हिन्दू
क्या भाजपा ही हिन्दू धर्म की प्रतिनिधि है। क्या राममंदिर के भूमिपूजन शिलान्यास प्राणप्रतिष्ठा और ध्वजारोहण का अधिकार केवल नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत को ही था।
क्या राम केवल भाजपा के हैं। ये प्रश्न उन अनगिनत लोगों के मन में उठते रहे हैं जिन्होंने पाँच सदियों के संघर्ष को देखा पढ़ा या महसूस किया है।
इन सवालों के जवाब केवल राजनीति में नहीं छिपे हैं बल्कि इतिहास समाज न्याय और जनभावना के गहरे तल में उपस्थित हैं।
सदियों की उपेक्षा और पीड़ा का संचय
स्वतंत्र भारत ने अनेक सरकारें देखीं लेकिन हिन्दू समाज की सबसे बड़ी अपेक्षा रामजन्मभूमि विवाद के समाधान को लेकर सदैव अधूरी रही।
मुगल शासन में लोग विवादित ढांचे को ही रामजन्मभूमि मानकर प्रणाम करते थे क्योंकि शासन यही चाहता था। नवाबी शासन में भी यही स्थिति रही। अंग्रेज आए तो भी कुछ नहीं बदला।
स्वतंत्रता के बाद उम्मीदें थीं कि जो हमारी अस्मिता से जुड़ा है वह वापस मिलेगा लेकिन नीतियों में ऐसा कुछ दिखा नहीं।
कभी स्थिरता के नाम पर कभी साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर कभी वोट बैंक की मजबूरियों के बीच यह प्रश्न स्थगित ही रहा।
जनता देखती रही कि जिन प्रतीकों को वह जीती है उन्हें सरकारें प्राथमिकता ही नहीं देतीं।
संघ और विहिप का संघर्ष और जनांदोलन
जब यह अनुभूति गहरी होती गई कि राजनीतिक दल यह प्रश्न उठाना नहीं चाहते तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने इसे संगठित रूप से आगे बढ़ाया।
विहिप ने आंदोलन का मोर्चा संभाला यात्राएं निकालीं जनजागरण किया और रामजन्मभूमि के ऐतिहासिक पुरातात्विक और सांस्कृतिक साक्ष्यों को देश के सामने रखा।
इस संघर्ष में हजारों स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए कारसेवकों ने गोली खाई और समाज ने देखा कि राममंदिर आंदोलन का भार कौन उठा रहा है।
जब सपा सरकार ने कारसेवकों पर गोली चलाई और उसके मुखिया ने कई बार गर्व से कहा कि हमने भीड़ पर गोली चलाई तो हिन्दू मानस यह भी देख रहा था।
जब भाजपा सरकार ने एक भी गोली नहीं चलाई और बार बार कहा कि हमने एक गोली नहीं चलाई तो यह भी वही हिन्दू मानस सुन रहा था। यही तुलना उसकी स्मृति में स्थायी हो गई।
राजनीतिक निर्णय और विश्वास की निर्मिति
रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण जिन भाजपा सरकारों को बर्खास्त किया गया वह भी हिन्दू समाज ने देखा।
उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश राजस्थान हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारें हटाई गईं और यह कांग्रेस सरकार के निर्णय से हुआ।
जब सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर हुआ जिसमें कहा गया कि राम तो काल्पनिक हैं तब हिन्दू समाज यह भी देख रहा था कि सरकार में कौन कौन दल शामिल थे।
कांग्रेस ममता बनर्जी का दल लालू यादव का दल शरद पवार का दल स्टालिन का दल और बाहर से समर्थन मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की पार्टी का था।
इसके विपरीत कोर्ट में तथ्यात्मक प्रतिवाद भाजपा जयललिता और विश्व हिंदू परिषद की ओर से आया।
जनमानस यह नहीं भूलता कि उसकी आस्था के पक्ष में कौन खड़ा हुआ और कौन उपहास करता रहा।
न्यायिक प्रक्रिया और राजनीतिक इच्छाशक्ति
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद जब सभी पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और वहाँ सुनवाई आठ वर्षों तक स्थगित रही तब भी समाज के भीतर कुंठा बढ़ती रही।
जब केंद्र और उत्तरप्रदेश दोनों जगह भाजपा की सरकार बनी तो दस्तावेजों के अनुवाद पुरातात्विक रिपोर्टों की उपलब्धता और समयबद्ध सुनवाई के आग्रह ने सर्वोच्च न्यायालय को सक्रिय किया। स्वयं अदालत ने संकेत दिया कि जनभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
विपक्ष ने कहा कि इतनी जल्दी क्यों लेकिन यह प्रश्न वही पूछ सकते हैं जिनके धार्मिक स्थल पर अतिक्रमण न हुआ हो। जिसने पाँच सौ वर्षों से न्याय का इंतजार किया हो वह शीघ्रता क्यों न चाहे।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्रियान्वयन
फैसला आया और भारत ने पाँच सौ वर्षों के विवाद का शांतिपूर्ण समाधान देखा। एक पत्थर नहीं उछला एक सायरन नहीं बजा एक गिरफ्तारी नहीं हुई एक सड़क बंद नहीं हुई। जिलाधिकारी को आदेश मिला और अगले दिन भूमि मुक्त हो गई।
जहां एक बीघा जमीन का फैसला चालीस साल तक लागू न हो सके वहीं पाँच सदियों पुराना विवाद तीन महीने में लागू हो गया। यह प्रशासनिक दृढ़ता और सामाजिक परिपक्वता दोनों का संकेत है।
अयोध्या ट्रस्ट का गठन और सरकारी नियंत्रण से दूरी
भारत के अधिकांश मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं उनकी आय पर सरकार का हस्तक्षेप है और ट्रस्टी नियुक्ति तक सरकारें तय करती हैं।
परंतु अयोध्या में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार एक स्वतंत्र ट्रस्ट गठित किया जिसमें पंद्रह सदस्य हैं और उनमें से तीन सरकारी प्रतिनिधियों को मतदान का अधिकार भी नहीं है। सरकार मंदिर की आय से एक पैसा नहीं ले सकती।
यह वह निर्णय है जिसने हिन्दू समाज को दिखाया कि पहली बार कोई सरकार मंदिर को पूर्ण स्वतंत्रता दे रही है। भविष्य में भी कोई सरकार इस मंदिर पर मनमानी नहीं कर सकेगी।
क्या भाजपा ही हिन्दुओं की एकमात्र प्रतिनिधि है
यह कहना गलत है कि हिन्दू का अर्थ भाजपा है। हिन्दू एक सभ्यता है जिसमें राजनीति का आयाम केवल एक छोटा अंग है। भाजपा इस सभ्यता का संपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।
परन्तु समाज यह भी देखता है कि उसकी आस्था और उसके सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा कौन करता है।
अन्य दलों ने या तो दूरी बनाई या उपहास किया या विरोध किया। ऐसे में समाज का झुकाव स्वाभाविक रूप से उस ओर जाता है जिसने संघर्ष किया।
क्या राम केवल भाजपा के हैं
राम समस्त मानवता के हैं। वे किसी दल के नहीं हो सकते।
लेकिन क्या सभी दल राम के प्रति वही श्रद्धा और सम्मान रखते हैं।
क्या सभी दल रामजन्मभूमि की ऐतिहासिकता को स्वीकारते हैं।
क्या सभी दल इस संघर्ष को न्यायसम्मत मानते हैं।
समाज इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं देता है और उसी से उसकी धारणा बनती है।
भूमिपूजन और प्राणप्रतिष्ठा के अधिकारी कौन
प्रधानमंत्री राष्ट्र के लोकतांत्रिक मुखिया हैं और मोहन भागवत उस संगठन के प्रमुख हैं जिसने आंदोलन का संपूर्ण बोझ उठाया।
इसलिए भूमिपूजन और प्राणप्रतिष्ठा में उनका होना केवल औपचारिकता नहीं बल्कि संघर्ष की परंपरा की स्वाभाविक परिणति थी।
रामलला के चरणों में झुकता हुआ वह हाथ केवल मोदी का हाथ नहीं था वह उन करोड़ों हिन्दुओं का प्रतिनिधि हाथ था जो वहां उपस्थित नहीं हो सकते थे।
भाजपा हिन्दुओं की एकमात्र प्रतिनिधि नहीं परन्तु जनता को कोई और भी दिखाई नहीं देता जिसने उसके सांस्कृतिक अधिकारों के लिए इतना संघर्ष किया हो।
राम सभी के हैं लेकिन क्या सभी राम के हैं यह प्रश्न अपने उत्तर स्वयं दे देता है।
राममंदिर राजनीति का विषय नहीं बल्कि भारतीय आत्मा का पुनरुत्थान है और पाँच सौ वर्षों की तपस्या का फल उसी ने पाया जिसने इसे अनवरत आगे बढ़ाया।

