बाराबंकी में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं की बेरहम पिटाई के बाद अब नेताओं की खानापूर्ति जारी है।
दोनों उपमुख्यमंत्री समेत बड़े-बड़े नेता केजीएमसी पहुँचकर घायल छात्रों का हालचाल ले रहे हैं और सोशल मीडिया पर सहानुभूति भरी तस्वीरें डाल रहे हैं।
लेकिन असली सवाल यह है कि जिस ब्यूरोक्रेट के आदेश पर पुलिस ने जानबूझकर लाठियां चलाईं, वह साफ-साफ बच निकला।
कार्यवाही के नाम पर केवल पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया गया, जो महज आदेशों का पालन कर रहे थे। नौकरशाही की यह ढाल पूरी तरह कारगर साबित हुई।
संगठन के बड़े पदाधिकारी कई तरह के बंधनों में बंधे होते हैं। वे न तो पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और न ही खुलकर लिख-बोल सकते हैं। कई बार मजबूरी में बयान से पीछे हटना पड़ता है।
इसका अर्थ यह नहीं कि वे छात्रों के साथ नहीं हैं, बल्कि संकेत स्पष्ट है कि निशाना किसे बनाना चाहिए।
विद्यार्थियों को उठानी होगी आवाज
दुर्भाग्य से छात्र उस ब्यूरोक्रेट पर सवाल उठाने के बजाय अपने ही पदाधिकारियों पर आरोप मढ़ रहे हैं। यह उनकी कमजोर समझ और दिशा भ्रम को दिखाता है।
असल लड़ाई सत्ता के गलियारों में बैठे उस अफसर से है जिसने यह पूरा कांड कराया।
चौंकाने वाली बात यह है कि 20-22 साल की उम्र के छात्र डर-डरकर बयान दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि चुप्पी साधने से कुछ हासिल होगा।
हकीकत यही है कि डरने से कभी अधिकार नहीं मिलते। निडर होकर लिखने-बोलने से ही कुछ हासिल किया जा सकता है।
अगर उससे भी कुछ हाथ न लगा तो कम से कम निडरता और सच बोलने की आदत तो मिलेगी ही। यही छात्र आंदोलन की असली पूंजी है, जिसे डर और भ्रम में खोने नहीं देना चाहिए।

