।

और क्रांतिकारी कार्य पश्चिम भारत में भी शुरू करना। तो उनकी योजना के अनुसार, पास में पैसा न होते हुए भी चंदा करके, जो थोड़ा जमा हुआ, उसके आधार पर डॉक्टर साहब कोलकाता गए।

किसी लॉज में जगह नहीं थी, तो अपने दो मित्र एक कमरे में रहते थे। उनके बिस्तर के बीच की जगह में अपना बिस्तर लगाया।

और उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई भी अच्छी तरह पूरी की। फर्स्ट क्लास में हो गए और क्रांतिकारक समिति से संबंध भी स्थापित कर लिया।

स्वर्गीय त्रैलोकनाथ जी चक्रवर्ती, स्वर्गीय रास बिहारी बसु, इनके लिखे पुस्तकों में उनका उल्लेख आता है। उनका कोड नेम कोकेन था।

कोकेन चंद्र, एक जीवित वास्तविक व्यक्ति थे, जो चंद्रनगर में रहते थे। लेकिन उनके नाम से इनका वहां का काम चलता था।

सीआईडी को पता लगा, तो कोकेन को अरेस्ट करने वो चंद्रनगर जाकर उनको लेके आए, दूसरे को। ऐसी कहानी भी है वहां।

यह सब उन्होंने किया। लेकिन क्रांतिकारक आंदोलन भी बंद हो गया। अनेक लूपहोल्स के कारण, अनेक कमियों के कारण, अंग्रेज सरकार ने उसको दबाने में यश प्राप्त किया।

इनकी मेडिकल की पढ़ाई भी पूरी हो गई। ₹3000 मासिक की एक नौकरी बर्मा में उनके लिए तैयार थी। प्रिंसिपल ने कहा, इन्होंने कहा, मैं नौकरी करने के लिए नहीं आया हूं। मैं तो अपने देश के लिए काम करने वाला हूं।

और इसलिए नागपुर वापस आए। चाचा जी ने विवाह के बारे में पूछा। चाचा जी को पत्र लिखा कि इस जीवन में मुझे दूसरा कोई काम करना नहीं है।

क्योंकि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी, अनुशीलन समिति में प्रवेश करने के पहले कि यह जन्म मेरा देश के लिए है। अपने सुख का विचार अगले जन्म में करेंगे।

और इसलिए कांग्रेस का जो आंदोलन चल रहा था, उसमें उन्होंने भाग लिया। 1920 में उस आंदोलन का प्रचार करते समय जो भाषण किए, उसके चलते सेडिशन का मुकदमा उन पर चला।

और उसमें उन्होंने अपना डिफेंस दिया। डिफेंस देते नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा कि मैं डिफेंस दूंगा, तो कोर्ट में मेरा और एक भाषण होगा। पत्रकार वगैरह आएंगे और एक बार मेरे प्रचार की मुझे संधी मिलेगी। और उन्होंने भाषण किया।

वो भाषण करने के बाद जो जजमेंट आया, उसमें जज ने लिखा कि जिन भाषणों के कारण इनको आरोप लगा है, उन पर इनका बचाव का भाषण ज्यादा सेडिशियस है।

क्योंकि उन्होंने यहीं से शुरुआत की कि अंग्रेज लोग हमारे ऊपर राज्य कर रहे हैं। यह किस कानून के तहत कर रहे हैं?

उनको किसने अधिकार दिया? स्वतंत्रता तो प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध हक है। मैंने लोगों को यही बताया है।

स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपाय बताए। किसी के विरोध में कुछ नहीं कहा है। जो आपके भाषण लिखने वाले लोग हैं, उनको मराठी भी ठीक से नहीं आता।

मेरे भाषण मराठी में हुए। आरोप तो आपका झूठा है, लेकिन यह कोर्ट भी बेकानूनी है। इस न्याय को, इस न्यायाधीश को, इस न्यायालय को मैं नहीं मानता। ऐसा उन्होंने कहा। और इसलिए उनको एक वर्ष सश्रम कारावास हुआ।

सब ऐसे जो आंदोलन थे, क्रांतिकारकों का आंदोलन था, राजनीतिक जागृति के आंदोलन थे, समाज सुधार के काम थे, धर्म जागृति के काम थे, अपने मूल पर वापस आने के लिए—इन सब में उन्होंने प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुद्धि से, कार्यकर्ता के नाते काम किया।

कार्य पद्धति जान ली, कैसा काम करते हैं, समाज की स्थिति क्या है, यह करने से समाज में क्या होता है, यह सब उन्होंने जान लिया, अनुभव लिया।

और इस लंबे समय के दौरान, उनका इन सब काम में काम करने वाले जो श्रेष्ठ लोग थे, धुरंधर थे, लीडर लोग थे, उनसे संपर्क आया, चर्चा भी हुई।

उनकी यह सक्रियता संघ स्थापना के बाद भी कायम थी। संघ शुरू होने के बाद 1930 में जंगल सत्याग्रह हुआ।

उस जंगल सत्याग्रह में भी वह संघ के सरसंघचालक हो गए थे। उसको छोड़कर नया सरसंघचालक नियुक्त करके आंदोलन में गए।

वहां भी उनको एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। वो काटकर वापस आए। फिर जो सरसंघचालक बने थे, उन्होंने अपना कार्यभार वापस कर लिया।

फिर संघ का नेतृत्व किया। तो उनका अनुभव था और इस दौरान सबसे बात हुई—सुभाष बाबू से, महात्मा जी से, लोकमान्य तिलक से, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु जी को तो महाराष्ट्र में अंडरग्राउंड उन्होंने रखा।

नागपुर में रखा, बाद में लगा कि नागपुर सेफ नहीं उनके लिए, तो अकोला में भेजा। यह सब करते हुए इन सब लोगों से चर्चा होती थी।

तो उनको ध्यान में आया कि सब लोगों को ऐसा लगता है कि हमारे उपाय अधूरे रहेंगे, अगर इस समाज के जो कुछ दुर्गुण हैं, जो घुस गए हैं इसमें, उसको दूर न किया जाए।

क्योंकि एक बात तो स्वतः सिद्ध है कि देश को बड़ा करना है, देश को स्वतंत्र करना है, कुछ भी करना है, तो नेताओं के भरोसे, संगठनों के भरोसे नहीं होता।

वो सहायक जरूर होते हैं, लेकिन सबको लगना पड़ता है। सब में एक गुणवत्ता आनी पड़ती है। पूरे समाज के प्रयास से कोई भी परिवर्तन आता है।

आज अपने देश को बड़ा करना हम चाह रहे हैं। वो किसी के भरोसे छोड़ के नहीं होगा। सब सहायक होंगे।

नेता, नीति, पार्टी, अवतार, विचार, संगठन, सत्ता—सब-सब इनका रोल असिस्टेंस का है। लेकिन मुख्य कारण जो बनता है, वह समाज का परिवर्तन है। समाज की गुणात्मक उन्नति है। और बिना उसके हुए, हमारे काम फुलफिल नहीं होंगे।

जो इश्यूज लिए हैं, वह शायद रॉल्व हो जाएंगे। लेकिन वह फिर से खड़े नहीं होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं।

क्योंकि स्वतंत्रता की बात ले, तो हम देखते हैं कि कितना लंबा ता है। आक्रमकों का हर बार कोई आता था, हमको देखते-देखते जीत लेता था।

फिर हम जागृत होकर उसको खदेड़ देते थे। दूसरा आता था। यह सब बार-बार क्यों होता है?

क्योंकि कुछ ऐसे दोष हैं, जिनको निकालना चाहिए। कुछ ऐसे गुण हैं, जिनको विकसित करना चाहिए।

और इसलिए यह काम किसी को करना पड़ेगा। हम लोग नहीं कर सकते, क्यों नहीं? हमने अपना-अपना काम चुन लिया है।

इनका भी अध्ययन डॉक्टर हेडगेवार का भी अध्ययन, चिंतन, वो इसी निष्कर्ष पर आया था। जिन महानुभावों के मैंने नाम लिए हैं, उन सबको आप पढ़ लीजिए, तो आपको यह भाव मिलेगा।

उसके बारे में बहुत लोगों ने लिखा है। स्वदेशी समाज नाम का श्री रविंद्र नाथ ठाकुर जी का निबंध पढ़िए।

उसमें उन्होंने कहा है कि समाज की जागृति राजनीति से नहीं होगी। हमारे समाज में समाज का स्थानीय नेतृत्व खड़ा करना पड़ेगा।

उन्होंने शब्द किया है, नायक, जो स्वयं शुद्ध चरित्र है, जिसका समाज से निरंतर संपर्क है, समाज जिस पर विश्वास करता है।

और जो अपने देश के लिए जीवन-मरण का वरण करता है, ऐसा नायक चाहिए, ऐसा उन्होंने कहा है।

इतने बड़े खंडपराय देश में गांव-गांव में, गली-गली में ऐसा नायक चाहिए, जिसके जीवन से एक वातावरण बनता है। वातावरण में समाज अपनी कृति बदलता है। ऐसे नायकों का निर्माण होना चाहिए।

रविंद्रनाथ ठाकुर ने स्वदेशी समाज में बहुत स्पष्ट रूप से यह बताया है। इन सब के बोलने में, लिखने में यह बात आई है कि राष्ट्र को खड़ा करना है, तो अपना राष्ट्र नया नहीं बनाना है।

हमारे यहां पहले से हिंद स्वराज में गांधी जी ने लिखा है कि युवा वृद्ध को प्रश्न पूछता है कि अंग्रेजों के आने के कारण रेल लाइन वगैरह आ गई, सारा देश एक बन गया।

तो वृद्ध के रूप में वो गांधी जी उत्तर देते हैं हिंद स्वराज में कि यह भी बात तुमको अंग्रेजों ने ही सिखाई है।

अंग्रेजों के आने के बहुत पहले हमारा देश एक था। तो हमारे देश का अस्तित्व यह बहुत प्राचीन है। परिस्थितियां बदलती हैं। उसमें परिस्थिति बदलती है, इसलिए वह एकत्व नहीं बदलता।

स्वदेशी समाज में ही रविंद्र नाथ जी ने लिखा है कि कोई नया व्यक्ति हम में आने से हम भारत के लोग डरते नहीं।

क्योंकि सबके प्रति अपनेपन का हमारा स्वभाव है। इस देश में हिंदू, मुसलमान, बौद्ध आदि-आदि आपस में संघर्ष नहीं करेंगे।

इसी देश के लिए जिएंगे। इसी देश में मरेंगे। आपस में संघर्ष करते-करते कोई एक हल वह इसका निकाल लेंगे और साथ में जिएंगे। आगे वो कहते हैं कि यह हल अहिंदू न होकर विशिष्ट रूप से हिंदू होगा। ये उन्होंने लिखा है।

उस शब्द के बारे में क्या है? बाद में बताता हूं मैं। परंतु यह विचार सब में था कि अपना देश प्राचीन समय से एक है।

अपने समाज को उन्नत बनाना चाहिए। वह सदा के लिए संकट परंपरा का निवारण करने का एकमात्र उपाय है।

लेकिन फुर्सत नहीं है, तो डॉक्टर हेडगेवार ने सोचा कि किसी को फुर्सत नहीं है। तो मैं इसके प्रयोग करता हूं।

यह बात उन्होंने त्रैलोकनाथ चक्रवर्ती जी को बहुत पहले, 1911 से 14, वह कोलकाता में रहे, शायद उस समय बताई थी।

और नागपुर वापस आने के बाद, मेडिकल की पढ़ाई पूरी करके, आंदोलनों में भाग लेते-लेते, उन्होंने इसके कई प्रकार के प्रयोग किए।

कि यह कैसे हो सकता है? संपूर्ण देश को जोड़ा कैसे जा सकता है? संपूर्ण देश को बड़ा कैसे किया जा सकता है?

देश के व्यक्ति में गुणवत्ता का उत निर्माण कैसे किया जाता है? इसके अनेक प्रयोग किए उन्होंने।

उन्होंने भारत सेवाश्रम संघ के काम को देखा था। वह जिस अनुशीलन समिति के सदस्य थे, उनके भी कई ऐसे मनुष्य निर्माण के कार्यक्रम चलते थे।

यह सारा अनुभव लेकर उन्होंने एक चिंतन किया, एक उपाय निकाला, उसका प्रयोग किया।

और उस प्रयोग के यशस्वी होने के बाद उसकी चर्चा की। उनके जो तरुण साथी, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय तो थे ही।

तो बहुत सारे तरुण उनके व्यक्तित्व के कारण उनके साथ रहते थे। उनसे चर्चा की और 1925 में घोषणा की।

100 वर्ष हम आज मना रहे हैं। लेकिन प्रत्यक्ष ये इस संघ का बीजारोपण उसके कई वर्ष पहले डॉक्टर साहब के मन में हुआ था।

मन में उस बीज ने एक आकार धारण किया। अंदर एक अंकुर धारण किया और 1925 के विजय दशमी के बाद डॉक्टर साहब ने घोषणा की।

कि आज से यह संघ हम प्रारंभ कर रहे हैं। उद्देश्य उन्होंने कहा—संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन।

अब यहां प्रश्न खड़ा होता है, बाकी लोगों को क्यों छोड़ा? तो पहली तो बात है कि जिनको हम हिंदू समाज कहते हैं।

आजकल हिंदू समाज, हिंदू नाम लगाना, जिसको है, उसको इस देश के प्रति जिम्मेवार रहना पड़ेगा।

यह रिस्पांसिबल समाज है, क्योंकि इसको नाम मिला है। इस देश के लोगों को वह नाम मिला है। बहुत पहले मिला है। महावीर प्रसाद जी द्विवेदी ने लिखा है कि जलदृष्ट के काल में बाहर के लोगों ने हमको यह नाम दिया।

हमको तो जरूरत नहीं थी अलग नाम की। हमने अपना धर्मशास्त्र लिखा, तो मानव धर्म शास्त्र, यही उसका नाम है।

क्योंकि हमारे यहां यही कहते थे—माता च पार्वती देवी, पिता देवो महेश्वरा, बांधवा शिव भक्त, स्वदेशो भवनत्रया।

या अय निज परोवेती गणना लघु चेतसा, उदार चरिता नाम तु वसुधैव कुटुंबकम। हम मनुष्यों में अंतर नहीं करते थे।

सारे मानव विचार तो हमारा ऐसा था कि व्यक्ति, मानवता, सृष्टि, ये सब परमात्मा के कारण जुड़ी है। एक दूसरे से संबंधित है। एक का जो होता है, वो दूसरे पर भी परिणाम करता है।

और इसलिए मनुष्य को अपने विकास का विचार करना है, तो इन तीनों के विकास में अपना विकास है।

ये मानकर अपने विकास का प्लान करना पड़ता है। ये इस देश का स्वभाव है। तो हमको अलग नाम की जरूरत नहीं थी। लेकिन जरतृष्ट वहां गए। उनको पूछा गया, कौन हो?

तो उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वज किर्गिस्तान में भारत से गए थे। सिंधु नदी के उस पार से गए थे।

अब उस समय ईरान के लोग सिंधु नदी के उस पार वालों को हनत कहते थे। उसका हनद हो गया। हिंदू हो गया। यह एक कथा है।

दूसरी कथा है कि ऐसा कहने के बाद ईरान के लोगों ने इसराइल के लोगों के पूछने पर यहूदियों को कहा कि हमारा एक हिंदू, हिंदू गुरु है।

और वो बात घूमते-घूमते अपने पश्चिम किनारे पर व्यापार के जरिए आ गई। व्यापारियों ने पकड़ा वो शब्द।

लेकिन ठीक है, उनको शब्द से क्या करना है? सौदा पटने से काम है। व्यापार चलता रहा।

इंटेलेक्चुअल लोगों के पास वो आ गया। तब अपने पुराणों में आ गया—तम देव निर्मितम देशम, हिंदुस्थानम प्रचते। लोक भाषा में आने को बहुत समय लगा और लोक भाषा में जो शब्द आते हैं, वह संतों की पकड़ में आते हैं।

इसलिए गुरु नानक देव जी के वाणी में पहले यह मिलता है—हिंदुस्तान खसमाना किया, तुर्क स्थान खसमाना, खुरासान खसमाना किया, हिंदुस्तान डराया।

वो उन्होंने वर्णन किया है बाबर के अत्याचारों का और कहा है कि ना हिंदू महिलाओं का शील बचा, ना मुस्लिम महिलाओं की अस्मत बची।

अब ये सोचते, तो ध्यान में बात आती कि उन्होंने दो क्यों शब्द उपयोग किए। क्योंकि जैसे उस समय मुसलमान थे हमारे देश में।

हमारे देश के कन्वर्टेड मुसलमान थे। लेकिन दूसरी तरफ मुसलमान क्यों कहा होगा? तो स्वाभाविक है। अल्लाह को मानते हैं, कुरान को मानते हैं, पैगंबर साहब को मानते हैं, वही होते हैं मुसलमान।

तो हिंदू कहने से कोई मान्यता नहीं है। एक ईश्वर को मानने वाला हिंदू नहीं है। नहीं, ईश्वर के अनेक रूप हैं हिंदू में।

33 करोड़ हैं, ऐसा कहते हैं। और एक ग्रंथ नहीं है। ना कोई एक गुरु है। तो अनेक थे उस समय—बौद्ध थे, जैन थे, शैव थे, शाक्त थे, अनेक प्रकार के पंथ, संप्रदाय, रिलीज अनेक थे।

लेकिन एक स्वभाव था, जो इन सबको जोड़ता था, वह स्वभाव यह था कि इन सबको स्वीकार करते थे।

विश्व में जितने तरीके हैं पूजा के, वह सब एक ही जगह पहुंचेंगे। कोई तरीका गलत नहीं है। हां, यह हो सकता है, कहीं देर से पहुंचेंगे, कहीं जल्दी पहुंचेंगे। कोई तरीका बड़ा सरल है, कोई तरीका बड़ा जटिल है।

रुचि नाम वैचित्र्यात, रुजु कुटिल नाना पथताम। मनुष्य अलग-अलग होते हैं। बुद्धि अलग-अलग होती है। रुचि अलग-अलग होती है।

रुचि के वैचित्र्य के कारण रुजु कुटिल अनेक प्रकार के रास्ते होते हैं। आप यहां इस सभागृह में आने के लिए कहां से चले? एक ही रास्ता थोड़ी था। जहां से चले, वैसा रास्ता था।

और कोई रास्ता ठीक भी था। कोई रास्ता खराब भी था। रास्ता खराब है, इसलिए आप घूमकर भी आए होंगे।

रास्ता खराब है, तो भी समय पर पहुंचेंगे, इसलिए उसी खराब रास्ते से भी आए होंगे। यह अपना-अपना मन है।

ऐसे अनेक पथ हैं। रुचि नाम वैचित्र, रुजु कुटिल नाना पथताम, नम नणाम यानी आदमियों का एक गम्या। एक ही जगह जाना है, सबको भगवान को कहते हैं—तमसी तुम ही हो, जो सबके गंतव्य होणाको गम्यस्त त्वमसी।

कैसे पयसाम अरणव विश्व में कहीं भी पृथ्वी पर वर्षा होती है, तो अंत में सागर में जाती है।

यह श्रद्धा रखने वाले सबको उन्होंने एक नाम दिया—हिंदू। तो हिंदू यानी क्या? इसमें जो विश्वास करता है, अपने रास्ते से चलो भाई। अपना जो रास्ता मिला है, स्वाभाविक रूप से उस पर श्रद्धा रखो।

बदलो मत। दूसरों को बदलो मत। इस पर श्रद्धा रखो। दूसरों की भी श्रद्धा है। उसका पूर्ण सम्मान करो। उसका स्वीकार करो। उसका अपमान कभी मत करो। और रास्तों को लेकर झगड़ा मत करो।

आपस में मिलजुलकर चलो। यह परंपरा जिनकी है, यह संस्कृति जिनकी है, वह हिंदू है।

और यह परंपरा, संस्कृति ऐसी क्यों बनी? इसका कारण भारतवर्ष है। भारत का भूगोल ऐसा था कि हम प्रोटेक्टेड थे चारों तरफ से।

पहले आक्रमक आते ही नहीं थे। कौन आएगा? सागर लांघकर कौन आएगा? वो जहाज नहीं थे। वो इतनी बर्फीली चोटियां लांघकर कौन आएगा? पूरा सैन्य लेकर तो नहीं आ सकता।

इसलिए हम सुरक्षित थे। और अंदर भरपूर था। जनसंख्या भी इतनी नहीं थी, जितनी आ जाए। और इसलिए सब लोग इस वृत्ति के बने कि भाई, मिलजुलकर रहो, फालतू झगड़ा क्यों करते हो?

दुनिया को शायद परिस्थिति मिली होगी—स्ट्रगल फॉर एक्सिस्टेंस और सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट की।

लेकिन हमारे प्राचीन समय में भारत में यह स्थिति नहीं थी। देयर वाज नो स्ट्रगल, इट वाज अबंडेंट फॉर एवरीबॉडी।

और जो परंपरा थी, उसमें संयम था। इसलिए देयर वाज अबंडेंस, तो झगड़ा क्यों करना है? क्यों नहीं करना है? क्यों जीना है? ना तो मिलजुलकर जी सकते हैं। झगड़ा कौन करेगा?

और इसलिए हमको फुर्सत भी मिली, हमको सुरक्षा भी मिली, हमको समृद्धि भी मिली।

तो हमने जो एक ह्यूमन सर्च, सारी दुनिया में चलता है और दुनिया बाहर का देखकर रुक गई।

जो दिखता है, उसके आगे कुछ नहीं है। माइक्रोस्कोप लगाओ, तो ज्यादा दिखता है। उसके परे कुछ नहीं है।

ऐसा सोच के दुनिया रुक गई। हम वहां रुके नहीं। हमने दृष्टि को अंदर कर लिया और अपने अंदर की सत्य को खोजा हमने।

और उसने हमको बताया कि सर्वत्र एक ही है। दिखता अलग-अलग है। सब एक है। और इसलिए अपना स्वाभाविक धर्म क्या है? समन्वय, संघर्ष नहीं।

तो ये जो संस्कृति थी, उस संस्कृति का उपजाव क्यों हुआ, वो इसी के कारण हुआ है। और इसलिए उस मातृभूमि के प्रति भक्ति है। मां ने हमको अन्न, पोषण केवल इतना नहीं दिया, संस्कार दिए।

भारत माता ने हमको ये संस्कार दिया है। वो हमारी मां है। और यह केवल कपोलकल्पित बात नहीं है।

इसके आधार पर प्राचीन समय से हमारे पूर्वज जीते आए हैं। ऐसा जीवन खड़ा करने के लिए उन्होंने खून, पसीना, सब बहाया।

प्राणदान भी किया है। इस भूमि के संरक्षण, संवर्धन के लिए भी बलिदान दिया है। परिश्रम किया है।

वो इतिहास हमको प्रेरणा देता है। वह पूर्वज हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।

इनको मानने वाला वास्तव में हिंदू है। लेकिन जब संघ शुरू हुआ, तब यह परिस्थिति थी कि ऐसे सब लोग अपने आप को हिंदू नहीं कहते थे।

और आज भी नहीं कहते। कुछ लोग तो हिंदू के हम प्रकार मानते हैं। जो जानते हैं, वह हिंदू है, उनको गौरव है।

जो जानते हैं, वो हिंदू है, लेकिन गौरव क्या करना भाई, दुनिया में होते हैं, हम हिंदू हैं, चलो। और जो जानते हैं, लेकिन किसी कारण नहीं कहते, मैं कारणों में नहीं जाता, नहीं कहते।

और जो जानते नहीं हैं कि वह हिंदू है। लेकिन ऐसे लोगों को भी जो जानते नहीं हैं, हिंदवी कहने से बुरा नहीं लगता।

भारतीय कहने से बुरा नहीं लगता। सनातन का भी कुछ लोग स्वीकार करते हैं। यह शब्द क्या हैं? समानार्थी शब्द हैं। और इसलिए हम लोग ऐसा नहीं कहते कि आप हिंदू ही कहो, आप हिंदू हो कि हम बताते हैं।

नहीं भाई, हम हिंदू भी हैं। हम भारतीय हैं। ठीक है? इसका कंटेंट समझो। इन शब्दों के पीछे केवल शब्दार्थ नहीं है। एक कंटेंट है। वह कंटेंट जियोग्राफिकल नहीं है।

उस कंटेंट में एक भक्ति है भारत माता की। उस कंटेंट में एक परंपरा है पूर्वजों की, जो हम सबके समान है। डीएनए को भी देखो, वही है। 4000 वर्ष पूर्व से भारतवर्ष के लोगों का डीएनए एक है।

अखंड भारत की भूमि पर जो-जो है, और हमारी संस्कृति है, मिलजुलकर रहने की। ये बातें अलग-अलग, अलग-अलग रूप जो हैं, वह हम में अलगाव पैदा नहीं करते।

क्योंकि हम यह मानते ही नहीं कि एक होने के लिए यूनिफॉर्म होना पड़ता है। यूनिफॉर्मिटी से यूनिटी आती है, ऐसा नहीं है।

डायवर्सिटी में भी यूनिटी है। क्योंकि डायवर्सिटी भी यूनिटी का ही प्रोडक्ट है।

लेकिन कोई परीक्षा है और प्रश्न आ गए—चार दो, तो बड़े कठिन हैं। दो आसान हैं। पहले कौन सा? पहले आसान प्रश्न छोड़ो।

इसलिए जो अपने आप को हिंदू कह रहे हैं, पहले उनको संगठित करो। उनका जीवन अच्छा बनाओ। तो किसी कारण जो अपने आप को हिंदू होके भी नहीं कहते, वो भी कहने लगेंगे। वो तो होने लगा है।

और किसी कारण जो भूल गए, उनको भी याद आएगा। वह भी होगा। लेकिन करना क्या है? संपूर्ण समाज का संगठन।

संपूर्ण हिंदू समाज का। हिंदू शब्द का आग्रह क्यों है हमारा? क्योंकि ये जो कंटेंट है, ये कंटेंट पूर्णतः व्यक्त करने वाला वो एक ही शब्द है।

और हिंदू कहने से हिंदू वर्सेस ऑल, ऐसा नहीं होता है। हिंदू बनाम कोई, ऐसा नहीं है। क्योंकि हिंदू इसका मतलब इंक्लूसिव है। इंक्लूसिविटी की मर्यादा क्या है? कोई मर्यादा नहीं।

जाओ आगे—एक व्यक्ति नहीं, पूरा परिवार। पूरा परिवार नहीं, पूरा गांव। गांव नहीं, भैया जनपद।

जनपद नहीं, प्रांत। प्रांत नहीं, देश। देश नहीं, विश्व। मानवता नहीं, केवल सृष्टि भी। अनंत के साथ एक हो जाओ। वहां जो पहुंचा, उसको सर्वश्रेष्ठ मानने वाला अपना समाज है।

और इसलिए यह कोई संकुचित बात नहीं है। उल्टा यह अपने सारे विकास को संपूर्ण विश्व के साथ एकरूप होने को एक खुला रास्ता देने वाली बात है। उनका संगठन करना, इसलिए संघ निकला। क्योंकि पूरा समाज ऐसा होगा, तभी होगा।

लेकिन होने के लिए तो कुछ करना पड़ेगा। केवल तैयार होने से काम नहीं चलता। तैयारी का उपयोग करना पड़ता है।

तो यह विचार किया गया कि तैयारी जो करनी है, उसके दो भाग हैं। एक तो मनुष्यों को तैयार करना। दूसरा, मनुष्यों ने काम करना।

तो जो मेथोडोलॉजी डेवलप हुई, मनुष्यों को बनाने की, उस पर लगकर काम करने वाला एक संगठन—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

उसको दूसरा कुछ नहीं। उसकी शाखा है। उसके स्वयंसेवक हैं।

और बाकी सब जो होना है, तैयारी के चलते वह करने वाले स्वयंसेवक रहेंगे। संघ, संघ के नाते उसमें जाएगा नहीं।

स्वयंसेवक बहुत हैं। संघ चलाने के लिए जो लगते हैं, उनको छोड़ दिया, तो भी बहुत सारे स्वयंसेवक हैं। वो सक्रिय हो जाएं। समाज जीवन में जहां जिसकी आवश्यकता है, वो करेंगे।

यह तो सपने से भी ज्यादा दुष्प्राप्य बात लगती थी। स्वयंसेवक भी पूछते थे, कैसे होगा?

डॉक्टर साहब कहते थे, होगा। संघ कुछ नहीं करेगा। सब कुछ होगा। और हो रहा है। अनेक क्षेत्रों में अपने स्वयंसेवक काम कर रहे हैं।

और जो विचार मिला है, जो संस्कार मिला है, उसके आधार पर उस क्षेत्र की आवश्यकता है।

वहां पुनरचना करके आगे बढ़ रहे हैं। भारतीय मजदूर संघ में स्वयंसेवक काम करने के लिए गए।

उन्होंने पूरी दुनिया के लिए लेबर फील्ड का एक नया दर्शन दिया है। हर जगह, वहां के परिवेश में सकारात्मक सुधार और अपने देश के स्वत्व के आधार पर वहां की पुनरचना।

क्यों यह पुनरचना आवश्यक है, उसमें कल जाएंगे हम लोग। लेकिन यह वो स्वयंसेवक करते हैं।

वो उनका है, स्वतंत्र है, अलग है, स्वायत्त है। उसका क्रेडिट उनको है, संघ को नहीं। डिस्क्रेडिट वह संघ को शेयर करना पड़ता है, क्योंकि माल हमारे यहां से गया है। क्रेडिट उनका है।

संघ उनको कंट्रोल नहीं करता। डायरेक्टली भी नहीं, रिमोटली भी नहीं। एक ही बात है। स्वयंसेवकों का संबंध संघ से अटूट है। जन्म-जन्मांतर का है।

वह संघ की प्रार्थना कहीं भी गा लेंगे, वो टूटता नहीं। कभी उसके चलते स्वयंसेवक मिलते हैं। बात करते हैं, हम भी बात करते हैं। पूछते हैं, हम बताते हैं। हमको ध्यान में आया, बताते हैं।

मदद मांगते हैं, मदद देते हैं। अच्छे काम को सर्वत्र मदद करते हैं हम। केवल स्वयंसेवकों को ही करते हैं, ऐसा नहीं है। किसी को भी कर सकते हैं। बहुत उदाहरण हैं।

परंतु हमारा कहा वह माने ही, यह उन पर हमारा दबाव नहीं है। हमारा कहना वो समझेंगे।

समझने के बाद उनको जो लगता है, वह करेंगे। क्योंकि उनके क्षेत्र में वह काम कर रहे हैं। उनका अनुभव है। उनकी एक्सपर्टाइज है। हमारी नहीं है, ऐसा नहीं है।

लेकिन करना तो उनको है। जो करने वाला है, उसको तो स्वतंत्रता मिलनी चाहिए करने की। तो उनको मिलती है। और संगठन में केवल स्वयंसेवक नहीं हैं, उनके साथ बहुत सारे लोग हैं।

संगठन तो संघ के नहीं हैं। वह जनता के हैं। स्वयंसेवकों ने खड़ी की है। अथवा पहले से जो थे, उसमें स्वयंसेवक हैं। उसमें उनका प्रभाव कम-ज्यादा होता है।

अन्य लोग भी साथ हैं। सबको साथ लेकर चलाना, स्वयंसेवक के नाते यही सिखाया हमने। मतभेद हो, तो भी मनभेद न हो। साथ में लेकर सबको चले। यह स्वभाव सबका रहे।

इसी को तो संगठन कहते हैं। हमारी अपेक्षा उनसे है। संगठन ठीक रहे, स्वयंसेवक ठीक रहे। वो करते हैं। हम बताते रहते हैं। वह स्वतंत्र, अलग, स्वायत्त और धीरे-धीरे स्वावलंबी होते हैं।

मदद मांगने की स्थिति नहीं रहती उनकी। विचार, संस्कार और आचार, ये ठीक रहे। इतनी हम स्वयंसेवक की चिंता करते हैं। संगठन की चिंता वह करते हैं। वह हमारी नहीं है।

इस प्रकार हम आगे जाते हैं और यह हमको एक दबाव गुट नहीं बनाना है, सबका मिलके भारत में।

पूरे भारत में सबको संगठित करने के लिए संघ है। तो आपको भी अनुभव आया होगा कि 30 साल, 40 साल पहले शायद आप में से बहुत लोग संघ के घुर विरोधी रहे होंगे।

और शायद उनमें से कुछ लोग आज संघ के समर्थक बन गए। आप घुर विरोधी थे, तब भी अपने थे।

और आज हमारे हैं, तब भी अपने ही हैं। एक देश है। 142 करोड़ का देश है। कितने मत होंगे? बहुत मत होते हैं। मत अलग होना, ये अपराध नहीं। यह तो प्रकृति ने दिया हुआ गुण है।

अलग-अलग विचार एक साथ जब सुनते हैं और कोई सहमति बनती है, तो उसमें से प्रगति होती है। अंग्रेजी में एक वाक्य बताते हैं—कमिंग टुगेदर, स्टेइंग टुगेदर एंड वर्किंग टुगेदर।

कमिंग टुगेदर इज बिगिनिंग। स्टेइंग टुगेदर इज प्रोग्रेस। एंड वर्किंग टुगेदर इज सक्सेस। तो यह जो बात है, इसको संगठन कहते हैं और पूरे समाज का ही हमको संगठन करना है।

क्योंकि संघ के मन में यह बात है कि अगर इस देश में ऐसा लिखा गया कि भाई, संघ के कारण देश बच गया या देश का उद्धार हो गया।

तो ये हमारे लिए ठीक नहीं है, क्योंकि ये हम करना नहीं चाहते। ये करना चाहते, तो बहुत हैं पहले से।

रावण से त्रस्त दुनिया, राम नहीं होते, तो क्या होता? शिवाजी नहीं होते, तो क्या होता?

अरे भाई, कब तक आएंगे शिवाजी? कब तक आएंगे राम? भगवान भी गॉड हेल्प्स दोज हु हेल्प देमसेल्व्स।

हमको इसके कारण जो ठेका देने की आदत लग गई है। नेता को ठेका दो, पार्टी को ठेका दो, सरकार को ठेका दो।

तुम देश का कल्याण करो। हम क्या करेंगे? हम तुम जो कर रहे हो, उसमें से मीन-मेख निकालते, चर्चा करते बैठेंगे।

यह ठीक नहीं है। देश का जिम्मा हम सबका मिलकर है। जैसे हम हैं, वैसे हमारे प्रतिनिधि होंगे। वैसे हमारी पार्टियां होंगी। वैसे हमारे नेता होंगे। तो हम अच्छे बनें और हम करें देश के लिए।

संपूर्ण समाज का संगठन, इसके लिए हम कहते हैं प्रार्थना में—विजय त्रिच न संताकार कार्य शक्ति हमारी।

संगठन शक्ति के आधार पर हमारी, यानी किसकी? संपूर्ण हिंदू समाज की।

क्योंकि हमने परिचय दिया है, उसके पहले—वयं हिंदू राष्ट्रभूता। हम हिंदू राष्ट्र के अंगभूत हैं।

तो पूरे हिंदू समाज का दायित्व है, तो पूरा हिंदू समाज ऐसा बनना चाहिए।

हमारी संगठित कार्य शक्ति, यानी पूरे समाज की संगठित कार्य शक्ति। और हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं हम, तब भी प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

क्योंकि राष्ट्र का हम ट्रांसलेशन करते हैं नेशन। वह कांसेप्ट वेस्टर्न कांसेप्ट है। नेशन के साथ स्टेट जुड़ता है। राष्ट्र के साथ स्टेट आवश्यक नहीं है। हमारा राष्ट्र है पहले से।

हिंदू शब्द निकाल के आप विचार करो। हमारा राष्ट्र पहले से है। गांधी जी ने भी कहा है। एक राष्ट्र के नाते हम लड़े हैं। बार-बार लड़े हैं। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम, हमारा संचार रहा है।

पूरे देश के साथ हमारी सेंसिटिविटी जुड़ी है। हम एक राष्ट्र हैं। इस राष्ट्र में हम सर्वदा स्वतंत्र नहीं थे, लेकिन राष्ट्र था।

सदा हमारे राजा नहीं थे। अंग्रेज भी राजा हो गए। तुर्क, अरब भी राजा हो गए। लेकिन राष्ट्र था। एक राजा नहीं था। अनेक राजा थे। अनेक राज्य थे। अनेक व्यवस्थाएं थीं। लेकिन राष्ट्र था।

मंत्र पुष्पांजलि में हम कहते हैं ना—स्वस्ति साम्राज्यम, भजम स्वराज्यम, वैराज्यम, राज्यम, पारमेष्ठम, महाराज्यम, महागणाधिपत्य स्वस्थि साम्राज्यम, वैराजम।

पूरी लंबी मालिका राज्य व्यवस्थाओं की। इतने-इतने प्रकार हैं। और फिर भी आगे कहते हैं—पृथ्वीय समुद्र पर्यंतया एकराट। इति समुद्र पर्यंत जो पृथ्वी है।

पृथ्वीराज ने कृषि योग्य बनाई भूमि, उसमें एक राठ है। चक्रवर्ती थे, तब भी हम यही कहते थे।

चक्रवर्ती नहीं थे, अलग-अलग राज्य थे, तब भी हम यही कहते थे। अंग्रेज राजा थे, तब भी हम यही कहते थे।

विदेशी आकर राज करते थे, तब भी हम यही कहते थे। राष्ट्र था। सत्ता बदलती रही। हिंदू राष्ट्र शब्द का सत्ता से कोई मतलब नहीं है। और हिंदू राष्ट्र के प्रखर होते, विद्यमान रहते।

जो-जो शासन रहा है, वह शासन हमेशा पंथ, संप्रदाय का विचार करने वाला शासन नहीं है।

उसमें सबके लिए न्याय समान है। पंथ, संप्रदाय, भाषा, कुछ भी नहीं, कोई भी भेद नहीं।

प्रजा के लिए समान न्याय। और इसलिए जब हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं, तब हम किसी को छोड़ रहे, ऐसा नहीं है। हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं, तो किसी का विरोध कहते, ऐसा नहीं है।

संघ इसमें से हुआ ही नहीं है। संघ किसी विरोध में, प्रतिक्रिया में नहीं निकला है।

गुरु जी के प्रेस कॉन्फ्रेंस में गुरु जी को पूछा गया कि हमारे गांव में तो मुसलमान और ईसाई हैं नहीं।

हमारे यहां शाखा का क्या काम है? गुरु जी ने कहा कि भैया, तुम्हारे गांव की छोड़ दो।

पूरे दुनिया में भी मुसलमान, ईसाई नहीं होते, तो भी हिंदू समाज अगर इस अवस्था में रहता, तो संघ की शाखा की आवश्यकता थी।

क्योंकि संगठन किसी के विरोध में नहीं होता। आप सब लोग कुछ न कुछ तो व्यायाम करते होंगे।

कम से कम मॉर्निंग वॉक, इवनिंग वॉक करते होंगे। आपको कोई पूछे कि आप ये व्यायाम कर रहे हैं, किसको पीटने का इरादा है?

अरे भाई, व्यायाम अपने आप को तंदुरुस्त करने के लिए। अब कभी मारपीट होती है, तो व्यायाम का शरीर काम में आता है।

यह बात अलग है। लेकिन व्यायाम का उद्देश्य किसी को मारने का नहीं। स्वस्थ होना शरीर की स्वाभाविक अवस्था है।

संगठित होना समाज की स्वाभाविक अवस्था है। बिना उसके कोई काम सफल नहीं होता है। इसलिए संपूर्ण समाज का संगठन, यह करता है संघ और यह 100 साल से कर रहा है।

और 100 साल की यात्रा के बारे में कहें, तो क्या बताएं? पहले ही हमको डॉक्टर हेडगेवार ने बताया कि संगठन के जीवन में तीन स्थितियां रहती हैं।

वो पार करनी पड़ती हैं, उसके बाद फिर कार्य सिद्धि होती है। पहली अवस्था रहती है उपेक्षा की।

संघ की भी उपेक्षा, विचार की मान्यता नहीं थी। संघ शुरू हुआ, तब डॉक्टर हेडगेवार कोई पूरे देश में प्रसिद्ध लीडर नहीं थे।

देखने में व्यक्तित्व भी ऐसा, बहुत एक भरभक्कम शरीर वाला आदमी, काला ही था। चेचक के दाग थे चेहरे पर।

सामान्य वेश, मध्यमवर्गीय महाराष्ट्र का जैसे रहता था, उस समय वैसा। और सामान्य भाषा, ऐसे ही थे।

प्रचार का कोई साधन नहीं था। विचार की मान्यता बिल्कुल नहीं थी। लोग तो कहते थे, डॉक्टर हवा पागल हो गया। बच्चों को लेकर देश को बनाने की बात कर रहा है। हिंदू राष्ट्र बिल्कुल मान्य नहीं था।

अच्छे-अच्छे हिंदू लोग कहते थे कि हिंदू तो अब मरने जा रहा है। छोड़ो। दिस इज ए डेड सोसाइटी। ऐसा बोलते थे।

और इसलिए उपेक्षा थी। हमारे प्रचारक थे, संघ कार्य के लिए निकले। कोई प्रचार शब्द नहीं था। लेकिन अंदर एक चिंगारी जग गई, निकल गए। निकल गए, तो कुछ था ही नहीं। ठांव-ठिकाना।

और ठोर-ठिकाना भागलपुर में बिहार में पहली बार प्रचारक गए, नागपुर से जैसे-तैसे जुगाड़ करके।

उनको टिकट का पैसा तो डॉक्टर साहब ने दिया। कुछ उस समय ₹12 आना भागलपुर तक का टिकट था।

तो उनके पास में ₹1 बचा। भागलपुर में कोई परिचित नहीं। बिहार में कोई परिचित नहीं।

काम शुरू नहीं हुआ था। शायद रहने का ठिकाना नहीं, कुछ नहीं।

तो पटना से भागलपुर एक पैसेंजर जाती थी। रात को पहुंचती थी। वहां रात भर पड़ी रहती थी।

सुबह निकल आती थी। उस पैसेंजर में रात को सोते थे, स्टेशन पर ही। सारा सुबह वाला निपटते थे।

और फिर गांव में घूमते, बोलते रहते थे। रात तक इसके घर जाओ, उसके घर जाओ। इसके बात करो, उससे बात करो। खाने को कुछ नहीं था। तो एक भुना चना बेचने वाला था, उससे दोस्ती कर ली।

एक पैसे का वो थोड़ा ज्यादा चना उनको रोज देता था। उस पर उनका भोजन चलता था। शाखा शुरू हो गई, तो एक बाल स्वयंसेवक के घर कोई पर्व था। भोजन के लिए कोई चाहिए था।

इसने उनको पूछा, आप ब्राह्मण हैं क्या? उसने कहा, हां। तो बोले, चलिए, हमारे यहां एक ब्राह्मण चाहिए।

तो इसलिए उसके घर गए। उसके माताजी को पता चला कि यह एम.कॉम है और सब छोड़कर हिंदू समाज को संगठित करने, देश के लिए आया है।

तो उस माताजी ने बताया कि भागलपुर में 11:00 बजे दोपहर, रात को 8:00 बजे तुम्हारा भोजन होना चाहिए।

कहीं नहीं, तो हमारे यहां आओ। मैं 11:00 बजे के बाद एक घंटा राह देखूंगी। फिर गांव में घूमूंगी। तुम्हारा भोजन हुआ कि नहीं, देखूंगी। हुआ होगा, तो मैं करूंगी, नहीं तो नहीं करूंगी।

अभी-अभी मैं वहां क्षेत्र प्रचारक बनके गया। तब मैंने देखा, वो जो बालक था, आठवीं में उस समय, वो हमारे विभाग संघचालक बन गए थे।

उनके घर में यह चलता था। उस समय तो हमारी ये हालत नहीं थी।

एक बड़े प्रसिद्ध नेत्र शल्य चिकित्सक के यहां हमारा भोजन था। वहां हमारा भोजन हो रहा था।

महाशय, हमारे विभाग संघचालक जी बैठे थे। हमने बोला, आइए। तो बोले, नहीं, मेरा घर में भोजन है।

तो फिर जाइए, समय हो गया। क्यों गया? उन्होंने कहा, नहीं, आपका भोजन पूरा होने के बाद मुझे रिपोर्ट करना पड़ेगा। तब घर में बहुएं भोजन करेंगी। समाज ने हमको संभाला। जैसा संभाला, वैसा हम रहे।

किसी बात की मान्यता नहीं। एक श्रद्धा लेकर चले। डॉक्टर हेडगेवार पर विश्वास रखकर चले।

और फिर विरोध शुरू हुआ। क्या विरोध हुआ? किसी स्वयंसेवी संगठन का इतने लंबे समय तक इतना कड़ा विरोध और कटु विरोध।

इसका भी कोई पुस्तक आप देखके तैयार कर सकते हैं। क्या-क्या नहीं हुआ। झूठे आरोप मढ़े गए।

हत्याएं हुईं, संघर्ष हुआ। अपने को बचाने को जितना लड़ना था, उतना हम लड़ते थे।

लेकिन हमको बताया जाता था, यह अपना ही समाज है। गुरु जी के घर पर हमला हुआ, फरवरी में 48 में।

तो साहब, एक स्वयंसेवक रक्षण करने गए। उन सबको गुरु जी ने घर भेज दिया।

जाओ, अपना समाज है। इस समाज ने जब अपने को सराहा, तब अच्छा लगा ना।

और वही अगर मारने को आता है, तो मेरे घर के आंगन में मेरा रक्त बहेगा, समाज का नहीं बहेगा।

आप सब लोग जाओ वापस। ये वृत्ति थी। क्योंकि आधार क्या है हमारा?

संघ के कार्य का आधार कोई विरोध, कोई प्रतिक्रिया नहीं। शुद्ध सात्विक प्रेम हमारे अपने कार्य का आधार है।

जिस आधार पर हम विविधता में एकता देखते हैं, वह तो सत्य रूप है, प्रेम रूप है, करुणा रूप है।

संघ के स्वयंसेवकों ने हमेशा यही मन में बात रखी कि यह सब होगा, लेकिन सब अपने हैं।

और जैसा मैं कहता हूं, संघ हिंदू के नाते चलता है। तो हिंदू का यह अपनापन केवल हिंदू के लिए नहीं है।

वसुधैव कुटुंबकम है। वही बीज रूप में हम परिवार में अपनेपन के आधार पर चलते हैं।

हम गांव को अपना गांव मानकर चलते हैं। देश को अपना देश मानकर चलते हैं।

यह क्रमिक विस्तार हमारा होता है। यह मनुष्य जीवन के क्रमिक विकास का आलेख है। यह ध्यान में रखकर स्वयंसेवकों ने हमेशा भरता है। पास में कुछ नहीं था।

स्वयंसेवकों की निष्ठा, स्वयंसेवकों की श्रद्धा, उनका विश्वास, इसके आधार पर संपूर्णतः स्वयंसेवकों के आधार पर हम चले।

हमने अपने पद्धति में भी यही रखा है। संघ को स्वयंसेवक चलाएंगे। हम परावलंबी नहीं हैं।

हम सब मामलों में स्वावलंबी हैं। मेन, मनी एंड एमिनेशन। हमारे पास कार्यकर्ता नहीं थे।

हमने रेडीमेड कार्यकर्ता नहीं लिए। हमने अपने कार्यकर्ता खुद बनाए। वह बन रहे हैं।

कार्यकर्ता बनते हैं। वह शाखाएं चलाते हैं। शाखाएं चलती हैं। कार्यकर्ता बनते हैं। वह बनते हैं। अधिक शाखाएं खोलते हैं। अधिक कार्यकर्ता बनते हैं।

पैसा हमारे स्वयंसेवक साल में एक बार गुरु दक्षिणा करते हैं। संघ को चंदा नहीं देते, दान नहीं देते।

देश के लिए समर्पित होने की मेरी प्रतिज्ञा है। तो वास्तव में समर्पण मेरा कितना? भावना, भावना की दृष्टि से कितनी उत्कटता पर है, इसका टेस्ट करते हैं।

वो साल भर जमा करते हैं। बढ़ता रहे, इसलिए सब्जी खाना छोड़ देते हैं। दाल खाना छोड़ देते हैं। चाय पीना बंद कर देते हैं। बच्चा अपना एक-एक पाई कहीं से मिले, जमा करके उसको गुरु दक्षिणा में डालता है।

श्यामू पवार नाम का स्वयंसेवक था। नौवीं में पढ़ता था। माता-पिता दोनों मजदूर थे। रोज की रोटी, रोज बनती थी। रोज की कमाई से। ऐसा-ऐसा घर, ऐसी झोपड़ी, घर काहे का?

और गुरु दक्षिणा में उसके गण ने तय किया कि देखो, प्रत्येक ने ₹21 गुरु दक्षिणा तय करनी चाहिए। अपने गण का यह टारगेट है। तो उसने माता जी से मूंगफली बनवाई।

चीना बादाम या क्या, साल्टेड पीनट्स। और तीन महीना इंटरवल में सिनेमा टॉकीज में जाकर वह बेचता था। ₹1 जमा हो गए, बंद कर दिया। घर में ₹1 रख दिए। 15 दिन बाद था गुरु दक्षिणा समर्पण का कार्यक्रम।

घर को बताया, गुरु दक्षिणा है। 15 दिन उस घर में, जहां हाथ पर उनका पेट था, वहां पर वह ₹1 पड़ा रहा। किसी ने हाथ नहीं लगाया। उसने वो गुरु दक्षिणा में डाला। एक-एक स्वयंसेवक करता है।

नागपुर में डॉक्टर साहब का स्मारक, स्मृति मंदिर खड़ा हुआ। मैं बचपन में शाखा में जाता था, तो मुझे याद है। वहां एक डिब्बा रखा था। हम कुछ मिलता है। उस समय तो ज्यादा मिलता नहीं था घर से।

लेकिन कहीं कभार मिल गया। कोई मेहमान आ गए, जाते समय कुछ रख दिया हाथ पर। रखते भी ज्यादा नहीं थे। वो पुराना एक छेद वाला पैसा रहता था, तांबे का।

तो वह हम उस डिब्बे में डालते थे। पूरा पश्चिम बाग का परिषद जो बना है, या कहीं का भी। यहां दिल्ली का कार्यालय, स्वयंसेवकों ने बनाया। स्वयंसेवक चलाते हैं।

संघ को चलाने के लिए संघ किसी के सामने हक नहीं पसारता। संपूर्ण स्वावलंबी संगठन है। और इसलिए हम लोग जो हैं, हमारी दृष्टि से विचार करके जो अच्छा लगता है, वह बोल सकते हैं।

जो खराब लगता है, वह भी बोल सकते हैं। लेकिन उस बोलने के पीछे कोई विरोध, विरोध की भावना नहीं है। ना कोऊ से दोस्ती, ना कोऊ से बैर। और दोस्ती कहें, तो सब अपने हैं। सबके प्रति प्रेम है।

उस प्रेम के आधार पर और स्वयंसेवकों की निष्ठा, तपस्या के आधार पर हम यहां पर पहुंचे हैं। कितने बड़े त्याग हुए, कितने बड़े बलिदान हुए हैं। उस पर हम खड़े हैं।

यह हम जानते हैं। उनके प्रति मन में और एक उस भाव का वर्णन मैं नहीं कर सकता। ऐसे भाव हमारे सबके मन में हैं। और इस संघ को हमको आगे ले जाना है।

क्यों ले जाना है? क्योंकि भारत को खड़ा करना है। भारत का अपना योगदान है। वो योगदान क्या है? उसकी चर्चा हम कल के व्याख्यान में करेंगे। बहुत-बहुत धन्यवाद।

– सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी

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