इंटरव्यू की बहस का असली सवाल
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अंजना ओम कश्यप और गीता मोहन का डेढ़ घंटे लंबा इंटरव्यू कई दृष्टियों से उल्लेखनीय था। किसी भी देश के राष्ट्राध्यक्ष से इतने विस्तृत समय तक संवाद का अवसर हर मीडिया संस्थान को नहीं मिलता। स्वाभाविक था कि इस बातचीत पर विमर्श होता, सवाल होते, विश्लेषण होता। परन्तु आश्चर्य यह है कि चर्चा सवालों की धार, विषयवस्तु की गंभीरता या कूटनीतिक परतों पर कम और पत्रकारों की बैठने की मुद्रा पर अधिक केंद्रित हो गई।
यहाँ प्रश्न केवल इतना नहीं है कि किसी ने इसे असभ्यता क्यों कहा, बल्कि यह है कि क्या सचमुच वहाँ कोई अशिष्टता थी भी, या यह हमारी अपनी ही आत्महीन और अधिक संवेदनशील मानसिकता का प्रतिबिम्ब है, जो हर उपलब्धि के बीच भी अपने ही लोगों में कमी ढूँढ लेने को उतावली रहती है।
प्रोटोकॉल की दुनिया में इंटरव्यू की कुर्सियाँ कैसे तय होती हैं
यह समझना आवश्यक है कि किसी भी राष्ट्राध्यक्ष का इंटरव्यू सामान्य स्टूडियो चर्चा की तरह नहीं होता। राष्ट्रपति भवन हो, व्हाइट हाउस हो, एलिज़ी पैलेस हो या क्रेमलिन, हर जगह ऐसे इंटरव्यू के लिए एक विस्तृत प्रोटोकॉल व्यवस्था काम करती है।

कौन किस कुर्सी पर बैठेगा, दूरी कितनी होगी, फोकस किस ऊँचाई पर रहेगा, दोनों पक्षों के चेहरे एक स्तर पर दिखें इसके लिए कुर्सी की ऊँचाई कैसी होगी, कैमरा किस कोण से फ्रेम बनाएगा, बैकग्राउंड में क्या दिखेगा, यह सब मेजबान राष्ट्र की प्रोटोकॉल टीम तय करती है।
रूस जैसे देश में, जहाँ सत्ता संरचना अत्यंत संगठित और नियंत्रित है, वहाँ यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई विदेशी मीडिया संस्थान अपनी इच्छा से कुर्सियों की जगह, ऊँचाई या फ्रेम का निर्णय कर सकेगा। ऐसे में यह कहना कि भारतीय पत्रकारों ने जानबूझकर बैठने के तरीके से असभ्यता प्रदर्शित की, तथ्य से अधिक कल्पना है।
यदि वास्तव में किसी मीडिया संस्था ने अशिष्टता की हो, तो क्या क्रेमलिन जैसे सख्त तंत्र वाले संस्थान उसे स्वीकार कर लेंगे। यह मान लेना कि रूस की पूरी व्यवस्था प्रोटोकॉल पर सो रही थी और केवल भारतीय सोशल मीडिया जागृत था, स्वयं इस आरोप की कमजोरी बता देता है।
पुतिन के पुराने इंटरव्यू और रूसी मीडिया का संदर्भ
इस विवाद को समझने के लिए केवल एक काम पर्याप्त है। पुतिन के पूर्व के इंटरव्यू देख लिए जाएँ। यूट्यूब पर उपलब्ध असंख्य वीडियो में विभिन्न देशों के पत्रकार, रूसी पत्रकार, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के एंकर, सभी इसी तरह की कुर्सियों पर, लगभग इसी तरह की मुद्रा में बैठे दिखाई देते हैं।
कभी इंटरव्यू लेने वाला थोड़ा आगे झुका हुआ है, कभी पैर क्रॉस कर रखा है, कभी ऊँची कुर्सी के कारण पैर नीचे जमीन तक ठीक से टिक नहीं रहे, पर चेहरे कैमरा फ्रेम में बराबरी पर हैं। यह पूरे सेटअप का हिस्सा है। यह कोई भारतीय विशेषता नहीं, बल्कि उस देश और उस संस्थान के तय किए हुए दृश्य मानक का हिस्सा है।

ऐसे में केवल भारतीय पत्रकारों को निशाना बनाकर यह कहना कि उन्होंने कोई विशेष असभ्यता कर दी, न तो वस्तुनिष्ठ है, न निष्पक्ष। यह अधिकतर उस मानसिकता की देन है जो अपने ही लोगों पर संदेह करके संतोष महसूस करती है।
ऊँची कुर्सियाँ, पैर की स्थिति और सहजता का सवाल
तस्वीरों को शांत मन से देखिए। अंजना ओम कश्यप और गीता मोहन जिस कुर्सी पर बैठी हैं, वह स्पष्ट रूप से ऊँची है। हील के बावजूद उनके पैर जमीन से ऊपर दिखाई दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में यदि पैर पूरी तरह नीचे की ओर लटकाकर रखने की कोशिश की जाती तो कमर के आगे झुक जाने का दबाव बढ़ता।
इंटरव्यू के दौरान लगातार डेढ़ घंटे तक कमर को अस्वाभाविक मुद्रा में रखकर बैठना न तो स्वास्थ्य की दृष्टि से सहज होता, न कैमरा फ्रेम के लिए। ऐसी स्थिति में बहुत स्वाभाविक है कि व्यक्ति पैर को हल्का ऊँचा रखकर, या एक दूसरे पर टिकाकर संतुलन बनाता है, ताकि ऊँचाई और शरीर की स्थिति दोनों समंजित रहें।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि स्त्री और पुरुष, दोनों प्रकार के एंकरों ने पुतिन के साथ पूर्व के कई इंटरव्यू में इसी तरह की मुद्रा अपनाई है। किसी एक इंटरव्यू में, केवल दो भारतीय महिलाओं के लिए अचानक से इसे असभ्यता मान लेना, मुद्राओं से अधिक मानसिकता की समस्या है।
पत्रकार श्रद्धा प्रकट करने नहीं, प्रश्न पूछने जाते हैं
एक और महत्वपूर्ण बिंदु सामाजिक नजरिए से समझने योग्य है। पत्रकार, चाहे वह अंजना हों या गीता, या कोई और, किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के सामने आरती उतारने नहीं जाते। वे वहाँ प्रश्न पूछने, तर्क रखने, असुविधाजनक विषय उठाने और जवाब के लिए दबाव बनाने जाते हैं।

विदेशी शिष्टाचार हो या भारतीय, पत्रकारिता की मर्यादा यह नहीं कहती कि सामने बैठे व्यक्ति को देवता मानकर श्रद्धा की मुद्रा अख्तियार की जाए। शालीनता और विनम्रता अपनी जगह है, पर आँखों में आँखें डालकर सवाल करना पत्रकार का धर्म है।
जो लोग यह अपेक्षा करते हैं कि पत्रकार कुर्सी के किनारे पर झुककर, दोनों पैर सोजा रखकर, हाथ बांधकर बैठे और प्रशंसा भरी मुस्कान के साथ केवल हल्के प्रश्न करें, वे दरअसल स्वतंत्र पत्रकारिता की मूल अवधारणा से ही असहमत हैं।
पुतिन की प्रतिक्रिया, तारीफ और वास्तविक शिष्टाचार
जिस इंटरव्यू को लेकर बैठने की मुद्रा पर इतनी चर्चा हुई, उसी इंटरव्यू के दौरान पुतिन ने स्वयं अंजना ओम कश्यप के प्रश्नों की कठोरता और गहराई पर टिप्पणी की। उन्होंने मुस्कराकर कहा कि उन्हें महसूस हो रहा है जैसे वे किसी रक्षा सौदे की टेबल पर बैठे हों और उनके सामने बहुत कठिन प्रश्न रखे जा रहे हों।
यदि पुतिन को पत्रकारों के बैठने के अंदाज से अपमान या असुविधा महसूस हुई होती, तो क्या वे इस तरह की टिप्पणी करते। बल्कि उनकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट दिखाई देता है कि उनके लिए मुख्य बात सवालों की प्रकृति थी, न कि एंकरों के पैर किस कोण पर रखे हैं।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया जगत में इस इंटरव्यू को कई जगह सराहा गया। भारत के बाहर बैठे लोग भी इसकी गंभीरता और पहुँच को समझ रहे हैं, जबकि भीतर बैठे हम इसकी सतह पर उँगली घुमाते रह जाते हैं।
सोशल मीडिया का शोर और स्त्री पत्रकारों पर अतिरिक्त निगाह
यह तथ्य भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि जब भी कोई महिला पत्रकार आक्रामक सवाल पूछती है, अधिक दिखाई देती है, या बड़े मंच पर जाती है, तो उसके वस्त्र, हावभाव, आवाज़ और अब बैठने की मुद्रा तक पर विशेष निगाह रखी जाती है।

पुरुष एंकर के लिए वही मुद्रा महज एक सामान्य दृश्य बनकर रह जाती, पर जब दो भारतीय महिलाएँ, एक महाशक्ति के राष्ट्रपति से कठिन सवाल करती दिखती हैं, तो अचानक शिष्टाचार का पैमाना बदलने लगता है। यह केवल शिष्टाचार की बहस नहीं, हमारे समाज के भीतर छिपी हुई लैंगिक दृष्टि का भी संकेत है।
इस प्रकार की टिप्पणियाँ न केवल व्यक्तियों के प्रति अनुचित हैं, बल्कि देश के पेशेवर पत्रकार समुदाय के प्रति भी अवमानना का भाव उत्पन्न करती हैं।
हर उपलब्धि में कमी ढूँढने की आदत और राष्ट्रीय आत्मविश्वास
सबसे गंभीर प्रश्न यह है कि हम अपने ही लोगों को लेकर इतने संदेहशील क्यों हैं। डेढ़ घंटे के कठिन, सुव्यवस्थित, अंतरराष्ट्रीय स्तर के इंटरव्यू को हम इस बात से नहीं मापते कि कौन से प्रश्न पूछे गए, किन संवेदनशील मुद्दों पर बात हुई, भारत की प्राथमिकताएँ कैसे रखी गईं, बल्कि इस बात से मापते हैं कि पैर कितने डिग्री के कोण पर रखे गए थे।
जब कोई भारतीय टीम विदेश जाकर सफल होती है, कोई वैज्ञानिक बड़ी खोज करता है, कोई कलाकार वैश्विक मंच पर पहचान बनाता है, कोई पत्रकार विश्व राजनीति के केंद्र में बैठकर सवाल करता है, तब उस उपलब्धि पर गर्व करने की संस्कृति भी देश की शक्ति का हिस्सा होती है। हर चीज में दोष खोजने की आदत अंततः सामूहिक आत्मविश्वास को कमजोर करती है।
यह प्रश्न केवल इस इंटरव्यू तक सीमित नहीं है। यह हमारे पूरे सार्वजनिक विमर्श पर टिप्पणी है। क्या हम हर समय स्वयं को ही कटघरे में खड़ा करके, दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि भारत अपने प्रतिनिधियों पर भरोसा नहीं रखता।
आलोचना का अधिकार और विवेक की जिम्मेदारी
लोकतांत्रिक समाज में आलोचना सहज और आवश्यक है। मीडिया की भी आलोचना होनी चाहिए, पत्रकारों के प्रश्न, रुख, झुकाव, सब पर सवाल उठ सकते हैं। परन्तु जब आलोचना विषय से हटकर केवल व्यक्तित्व और देहभाषा तक सिमट जाए, तब यह विवेक की कमी की ओर संकेत करती है।
यह बिल्कुल उचित होता यदि किसी ने प्रश्नों की गुणवत्ता पर बहस की होती, यदि किसी ने यह कहा होता कि अमुक मुद्दा उठाया जाना चाहिए था और नहीं उठा। पर जिस विमर्श में इंटरव्यू की एक एक फ्रेम से केवल पैरों और कुर्सियों की ऊँचाई पर चर्चा हो, वह गंभीर नागरिक समाज की बहस से अधिक एक सतही मनोरंजन जैसा दिखने लगता है।
आलोचना का अधिकार तभी सार्थक है जब वह तर्क, तथ्य और प्रसंग के आधार पर हो, न कि पूर्वाग्रह या हीन भावना के आधार पर।
निष्कर्ष, इंटरव्यू की मूल उपलब्धि पर लौटना आवश्यक
अंततः बात वहीं लौटती है जहाँ से शुरू हुई थी। यह इंटरव्यू कोई छोटा मोटा संवाद नहीं था, यह डेढ़ घंटे की गंभीर बातचीत थी, जिसे दुनिया के चुनिंदा राष्ट्राध्यक्ष ही किसी बाहरी मीडिया को देते हैं। भारत की दो पत्रकार वहाँ बैठकर अपने देश का प्रश्न, अपने समाज की जिज्ञासा और अपने समय की चिंताओं को एक महाशक्ति के राष्ट्रपति के सामने रख रही थीं।
इस पूरी प्रक्रिया को केवल इस आधार पर खारिज कर देना कि उनकी बैठने की मुद्रा कुछ लोगों को पसंद नहीं आई, न न्यायसंगत है, न बुद्धिसंगत।
राष्ट्र के रूप में हमें यह तय करना होगा कि हम किस दिशा में देखना चाहते हैं। अपने लोगों की उपलब्धियों में गर्व और आत्मविश्वास खोजने की दिशा में, या हर उपलब्धि के बीच भी कोई न कोई दोष निकालकर स्वयं ही अपनी छवि धुंधली कर देने की दिशा में।
वास्तविक शिष्टाचार यह है कि जब अपने देश के प्रतिनिधि अंतरराष्ट्रीय मंच पर गरिमा के साथ उपस्थित हों, तो हम उनकी सफलता का समर्थन करें, उनके प्रश्नों की धार पर चर्चा करें, न कि उनकी कुर्सी की ऊँचाई और पैरों की स्थिति पर न्यायालय बैठाएँ। यही दृष्टि एक परिपक्व समाज और आत्मविश्वासी राष्ट्र की पहचान बनती है।

