इंडिगो अव्यवस्था या अव्यवस्थित नागरिकता बोध?
4-5 दिसंबर को देश भर में इंडिगो ने 1000 से ज्यादा फ्लाइट्स कैंसिल कर दीं, जिसकी वजह से हजारों यात्रियों को अव्यवस्था और परेशानियों का सामना करना पड़ा। परन्तु इस आकस्मिक घटना में भारतीय नागरिकों के आचरण ने उनके नागरिकता बोध पर सवाल खड़े कर दिए।
इसी राष्ट्रीय घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तम्भकार श्री प्रणय कुमार, जिन्होंने इन हालातों पर अपने अनुभव को रिपोर्ट भारत के साथ साझा किया। आप भी विचार करिए–
4 दिसंबर को सुबह 10.30 बजे दिल्ली से बेंगलुरु के लिए मेरी इंडिगो फ्लाइट थी, लेकिन अंततः मैं रात 12.30 बजे अपने होटल पहुँचा और लगभग 1.30 बजे जाकर भोजन मिला। यह अनुभव अवश्य असुविधाजनक था, पर मनोबल तोड़ने वाला नहीं। मनोबल तोड़ने वाला अनुभव तकुछ और ही था।
कल के अनुभव की एक कटु स्मृति यह रही कि पूरी प्रक्रिया के दौरान लोग प्रधानमंत्री को गाली दे रहे थे। यह मेरे लिए नया नहीं था। अंग्रेजियत व सूडो सेकुलरिज्म में डूबा वर्ग प्रायः ऐसा करता रहा है, प्रत्यक्ष कारणों से भी और अपनी-अपनी राजनीतिक निष्ठा और रुचियों के प्रभाव में भी।

लेकिन सबसे अधिक पीड़ादायक यह रहा कि कुछ यात्री अपने ही प्राणप्रिय भारतवर्ष को भला-बुरा कह रहे थे, बार-बार कह रहे थे, और यूरोप-अमेरिका की सुविधाओं की तुलना करते हुए अपने ही देश की अवमानना कर रहे थे। जिन यात्रीगणों को कष्ट हुआ, उनमें मैं भी शामिल था।
मैं उनकी पीड़ा को समझ भी रहा था और व्यक्त भी कर रहा था। बल्कि अलग-अलग प्रकार से लाइन बनवाने, चेकिंग की व्यवस्था संभालने और यात्रियों को दिशा देने में मैंने स्वयं बढ़-चढ़कर सहायता की, क्योंकि वहाँ स्टाफ लगभग न के बराबर था।
एक-दो कर्मचारी 3–4 घंटे बाद किसी फ्लाइट की बोर्डिंग कराने आते, तो लोग उन्हें घेर लेते और अपनी-अपनी उड़ान पहले बोर्ड कराने पर अड़ जाते। ऐसे में मुझे बार-बार यह अनुभव हो रहा था कि यहाँ नागरिक-कर्तव्य को भी समझे जाने की आवश्यकता है।
इन असुविधाओं और अव्यवस्था के बीच भी कुछ लोग भीड़ को उकसाने में लगे थे। एक सज्जन तो दुनिया भर के “दंगे-फसाद” का उदाहरण देते हुए भारत में भी “दंगे” की आवश्यकता व भूमिका पर “अच्छी अंग्रेज़ी” में भाषण दे रहे थे।

मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ, गाँव से हूँ, असुविधाओं में पला-बढ़ा हूँ, बहुत वर्ष तो नंगे पाँव स्कूल गया हूँ, और सबसे बड़ी बात तो ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पाता, इसलिए उस कसौटी पर “सभ्य” और “सुसंस्कृत” भी नहीं हूँ, जिस कसौटी पर किसी को “सभ्य, शिष्ट व सुपात्र” बताया-जतलाया जाता है।
पर इतना अवश्य समझता हूँ कि किसी एक दिन की अव्यवस्था के कारण भारतवर्ष को कोसना, उसे अभिशापित करना, और उसके प्रति पल में कृतघ्न हो उठना, एक भारतीय मन व आत्मा का संस्कार नहीं हो सकता। कृतघ्नता का ऐसा भयावह सत्य व स्वरूप, मेरी समझ से परे है, यह मुझे मेरी अपनी असुविधा से कहीं अधिक पीड़ादायक लगता है।
शाम को जब यात्रियों के बढ़ते आक्रोश को देखकर उच्चाधिकारी वहाँ पहुँचे। मैंने ऊँची और स्पष्ट आवाज़ में उन अधिकारियों से कहा कि, “आपकी लापरवाही, निकम्मापन और संवेदनहीनता के कारण यहाँ उपस्थित अनेक लोग पल भर में अपने प्राणप्रिय भारतवर्ष को गाली दे रहे हैं।
आपकी ही अव्यवस्था ने इन कृतघ्न लोगों को प्रभु श्रीराम और अपने राष्ट्र के बारे में असभ्य भाषा बोलने का अवसर दिया है। यदि यह सामान्य परिस्थिति होती, तो मैं बताता कि हमारे आराध्य और हमारे राष्ट्र के विषय में सार्वजनिक रूप से कैसी भाषा का प्रयोग किया जाता है? यहाँ कई लोग ऐसे भी हैं जो अपनी कुंठा या फ्रस्ट्रेशन निकालने के लिए आप जैसे असंवेदनशील अधिकारियों व अव्यवस्था की प्रतीक्षा में रहते हैं।”

अब इसे मेरे वॉलेंटियर-भाव का उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रभाव मानें या इतनी अराजक स्थिति के बीच भी भारतवर्ष व प्रभु श्रीराम के प्रति मेरे स्वाभाविक व निर्भीक उद्गार का असर कि इतना अवश्य हुआ कि भारत और प्रभु श्रीराम पर प्रतिकूल टिप्पणी करने वाले, उसके बाद अगले तीन घंटे शांत रहे। प्रधानमंत्री के विषय में बोलते हुए भी उन्होंने भाषा की गरिमा का ध्यान रखा और भारतवर्ष या प्रभु श्रीराम के बारे में तो उन्होंने सावधानी बरती ही……..!
परंतु उनके चुप हो जाने भर से समस्या का समाधान नहीं हो जाता! प्रश्न इससे बड़ा है, कौन हैं ये लोग, जो हर छोटी-बड़ी समस्या या अव्यवस्था पर प्रधानमंत्री को कोसते हैं, उन्हें जिम्मेदार ठहराते हैं, और तो और उन्हें मत देने वाले नागरिकों की समझ पर सवाल खड़े करते हैं? बल्कि कई तो प्रधानमंत्री से आगे हिंदू आस्था, हिंदू अस्मिता, हिंदू मानस को धिक्कारने लगते हैं।
और ऐसा भी नहीं है कि धिक्कारने वाले सभी लोग किसी भिन्न मज़हब-रिलीजन के ही हों! उनकी घृणा इस सीमा तक बढ़ चली है कि उन्हें भारत व भारतीयता को प्रतिबिंबित करने वाले हर प्रतीक-पहचान से आपत्ति है? कौन हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं इतनी घृणा, आपदा-अव्यवस्था को वे एक अवसर-उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।
– प्रणय कुमार
शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार
अंत में एक बात याद आती है। स्वामी विवेकानंद ने यद्यपि बृहद परिप्रेक्ष्य में कहा था, परन्तु छोटी छोटी घटनाएं ही राष्ट्र को बनाती हैं। उन्होंने कहा था,
“राष्ट्रीय जीवनरूपी यह जहाज लाखों लोगों को जीवनरूपी समुद्र के पार करता रहा है। और इसकी सहायता से लाखों आत्माएं इस संसार के उस पार अमृतधाम में भी पहुंची हैं। पर शायद तुम्हारे ही दोष से उसमें कुछ खराबी आ गई है, इसमें एक दो छेद हो गए हैं, तो क्या तुम इसे कोसोगे? संसार में जिसने तुम्हारा सबसे अधिक उपकार किया है, उसके विरुद्ध खड़े होकर उसके विरुद्ध गाली बरसाना क्या तुम्हें उचित लगता है? यदि हमारे इस समाज के राष्ट्रीय जीवन रूपी जहाज में छेद हैं, तो हम उसकी संतान हैं, आओ चलें उन छेदों को बंद कर दें। उसके लिए हंसते हंसते रक्त बहाएं, और यदि हम ऐसा ना कर सकें तो हमें मर जाना ही उचित है।’ – स्वामी विवेकानंद

