संघ के एक युग-पुरुष की विदाई
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, पाथेय कण के पूर्व संपादक और हजारों स्वयंसेवकों के जीवन में प्रेरणा-स्रोत रहे आदरणीय माणकचंद जी भाईसाहब का मंगलवार, 30 जुलाई 2025 को अपराह्न 12:15 बजे जयपुर के एसएमएस अस्पताल में निधन हो गया। वे 83 वर्ष के थे।
वे पिछले एक माह से गंभीर किडनी रोग से पीड़ित थे, दोनों गुर्दों की कार्यप्रणाली शिथिल हो चुकी थी और नियमित डायलिसिस चल रही थी। परंतु वे कभी स्वयं को रोगी मानते नहीं थे।
60 वर्षों की प्रचारक यात्रा और साधना
माणक जी भाईसाहब पिछले 60 वर्षों से प्रचारक जीवन में संलग्न थे। उन्होंने 1966 में बी.एस.सी. की शिक्षा पूरी करने के बाद जीवन को संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया था।

उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः राजस्थान और विशेष रूप से जयपुर रहा, जहाँ वे अपने शांत, संयमित और तपस्वी व्यक्तित्व के लिए जाने जाते थे।
प्रचारक जीवन को उन्होंने केवल निभाया नहीं, संपूर्ण उत्सर्ग के साथ जिया। वे विचारशीलता, आत्मनिष्ठा और व्यवहारशीलता के प्रतीक माने जाते थे।
पाथेय कण से एकात्म भाव
भाईसाहब का जीवन पाथेय कण पत्रिका से गहरे रूप से जुड़ा रहा। वे 36 वर्षों तक इसके संपादक रहे और 34 वर्षों तक प्रबंध संपादक की भूमिका निभाई। उन्होंने पाथेय कण को केवल एक पत्रिका नहीं, विचार साधना की भूमि और राष्ट्र चेतना के मंच के रूप में गढ़ा।
उनके संपादन में पत्रिका का पाठक वर्ग लगातार बढ़ता रहा। उनके संतुलित दृष्टिकोण, अनुशासित भाषा और राष्ट्रनिष्ठ पत्रकारिता ने पाथेय कण को विशिष्ट ऊँचाई प्रदान की।
स्थितप्रज्ञ भाव और रोग से परे चेतना
गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी भाईसाहब का मन कभी विचलित नहीं हुआ। अस्पताल में भर्ती रहते हुए भी वे पाथेय कण का नवीनतम अंक साथ रखते, डॉक्टरों का हाथ जोड़कर अभिवादन करते और मुस्कुराते रहते।
एक दिन मिश्री कूटते हुए उन्होंने एक युवा डॉक्टर को हाथ जोड़ नमस्कार किया, यह दृश्य उस चिकित्सक के लिए अविस्मरणीय बन गया। उनके लिए सेवा, विनम्रता और समत्व कोई प्रदर्शन नहीं, जीवन का सहज अभ्यास था।
नियमबद्ध जीवन: साधना की जीवंत छाया
भाईसाहब की दिनचर्या में भी तप का स्वर था। वे प्रतिदिन प्रातः 4 बजे उठते, एकात्मता स्तोत्र का पाठ करते, नियमित स्वाध्याय करते और शाखा का हिस्सा रहते। उनका हर कर्म अनुशासन और साधना की मिसाल था।
उनकी आत्मसंतोष की स्थिति को गीता के इस श्लोक से समझा जा सकता है — “आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।” वे इसी स्थितप्रज्ञता की प्रतिमूर्ति थे।
पीड़ा में भी प्रेरणा: अंतिम क्षणों की गरिमा
जब वे एसएमएस अस्पताल के वार्ड में भर्ती थे, वहाँ अन्य मरीज़ कराह रहे थे, वहीं भाईसाहब मंद मुस्कान के साथ सबका उत्साह बढ़ा रहे थे। कभी अपने कष्ट की चर्चा नहीं की, उल्टा मिलने वालों से उनके हालचाल पूछते।
उनके सान्निध्य में दो दिन बिताने वाले एक स्वयंसेवक ने लिखा, “मैं सिहर रहा था और महामना मिश्री कूट रहे थे…” यह वाक्य उनके व्यक्तित्व की उस अद्भुत ऊँचाई को दर्शाता है जो मृत्यु को भी साधना में बदल देती है।
विनम्रता और प्रेरणा का पर्याय
अपने जीवनभर भाईसाहब ने कभी किसी से ऊँच-नीच का व्यवहार नहीं किया। छोटे से छोटे व्यक्ति को भी हाथ जोड़कर सम्मान दिया।
उन्होंने न कभी स्वयं की प्रशंसा की और न ही दूसरों से चाही। उनका प्रभाव शब्दों से नहीं, आचरण से था। संघ के लिए उन्होंने भाषण नहीं दिए, उन्होंने संघ को जिया।
शब्दातीत श्रद्धांजलि और अंतिम विदाई
संघ और राष्ट्र के इस तपस्वी कर्मयोगी की अंतिम यात्रा मंगलवार को सायं 4:00 बजे पाथेय भवन, मालवीय नगर, जयपुर से झालाना मोक्षधाम के लिए प्रस्थान करेगी। देहदर्शन हेतु उनका पार्थिव शरीर दोपहर 3:30 बजे तक पाथेय भवन में रखा जाएगा।
जीवन का अंतिम गीत: “मन मस्त फकीरी धारी है…”
अपने अंतिम क्षणों में भी वे वही गीत गुनगुना रहे थे, जो उनके जीवन की धुन बन चुका था, “मन मस्त फकीरी धारी है, अब एक ही धुन जय जय भारत…” वे इस धुन में विलीन हुए, स्थितप्रज्ञ भाव में शांत हो गए।
माणकचंद जी भाईसाहब का पुण्यस्मरण
माणक जी माणिक्य सत्य थे,
राष्ट्र धर्म का पथ अपनाया।
अटल-अडिग हो बढ़े मार्ग पर,
संघ ध्येय आजन्म निभाया॥
नव-युवकों में भरी प्रेरणा,
कितनों का दिग्दर्शन करके।
अनगिन में भर ध्येय धारणा,
अनगिन के अपने हो करके॥१॥
तुमने कण-पाथेय सँभाला,
श्रेष्ठ प्रकाशन दिशा नयी दी।
अति लघुरूप किया विस्तृत सो,
गाँव-गाँव तक भी पहुँचा दी॥
ऐसे श्रेष्ठ तपस्वी को हम,
श्रद्धा-सुमन समर्पित करते।
सबके प्यारे माणक जी को,
सादर अन्तिम बार नमस्ते॥२॥
– डॉ श्रीकांत, भारती भवन, जयपुर