Monday, September 8, 2025

लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक ढलान की कहानी, भाजपा की हार और वामपंथियों का घेरा

लालकृष्ण आडवाणी

2009 लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, लेकिन हार के बाद उनका राजनीतिक ढलान स्पष्ट हो गया।

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चुनाव में नकारात्मक प्रचार, और स्वयं को विकल्प के रूप में प्रस्तुत न कर पाने के कारण भाजपा सत्ता से दूर रही। इसी हार से आडवाणी का करिश्मा धीरे-धीरे खत्म होने लगा।

90 के दशक के लालकृष्ण आडवाणी और 21वीं सदी के आडवाणी में भारी अंतर दिखाई दिया। केन्द्र सरकार में शामिल होने के बाद उनके चारों ओर लेफ्टिस्ट मंडली का घेरा बन गया।

सुधीन्द्र कुलकर्णी, अरुण शौरी और कुलदीप नय्यर जैसे लोग, जिनकी पृष्ठभूमि मीडिया से थी, उनके सलाहकार बने।

सत्ता के आकर्षण में फंसे आडवाणी भाजपा कैडर से दूर होते गए और घटक दलों के आगे झुकते चले गए।

आडवाणी और लाहौर बस यात्रा का विवाद

लालकृष्ण आडवाणी के लेफ्टिस्ट सलाहकारों की सोच ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाहौर बस यात्रा का सुझाव दिया।

कुलदीप नय्यर और नवाज शरीफ परिवार से करीबी रखने वाले प्रकाश सिंह बादल जैसे नेताओं ने पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता का सपना दिखाया।

लेकिन कारगिल युद्ध के बाद यह प्रयोग पूरी तरह विफल हो गया और भाजपा की छवि पर नकारात्मक असर पड़ा।

यही नहीं, आडवाणी को जिन्ना की मजार पर जाने की सलाह दी गई। इस कदम से हिंदुत्व समर्थक और राष्ट्रवादी वर्ग उनसे नाराज़ हो गया।

भाजपा और संघ के बीच लालकृष्ण आडवाणी की छवि संदिग्ध बन गई और उनका राजनीतिक ग्राफ नीचे गिरने लगा।

मुरली मनोहर जोशी और भाजपा में समानांतर कैंप

उस समय मुरली मनोहर जोशी, आडवाणी के सबसे करीबी थे। लेफ्ट विचारधारा से प्रभावित जोशी ने शिक्षा मंत्री रहते हुए शिक्षा क्षेत्र से कम्युनिस्ट प्रभाव हटाने की कोई ठोस कोशिश नहीं की।

उनकी सलाह पर आडवाणी बार-बार अटल बिहारी वाजपेयी से टकराने लगे। यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेताओं के साथ आडवाणी ने पार्टी में समानांतर कैंप तैयार किया।

यह कैंप दिन-रात प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर दबाव बनाता और सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करता। इससे भाजपा के भीतर अविश्वास बढ़ता गया।

2004 और 2009 की हार के बाद आडवाणी की गिरती लोकप्रियता

2004 लोकसभा चुनाव की हार का बड़ा कारण आडवाणी कैंप का रवैया माना गया। अटल बिहारी वाजपेयी को हटाकर लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सुधीन्द्र कुलकर्णी और अरुण शौरी जैसे सलाहकारों ने मीडिया में माहौल बनाया। इससे कार्यकर्ताओं और संघ स्वयंसेवकों में असंतोष फैल गया।

2004 के बाद संघ में आडवाणी अप्रसिद्ध हो गए। वहीं 2009 लोकसभा चुनाव की हार ने भाजपा कैडर में भी उनकी साख को ध्वस्त कर दिया।

भाजपा और संघ दोनों मान चुके थे कि आडवाणी में वह जादुई करिश्मा नहीं है जो अटल बिहारी वाजपेयी को जनता से जोड़ता था।

भाजपा में नए नेतृत्व की तलाश

2009 की हार के बाद लालकृष्ण आडवाणी विपक्षी नेता के रूप में ही दिखने लगे। भाजपा और संघ को समझ आ गया कि अब पार्टी को एक नए करिश्माई नेतृत्व की आवश्यकता है।

अटल जी की तरह जनता में अपार समर्थन जुटाने वाला नया चेहरा ही भाजपा को सत्ता तक पहुंचा सकता था। इसी दौर से पार्टी में नए मास लीडर की तलाश शुरू हुई।

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