MAHARANA SANGA: कल्पना कीजिए—एक योद्धा जिसका एक हाथ नहीं, एक पैर नहीं, एक आँख नहीं। फिर भी, वह घोड़े पर सवार होकर सैकड़ों सैनिकों के बीच युद्धभूमि में उतरा। वो कोई काल्पनिक पात्र नहीं, बल्कि भारतभूमि की माटी से जन्मा ऐसा सपूत था, जिसने अपने जीवनकाल में 100 युद्ध लड़े और सिर्फ़ एक में पराजय देखी। यही थे मेवाड़ के शेर—महाराणा संग्राम सिंह, जिन्हें हम राणा सांगा के नाम से जानते हैं।
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MAHARANA SANGA: अध्याय 1: जन्म और प्रारंभिक जीवन
MAHARANA SANGA: 12 अप्रैल 1482 को चित्तौड़ के दुर्ग में राणा रायमल के घर जन्मे संग्राम सिंह, प्रारंभ से ही असाधारण थे। तीन भाइयों में सबसे छोटे संग्राम के हाथ की रेखाओं में सम्राट बनने का संकेत देखकर उनके बड़े भाई पृथ्वीराज क्रोधित हो उठे और एक झगड़े में उन्होंने संग्राम की एक आँख फोड़ दी। यह घटना किसी आम बालक को तोड़ सकती थी, लेकिन संग्राम सिंह की आत्मा इस चोट से और भी प्रबल हो उठी।
विरासत की लड़ाई के बीच उन्होंने सेवंत्री और फिर अजमेर की शरण ली, जहाँ करमचंद पंवार जैसे निष्ठावान सहयोगियों के साथ उन्होंने युद्धकला में निपुणता हासिल की।

MAHARANA SANGA: अध्याय 2: सिंहासन की प्राप्ति
परिवारिक कलह के बीच जब पृथ्वीराज और जयमल दोनों भाइयों की मृत्यु हुई, तो सरदारों ने संग्राम सिंह को उत्तराधिकारी चुना। 1508 में जब वह महज़ 27 वर्ष के थे, उन्हें महाराणा घोषित किया गया। यह वही क्षण था जब एक नेत्र, एक हाथ और अनेक घावों के बावजूद इतिहास ने एक योद्धा सम्राट का स्वागत किया।
अध्याय 3: साम्राज्य विस्तार और राजपूत एकता
MAHARANA SANGA: महाराणा सांगा ने न केवल मेवाड़ को संगठित किया, बल्कि सम्पूर्ण राजपूताना की रियासतों को वैवाहिक संबंधों और परंपरागत ‘पाती परवन’ पद्धति से एक किया। उनके नेतृत्व में हिन्दू रजवाड़ों की एक ऐसी सेना खड़ी हुई, जो युगों बाद भारत में फिर कभी दिखाई नहीं दी।
मारवाड़, आमेर, बीकानेर, चंदेरी, मेड़ता, नागौर, बूंदी, इडर, मेवात, सलूम्बर, डूंगरपुर और प्रतापगढ़ जैसे अनेक राज्य उनकी छत्रछाया में संगठित हुए।

अध्याय 4: बाबर से टकराव – खानवा का युद्ध
MAHARANA SANGA: 1526 में बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराया और भारत में मुगल शासन की नींव रखी। इतिहासकारों के अनुसार, बाबर को भारत बुलाने का दावा जिस तरह से कुछ लोगों ने राणा सांगा पर थोपा, वह तथ्य से परे और एक कूटनीतिक मिथक है।
राणा सांगा ने बाबर की सेना को बयाना में पराजित किया। लेकिन 17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में हुए युद्ध में बाबर अपने तोपखाने और युद्ध कौशल के साथ पूरी तैयारी से आया। युद्ध की भीषणता के बीच राणा सांगा को तीर लगा और जब वे गिर पड़े, तो परंपरागत रीति के अनुसार उन्हें युद्ध से बाहर ले जाया गया। राणा के बिना सेना का मनोबल टूटा और यह युद्ध उनकी पहली और आखिरी पराजय बना।
MAHARANA SANGA: अध्याय 5: अंतिम संकल्प और मृत्यु
खानवा की हार ने राणा सांगा के हौसले को नहीं तोड़ा। उन्होंने चित्तौड़ लौटने से इंकार कर दिया और प्रण लिया कि जब तक बाबर को नहीं हराएंगे, तब तक पगड़ी नहीं पहनेंगे। वे चंदेरी की ओर कूच करने ही वाले थे, जब 30 जनवरी 1528 को उनके ही किसी सरदार द्वारा उन्हें विष देकर मार दिया गया।
यह उस योद्धा का अंत था, जिसने न कभी हार मानी, न कभी झुका।
MAHARANA SANGA: अध्याय 6: विरासत और गौरव
राणा सांगा की वीरता का लोहा स्वयं बाबर ने भी माना। उन्होंने लिखा, “उसके पास एक लाख घुड़सवार थे और इतने सरदार कि कोई सुल्तान उसका सामना अकेले नहीं कर सकता था।” ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा कि अगर उनके उत्तराधिकारी भी उनके जैसे होते, तो भारत कभी मुगलों की गुलामी में न जाता।
अध्याय 7: 100 युद्ध, एक योद्धा
MAHARANA SANGA: इतिहास साक्षी है कि राणा सांगा ने खातौली, बाड़ी, गागरोण, बयाना जैसे लगभग 100 युद्ध लड़े और केवल खानवा में पराजित हुए। अपने शरीर पर 80 घाव लेकर भी वे अंतिम साँस तक भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे।
MAHARANA SANGA: निष्कर्ष: राणा सांगा – एक परिभाषा, एक प्रेरणा
महाराणा सांगा केवल एक योद्धा नहीं थे, वे भारतीय अस्मिता, साहस और राष्ट्रभक्ति की जीवंत प्रतिमा थे। जो जीवनभर लड़े, लेकिन कभी झुके नहीं। आज जब कोई उनके देशभक्त होने पर प्रश्नचिह्न लगाता है, तो यह हमारी स्मृति और इतिहासबोध पर चोट है।
राणा सांगा उस मिट्टी से बने थे, जहाँ हार नहीं, केवल बलिदान लिखा जाता है। वे आज भी हर उस भारतीय के हृदय में जीवित हैं जो मातृभूमि से प्रेम करता है।