बिहार 2025 चुनाव: बिहार की सियासत एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर है। नीतीश कुमार, जिन्होंने अपने राजनीतिक करियर में कई बार पाला बदला, अब एक बार फिर से भाजपा के साथ हैं।
जनवरी 2024 में एनडीए में उनकी वापसी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि वे भारतीय राजनीति के सबसे लचीले नेता हैं।
ऐसा करने के पीछे हमेशा से उनका एक ही तर्क रहा है। वो कहते हैं कि वो “बिहार के विकास के लिए” करते हैं। लेकिन जनता अब इस कथन को बार-बार सुनकर थक चुकी है।
बिहार में विकास के वास्तविक आंकड़े वहीं के वहीं हैं, और बिहार की जनता यह समझ चुकी है कि “विकास” अब एक राजनीतिक नारा भर बन गया है। किसी को भी वास्तविक जनता के मुद्दों से लेना-देना नहीं रह गया है।
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बिहार 2025 चुनाव: भाजपा की परीक्षा, सत्ता की नहीं, धैर्य की
बिहार 2025 चुनाव: भाजपा के लिए 2025 का चुनाव केवल सत्ता प्राप्ति का नहीं, बल्कि राजनीतिक धैर्य और स्थायित्व की परीक्षा है।
नीतीश कुमार की वापसी भाजपा की रणनीतिक मजबूरी थी। कुर्मी–कोयरी जैसे ओबीसी वर्ग अब भी जेडीयू के साथ हैं, और भाजपा को पता है कि बिहार में जातीय समीकरणों के बिना जीत हासिल करना मुश्किल है।
भाजपा के इस कदम से पार्टी के कार्यकर्ताओं में एक असंतोष पैदा हो गया है। नीतीश के बार-बार के ‘यू-टर्न’ से भाजपा का ग्राउंड लेवल मनोबल प्रभावित हुआ है।
भाजपा बने बिहार में दांव इस बार मोदी के नेतृत्व और केंद्र सरकार की योजनाओं को मुद्दा बनाकर खेला है। पार्टी का फोकस भीड़ साफ़ है। “विकसित भारत, विकसित बिहार” का नारा देना और भारत में मोदी के चेहरे की लोकप्रियता को वोट में बदलना।
राजद की मुश्किलें, विरासत और नेतृत्व के बीच खींचतान
बिहार 2025 चुनाव: राजद के लिए यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई बनकर आया है। तेजस्वी यादव, जिन्हें कभी बिहार की नई उम्मीद माना गया था, अब अपने ही विरासत के बोझ तले दबे दिखाई देते हैं।
उनका पारंपरिक ‘माई समीकरण’ (मुस्लिम–यादव) अब जमीनी तौर पर उतना प्रभावी नहीं रहा। नई पीढ़ी रोजगार, शिक्षा और विकास की राजनीति चाहती है, न कि 90 के दशक के ‘सामाजिक न्याय’ के नारों को।
लालू यादव की ‘जंगलराज’ वाली छवि अब भी तेजस्वी के साथ जुड़ी हुई है, जिससे वो अपनी नई पहचान नहीं बना पा रहे। राजद–कांग्रेस–वाम गठबंधन की राजनीति भी वैचारिक कम और सुविधा-आधारित ज्यादा है। उनका एजेंडा सिर्फ “भाजपा हटाओ” तक सीमित है, लेकिन “क्या लाओ” इसका कोई स्पष्ट जवाब वो खुद भी नहीं ढूंढ पाए हैं।
जातीय समीकरण, बिहार की राजनीति की धुरी अब भी अडिग
बिहार 2025 चुनाव: बिहार में राजनीतिक भाषण तो बदलते हैं, पर जाति की गणित नहीं। भाजपा लगातार अति पिछड़े वर्गों (EBCs) और दलितों को केंद्र की कल्याण योजनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रही है। यहाँ जातीय समीकरण हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है। उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास योजना, हर घर जल, पीएम किसान जैसी योजनाएँ इसका आधार हैं।
वहीं, जेडीयू का पारंपरिक समर्थन कुर्मी–कोयरी समुदायों में है, जबकि राजद यादव–मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर है।
छोटे दल जैसे चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा के गुट भी कुछ सीटों पर खेल पलट सकते हैं।
खासकर चिराग पासवान की “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” लाइन युवा मतदाताओं में लोकप्रिय हो रही है, और भाजपा इस प्रभाव को रणनीतिक सहयोग के रूप में भुना सकती है।
मोदी का चेहरा और वेलफेयर पॉलिटिक्स
बिहार 2025 चुनाव: भाजपा की पूरी रणनीति दो स्तंभों पर टिकी है। नरेंद्र मोदी का करिश्माई नेतृत्व और केंद्र सरकार की वेलफेयर योजनाएँ।
मोदी की रैलियो के भाषण एक ही संदेश के साथ लिखे जायेंगे। “बिहार ने भारत को ताकत दी, लेकिन भारत ने बिहार को उसका हक कब दिया?” यही एमोशना; कार्ड खेलकर भाजपा बिहार में अपनी राजनीती साधेगी।
भाजपा इस भावनात्मक अपील के जरिए बिहार को केवल क्षेत्रीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आकांक्षाओं से जोड़ने की कोशिश कर रही है।
यह चुनाव भाजपा के लिए “लालू–नीतीश मॉडल” बनाम “मोदी मॉडल” की स्थिरता और डिलीवरी का मुकाबला बन चुका है।
जनता निराश- संशय, थकान और असमंजस
बिहार 2025 चुनाव: बिहार की जनता अब “जनादेश की थकान” से गुजर रही है।
लगातार बदलते गठबंधन, अधूरे वादे और विकास की लटकती तस्वीर ने मतदाताओं को असमंजस में डाल दिया
है।
लोग बदलाव तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें परिवर्तन का जोखिम उठाने से डर लगता है।
क्या नीतीश कुमार की पलटी राजनीति को जनता एक बार फिर माफ करेगी? क्या भाजपा अब बिहार में अकेली पहचान बनाने का साहस दिखाएगी? और क्या राजद अपने सामाजिक आधार से बाहर निकल पाएगा, ये सवाल अब भी खुले हैं।
बिहार 2025 चुनाव: 2025 का बिहार चुनाव धैर्य की सबसे बड़ी परीक्षा है। जनता के धैर्य की, भाजपा की रणनीति की और नीतीश कुमार की राजनीतिक सहनशक्ति की।
संभावना यही है कि परिणाम फिर से अधूरे बहुमत की ओर झुकें, जिससे एक बार फिर “मजबूरी का गठबंधन” बने।
पर बिहार की असली चुनौती यही है। जनता बदलाव चाहती है, लेकिन हर बार वही पुराने समीकरण उसके फैसले को बांध देते हैं।
अब देखना यह है कि 2025 में बिहार वास्तव में नई दिशा चुनता है या फिर एक और राजनीतिक चक्रव्यूह में फँस जाता है।