Tuesday, November 11, 2025

बच्चियों पर अत्याचार: डर, दहशत और टूटती इंसानियत — न्याय कब मिलेगा?

बच्चियों पर अत्याचार: देश के कई हिस्सों से लगातार सामने आ रही दर्दनाक घटनाएँ न सिर्फ़ समाज की संवेदनशीलता पर सवाल उठाती हैं, बल्कि यह भी साबित करती हैं कि भारत में बढ़ते बाल यौन शोषण की गंभीरता अब भयावह स्तर पर पहुँच चुकी है।

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कुछ वहशी दरिंदों ने इंसानियत की हर सीमा पार करते हुए कुछ महीनों की मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ा, और हर नई घटना के बाद यह सवाल और तेज़ हो जाता है कि आखिर कब रुकेगा यह अत्याचार, कब मिलेगा पीड़ित परिवारों को न्याय, और कब जागेगा वह समाज जो रोज़ाना इन भयावह ख़बरों को पढ़कर सिर्फ़ सहम कर रह जाता है।

बच्चियों पर अत्याचार: मासूम बच्ची पर अत्याचार से दहल जाता है समाज

बच्चियों पर अत्याचार: जिस उम्र में एक बच्ची दुनिया को पहचानना भी शुरू नहीं करती, उसी उम्र में उसका दर्द और चीखें हमें यह अहसास कराती हैं कि बच्चियों पर बढ़ते अपराध सिर्फ अपराध नहीं बल्कि हमारी व्यवस्था, नीति और सामाजिक चेतना की असफलता का प्रमाण बन चुके हैं।

उसकी टूटती हुई मासूमियत हमारी इंसानियत को कटघरे में खड़ा करती है, और इस बात की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि सिर तो हम सबका शर्म से झुक जाता है, लेकिन सिस्टम का सिर झुकता नहीं दिखता। न्याय का पहिया जितना धीमा घूमता है, अपराधियों का हौसला उतना ही बढ़ता हुआ दिखाई देता है।

बच्चियों पर अत्याचार: डर सिर्फ़ एक भावना नहीं, बल्कि हर घर की दिनचर्या का हिस्सा है

हर घर में माता-पिता अपने बच्चों—चाहे बेटी हो या बेटा—को बाहर भेजने से पहले दुआओं में लिपटी चिंता के साथ छोड़ते हैं।

पार्क में खेलती बच्ची, स्कूल जाती छात्रा, सड़क पर चलती महिला और यहाँ तक कि गोद में लेटे बच्चे तक के लिए लोगों के मन में यह डर बैठ गया है कि कहीं कोई दरिंदा उनकी मासूमियत न छीन ले।

यह भय सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक दहशत है, और यह दहशत तब और गहरी हो जाती है जब समाज देखता है कि अपराधी को सज़ा से ज़्यादा आसानी समाज में जगह मिलती है।

अपराधी बेख़ौफ़ हैं क्योंकि उन्हें पता है कि न्याय प्रक्रिया बेहद धीमी है

बच्चियों पर अत्याचार: हमारे देश में कई मामलों में देखा गया है कि बाल यौन शोषण जैसे घृणित अपराध के बाद भी केस वर्षों तक अदालतों में लटका रहता है।

जाँच की धीमी गति, कमजोर आरोप-पत्र, गवाहों का टूटना और सामाजिक दबाव—ये सब मिलकर अपराधी के मन में एक खतरनाक विश्वास पैदा करते हैं कि “मुझे कुछ नहीं होगा।”

यही विश्वास उसे इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन बना देता है, और यही कारण है कि child safety in India आज एक गंभीर राष्ट्रीय चिंता बन चुकी है।

बच्चियों पर अत्याचार: हर परिवार के दिल में एक जैसा जलता हुआ सवाल

कब खत्म होगी यह दहशत?
कब मासूम बच्चे बिना डर के खेल पाएँगे?
कब सड़कें और मोहल्ले सुरक्षित कहलाएँगे?
और सबसे बड़ा प्रश्न—कब इन दरिंदों को सज़ा का वास्तविक और तत्काल डर महसूस होगा?

हर बार जब कोई नई घटना सामने आती है, ऐसा लगता है मानो हम कुछ और पीछे चले गए हों।

असल तरक्की तब होगी जब सुरक्षा को प्राथमिकता मिलेगी

बच्चियों पर अत्याचार: देश चाहे कितनी भी तरक्की की योजनाएँ बना ले, सच यह है कि असली प्रगति तभी कहलाएगी जब—

कोई बच्ची बिना भय के हँस सके,

कोई महिला बिना डर के रात में सड़क पर चल सके,

और हर अपराधी को स्पष्ट संदेश मिले कि
“किसी मासूम को चोट पहुँचाई तो उसकी ज़िंदगी हमेशा के लिए खत्म।”

अब बदलाव का समय नहीं—बदलाव की आवश्यकता अत्यधिक अनिवार्य हो चुकी है

यह दर्द सिर्फ़ एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक कठोर चेतावनी है। अगर समाज, सरकार, प्रशासन और न्यायिक प्रणाली ने अभी भी अपनी गति और संजीदगी नहीं बदली, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए हम एक ऐसी दुनिया छोड़ जाएँगे जहाँ सुरक्षा एक सपना बनकर रह जाएगी।

और याद रखिए—
अगर हम चुप रहे, तो हमारी खामोशी भी इस अपराध का हिस्सा बन जाएगी।

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