Wednesday, July 16, 2025

काटजू ने फिर किया हिन्दू धर्म पर विषवमन, मजहबों पर नहीं खुलती जुबान

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने एक बार फिर हिन्दुओं के खिलाफ विष उगला है। काटजू ने अपनी फेसबुक पोस्ट में हिन्दुओं को मूर्ख बोलते हुए लिखा कि,

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गाय को पवित्र या गोमाता मानना निहायत मूर्खता है, जो दुनिया को दर्शाता है कि भारत के अधिकाँश निवासी कितने मूर्ख हैं। एक जानवर कैसे किसी इंसान की माता हो सकती है ? और लोग दूध तो भैंस बकरी ऊँठ याक आदि का भी पीते हैं। लगभग सारी दुनिया ( अमरीका , यूरोप, चीन, रूस, अफ्रीका, अरब मुल्क, ऑस्ट्रेलिया, जापान, तुर्की, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, आदि ) गोमांस खाती है। क्या वह सब लोग बुरे हैं और हिन्दू ही साधु संत हैं ?

“एक जानवर किसी की माता कैसे हो सकती है?” यह वाक्य, कोई सामान्य व्यक्ति कहता तो क्षमा योग्य होता, पर जब यह बात भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कहते हैं, तब यह वाक्य एक सामाजिक अपराध की श्रेणी में आ जाता है।

जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने हिन्दू समाज की हजारों वर्षों पुरानी धार्मिक भावना पर जो बयान दिया है, वह देश की संवैधानिक आत्मा और सांस्कृतिक चेतना के प्रति भी असंवेदनशील है।

हिन्दू धर्म की संस्कृति और जीवन का प्रतीक है गाय

ऋग्वेद में गाय को ‘अघ्न्या’ कहा गया, अर्थात् जिसे मारा नहीं जा सकता। गाय का दूध पोषण देता है, गोबर और मूत्र औषधि हैं, और उसका स्पर्श ही अनेक धार्मिक क्रियाओं में पवित्रता का द्योतक माना गया है।

महात्मा गांधी ने कहा था, “गाय करुणा की कविता है। इस कोमल पशु में करुणा झलकती है। वह करोड़ों भारतीय मानवजाति की माता है। गाय की रक्षा का अर्थ है ईश्वर की समस्त मूक सृष्टि की रक्षा। प्राचीन ऋषि, चाहे वे कोई भी हों, उन्होंने गाय से ही शुरुआत की।”

गाय की पूज्यता और उसके संरक्षण पर भी महात्मा गांधी के विचार स्पष्ट थे, “मैं गाय की पूजा करता हूँ और मैं इसकी पूजा का पूरे विश्व के सामने बचाव करूंगा।” उनके अनुसार गाय एक ऐसा प्राणी है, जो भारतीय समाज को आत्म-संयम, करुणा और अहिंसा का पाठ सिखाती है।

हिन्दू आस्था पर क्यों नहीं लागू होता सेकुलरिज्म ?

क्या पूर्व जस्टिस काटजू इसी प्रकार इस्लाम की मान्यताओं पर टिप्पणी कर सकते हैं? क्या वे महिला खतना (FGM), चार निकाह, तीन तलाक जैसी प्रथाओं को “मूर्खता” कहने की हिम्मत काटजू में है कि नहीं? इस्लाम की इन प्रथाओं पर क्या बोलेंगे काटजू?

महिला खतना (FGM): विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे मानवाधिकार हनन कहा है। पर काटजू को शायद इसमें वैज्ञानिकता दिखती है।

इस्लाम में चार विवाह की अनुमति: क्या यह स्त्री के अधिकारों का हनन नहीं? क्या काटजू इसे मूर्खता कहेंगे?

इस्लामी शरिया: शरिया कानून में इतनी वीभत्स सजाएं हैं जिनसे मानवता कांप उठती है। आज भी ईरान ईराक अफगानिस्तान जैसे इस्लामिक मुल्कों में अत्याचार की कहानियां रूह कंपा देती हैं।

क्या “हाथ काट देना”, “कोड़े मारना” जैसी सजाएँ काटजू के लिए मानवाधिकार के खिलाफ नहीं? वह इन पर आवाज क्यों नहीं उठाते? हिन्दुओं से उन्हें क्या तकलीफ है?

इस्लाम में कुफ्र और शिर्क की सज़ा: किसी धर्म को न मानने पर जान से मारने की धमकी, क्या यह सभ्यता है? ‘वाजिबुल कत्ल’ की अवधारणा के तहत ईशनिंदा जैसी बातों के लोई लोगों की हत्या को जायज ठहरा देना यह उचित है?

इसके तहत जब कन्हैयालाल की हत्या हुई तो काटजू का मुंह क्यों नहीं खुला? कमलेश तिवारी की हत्या पर काटजू को सांप सूंघ गया था?

जिहाद के नाम पर आतंकवाद: जिहाद के नाम पर आतंकवादी घटनाओं में लोगों को धर्म पूछकर मार दिया गया, पहलगाम में यही हुआ। पर ऐसे मौकों पर ये साफ दिखती मजहबी बुराइयों का बचाव करने लगते हैं। तब काटजू की तर्कशीलता सो जाती है।

लाउडस्पीकर से अजान: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, यह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं। पर क्या काटजू ने कभी इसे धार्मिक आक्रमण क्यों नहीं कहा? लाउडस्पीकर आज भी चालू हैं पर काटजू को उसमें बुराई नहीं दिखती।

सुअर न खाना: इस्लाम में सुअर खाना हराम है, बल्कि उसे घृणित माना गया है। जबकि अमेरिका, यूरोप आदि दर्जनों देशों में सुअर का मांस खाया जाता है। फिर मुसलमानों को मूर्ख कहने की हिम्मत काटजू की क्यों नहीं होती? क्या उन्हें डर है कि ऐसा किया तो जान पर बन आएगी?

ईसाईयत की कमियों पर भी काटजू की जुबान शायद ही कभी खुली हो

ईसाईयत में जन्म लेते ही मनुष्य को पापी ठहराने का सिद्धांत क्या बौद्धिक रूप से स्वीकार्य है? क्या काटजू ने कभी इन धार्मिक सिद्धांतों की समीक्षा की है?

ईसाई धर्मयुद्ध (क्रूसेड) जिसमें लाखों की हत्याएँ, सामूहिक नरसंहार किया गया, उसे काटजू अंधश्रद्धा कहेंगे कि नहीं?

गैर-विश्वासियों को नर्क भेजने की ईसाई सोच आज के धर्मनिरपेक्ष समाज के अनुरूप है? इसके नाम पर जो धर्मांतरण का रैकेट चलता है उसपर काटजू की जुबान क्यों नहीं खुलती?

केवल हिन्दू धर्म ही निशाने पर क्यों?

जब हिन्दू धर्म में गाय को माता कहा जाए तो काटजू उसे ‘मूर्खता’ कहते हैं, लेकिन जब पैगंबर के कार्टून पर पूरे विश्व में हिंसा होती है, तब वे मौन रहते हैं। जब किसी चर्च का पुजारी बाल शोषण करता है, तो वह बौद्धिक विमर्श में नहीं आता। क्यों?

न्यायिक पद की गरिमा और अपेक्षित विवेक

क्या इसलिए कि हिन्दू धर्म सहिष्णु है, मारक नहीं? क्या इसलिए कि हिन्दू समाज कोर्ट का अपमान नहीं करता, सड़कों पर नहीं उतरता?

आश्चर्य होता है कि जब काटजू जैसे हिन्दू विरोधी लोग सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस रहे होंगे तब इन्होंने हिन्दू धर्म के विरुद्ध कैसे कैसे कुचक्र नहीं रचे होंगे? कैसे विश्वास किया जाए कि इन्होंने धर्मनिरपेक्ष दृष्टि अपनाई होगी?

संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता है। पर क्या यह स्वतंत्रता इस बात की अनुमति देती है कि कोई व्यक्ति, वह भी एक पूर्व न्यायाधीश, किसी धर्म की मूल मान्यताओं को मूर्खता बताए?

भारत की सर्वोच्च अदालत ने केशवानंद भारती केस में स्पष्ट कहा था, “संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जिसकी व्याख्या देश की सांस्कृतिक चेतना और बहुलतावादी संरचना के आलोक में की जानी चाहिए।”

इस पृष्ठभूमि में काटजू का बयान एकतरफा, असंतुलित और हिन्दू-विरोधी पूर्वाग्रह से ग्रसित है।

पूर्वाग्रह का पर्दाफाश आवश्यक है

जस्टिस काटजू के वक्तव्य भारत के सामाजिक सौहार्द के लिए विष की तरह हैं। आलोचना तब तक वैध नहीं जब तक वह समदर्शी न हो। एक न्यायविद को सभी धर्मों पर एकसमान टिप्पणी करनी चाहिए। पर जब वे केवल हिन्दू आस्था को ही उपहास का विषय बनाएं, तब यह असंतुलन अक्षम्य है।

भारत की आत्मा सहिष्णुता है, न कि सहनशीलता का मज़ाक। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि धर्म की आलोचना विचार के स्तर पर हो, अपमान के स्तर पर नहीं। और अगर आलोचना हो, तो सबकी हो, बराबरी से हो। तभी यह देश संविधान की आत्मा पर खरा उतर सकेगा।

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