Wednesday, December 3, 2025

भारत की व्यवस्थित अव्यवस्था और पश्चिम की अव्यवस्थित व्यवस्था

भारत

भारत की सड़कों, चौराहों, गलियों, मंडियों और रोज़मर्रा की हलचल में जो अव्यवस्था दिखाई देती है, वह वास्तव में अव्यवस्था नहीं है। वह एक प्रकार की संगठित लय है।

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पश्चिम से आए किसी पर्यटक को यह दृश्य अराजक लगता है, पर भारत के लोग जानते हैं कि यह लयबद्ध अव्यवस्था है, जिसके नीचे एक गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था सांस ले रही है। इस विरोधाभास को समझे बिना भारत को समझना असंभव है।

भारत की अव्यवस्था का सौंदर्यबोध और पश्चिम की व्यवस्था का अकेलापन

भारत को अक्सर chaotic कहा जाता है, और पश्चिम को organised। पर यह किस अर्थ में chaotic और organised हैं, इसकी तह में जाएं तो पता चलता है कि यहाँ समस्या शब्दों में नहीं, दृष्टि में है।

पश्चिम की सुव्यवस्था भौतिक है, पर संबंधों में अव्यवस्था है। भारत की अव्यवस्था भौतिक है, पर सामाजिकता में अपूर्व सुव्यवस्था है। यही मूल भेद है।

भारत को देखने वाला विदेशी यह कहता है कि यहाँ भीड़ है, हॉर्न हैं, शोर है, भागदौड़ है, पर कोई अनिश्चित भय नहीं है। यह अव्यवस्थित-सी दिखने वाली दुनिया एक गहरे धार्मिक मानस के कारण सुरक्षित, संरक्षित और संतुलित है।

वह मानस जिसे हमारे शास्त्र ‘धारण’ कहते हैं। धारण का अर्थ, सबको धारण करने वाली वृत्ति, जो समाज को भीतर से जोड़े रखती है।

भारत का चौराहा: अव्यवस्थित नहीं, सामाजिक बुद्धि का विद्यालय

कनाडा का एक ब्लॉगर लिखता है कि भारत में गाड़ियाँ अस्तव्यस्त चल रही हैं, पर वे टकराती नहीं। लोग हॉर्न देते हैं, पर झगड़ते नहीं।

दो वाहन आमने-सामने आए तो कोई एक पल में रुक कर रास्ता छोड़ देता है। वह इसे ‘chaotic harmony’ कहता है, पर यह केवल ट्रैफिक का नहीं, संस्कृति का प्रतिबिंब है।

भारतीय मनुष्य प्रतियोगिता करता है, पर विद्वेष नहीं रखता। वह आगे निकलना चाहता है, पर सामने वाले को मिटा कर नहीं। यही कारण है कि भीड़ में भी भारतीय समाज हिंसक नहीं होता।

यहाँ टकराव सम्भव है, पर प्रायः टल जाता है, क्योंकि भीतर की वृत्ति यह है, सब चलेंगे, सब निकलेंगे, सब जाएंगे।

संस्कृति का यह भाव हमारे लोकगीतों, पुराणों और मनोविज्ञान तक फैला है। किसी भी भारतीय से मार्ग पूछिए, वह पहले शंका करेगा, पर यदि आपने समाज से सहायता मांगी तो यह सहायता उसका कर्तव्य बन जाती है। यही धर्म का सामाजिक रूप है।

पश्चिम की व्यवस्था: सुव्यवस्थित इमारतें, पर बिखरे हुए लोग

वैनकुअर में रहने वाला व्यक्ति बताता है कि वहां सड़कें साफ़ हैं, ट्रैफिक अनुशासित है, पर कोई भी अनजान व्यक्ति अचानक आपके सामने खड़ा होकर आपको गाली दे सकता है।

कोई पागलपन में हमला कर सकता है। कोई नस्ल के नाम पर आपको धमका सकता है। बस में बैठे हों तब भी कोई आपको टार्गेट कर सकता है।

यह क्यों? क्योंकि पश्चिम का समाज भौतिक रूप से व्यवस्थित है, पर भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप से असंगठित। लोग एक-दूसरे से अलग थलग। समुदाय का अभाव। अकेलापन हर जगह। जहां नियम हैं, पर रिश्ते नहीं। जहाँ कानून है, पर बंधुत्व नहीं।

भारत के सार्वजनिक जीवन में अनिश्चितता कम और विश्वास ज्यादा है, पश्चिम में व्यवस्था अधिक और विश्वास कम। यही अंतर समाज के संकट को जन्म देता है।

भारतीय मानसिकता: अव्यवस्था में भी करुणा और एकात्मता

भारत में कोई आपको विदेशी समझकर सड़क पर प्रताड़ित नहीं करेगा। यहाँ भीड़ में भी व्यक्ति असुरक्षित नहीं होता।

एक घटना गिने-चुने अपवाद हो सकती है, पर समाज की सामूहिक वृत्ति किसी को अपमानित करने की हिम्मत नहीं देती। हमारे समाज के भीतर एक अदृश्य अनुशासन है, अतिथि देवो भव, परोपकारो धर्मः, वसुधैव कुटुम्बकम्

यही कारण है कि हजारों वर्षों की परंपरा के बाद भी भारत में हिंसक भीड़ संस्कृति का वह रूप नहीं बन पाई जो पश्चिमी देशों में अक्सर दिखाई देता है।

यह मनोवृत्ति धर्म की देन है, जिसे संविधान भी स्वीकार करता है। अनुच्छेद 51A इसका संकेत देता है, करुणा, सहिष्णुता, बंधुत्व।

पश्चिम की व्यक्तिगतता बनाम भारत की सामूहिकता

पश्चिम ने व्यक्तिवाद को सर्वोच्च मूल्य बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज टूट गया। परिवार बिखर गए। अकेलेपन का संकट गहरा गया। भारत में व्यक्ति का विकास समुदाय के भीतर होता है।

यहाँ गृहस्थाश्रम से लेकर तीर्थयात्रा तक सामाजिक हैं। भौतिक अव्यवस्था के बावजूद भावनात्मक और सांस्कृतिक सुव्यवस्था है।

भारतीय समाज की यह संरचना सदियों में बनी है। यह केवल परंपरा नहीं, एक परीक्षण की हुई सभ्यता है।

भारत को क्या करना चाहिए: आंतरिक संगठन को संरक्षित रखते हुए बाहरी सौंदर्यबोध बढ़ाएँ

भारत को पश्चिम से जो एक ही चीज़ लेनी है, वह है बाहरी सौंदर्यबोध। यहाँ ’व्यवस्थित बनाने’ का अर्थ ‘uniformity’ नहीं है। भारतीय सौंदर्य की मूल अवधारणा है, अंतः संतोष और बाह्य सौंदर्य दोनों एक-दूसरे को पूरक बनें।

हमारी संस्कृति की आत्मा एकात्मता, सर्वकल्याण और करुणा में है। इस आंतरिक व्यवस्था को छेड़ना भारत की आत्मा को आघात पहुँचाना होगा। पर बाहरी स्वरूप को सुंदर, स्वच्छ, लयबद्ध बनाना आवश्यक है।

भारत की शक्ति इस द्वैत में है,
अंदर से आध्यात्मिक, बाहर से प्रगतिशील।
भीतर से संबंधों से भरा, बाहर से आधुनिक।
भीतर धर्म का आधार, बाहर सौंदर्य का विस्तार।

भारत को अव्यवस्थित कहने वाले भारत को केवल देख रहे हैं, समझ नहीं रहे। भारत को chaotic कहने वाले उसके भीतर की लय, धैर्य, सहजता, एकात्मता और सांस्कृतिक संगठन को नहीं पढ़ रहे।

यह भूमि अव्यवस्थित नहीं, जीवंत है। यहाँ नियम कड़े नहीं, पर रिश्ते मजबूत हैं। यहाँ सड़कें तंग हैं, पर मन विशाल।

भारत को जिस सुव्यवस्था की आवश्यकता है, वह केवल बाहरी रूप में है। अंदर की व्यवस्था, धर्म, करुणा, सहअस्तित्व, उसे कभी नहीं छूना है।

यही भारतीय सभ्यता की चिरंतन शक्ति है, जो आज भी इसे सुरक्षित, जीवंत और स्थिर बनाए हुए है।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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