Wednesday, December 17, 2025

करमजीत सिंह को अकाल तख्त ने घोषित किया तनखैया, हम हिन्दू नहीं किताब बांटने का आदेश

अकाल तख्त ने गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ करमजीत सिंह को तनखैया घोषित किया। आदेश यह कि वे हरमंदर साहिब में दो दिन सेवा करें, नितनेम पढ़ें, प्रसाद चढ़ाएँ और भाई कन्हा सिंह नाभा की पुस्तक हम हिंदू नहीं पढ़कर उसकी पाँच सौ प्रतियाँ बाँटें।

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यह सब उस टिप्पणी के बदले जिसमें उन्होंने गुरु नानक की विचारधारा को ऋग्वेद की परंपरा से जोड़ने की बात कही थी। उन्होंने सार्वजनिक क्षमा पहले ही दे दी थी, पर दंड फिर भी लागू हुआ। यही घटना आज के भारत के सामने तीन बेहद सीधे प्रश्न खड़े करती है।

धार्मिक दंड और नागरिक की स्वतंत्रता में टकराव

अकाल तख्त की तनखैया व्यवस्था सिख परंपरा का आंतरिक अनुशासन मानी जाती है। पर जब इसी दंड का पालन एक राज्य विश्वविद्यालय का कुलपति कर रहा हो, तब यह आस्था की सीमा पार कर नागरिक अधिकार के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।

भारतीय संविधान दंड और न्याय का अधिकार केवल राज्य को देता है। कोई धार्मिक संस्था किसी नागरिक पर दंडादेश लागू नहीं कर सकती।

यह घटना बताती है कि धार्मिक सत्ता धीरे धीरे संवैधानिक क्षेत्र में घुसपैठ कर रही है और राज्य इस पर मौन है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो भारत में समान नागरिकता औपचारिक शब्द भर रह जाएगी।

गुरुद्वारा परंपरा की समावेशी प्रकृति पर उठे सवाल

डॉ करमजीत को जिस पुस्तक की पाँच सौ प्रतियाँ बाँटने को कहा गया, उसका शीर्षक खुद एक विभाजन रेखा खींचता है। सिख पहचान का सम्मान अलग बात है, लेकिन इसे धार्मिक दंड का आधार बनाना दूसरी बात है। भारत के लाखों हिंदू गुरुद्वारों में भक्तिभाव से जाते हैं।

उनके साथ कभी पहचान आधारित भेदभाव नहीं रहा। पर जब संस्थागत संदेश यह होगा कि हम हिंदू नहीं की धारा को व्यापक किया जाए, तब यह स्वाभाविक प्रश्न उठेगा कि कल को गुरुद्वारों में आने वाले हिंदुओं से भी उनकी पहचान पर सवाल किए जाएँगे क्या। समावेश को हटाकर पहचान आधारित कठोरता लाई जाती है तो समाज का ताना बाना टूटता है।

धार्मिक अदालतें बनाम संवैधानिक न्यायालय

भारत में सुप्रीम कोर्ट अंतिम न्यायिक संस्था है। परंतु वास्तविकता यह है कि कई धार्मिक ढाँचे पहले से ही दंडात्मक भूमिकाएँ निभाते रहे हैं। देवबंद फतवे देता है, चर्च अनुशासन लागू करता है, अब अकाल तख्त भी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तक पर दंड तय कर रहा है।

यह सब समानांतर न्याय व्यवस्था है जिसे संविधान मान्यता नहीं देता। पर राजनीति इन संस्थाओं को चुनौती न देकर उनकी स्वायत्त दंड-सत्ता को मजबूत करती जा रही है। इससे भारतीय राज्य कमजोर पड़ता है और धार्मिक ढाँचे देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में सेंध लगाते हैं।

विचार प्रकट करने पर दंड का खतरनाक चलन

डॉ करमजीत ने केवल इतना कहा कि गुरु नानक की विचारधारा को वैदिक परंपरा के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। यह मतभेद का विषय हो सकता है, दंड का विषय नहीं। भारतीय चिंतन परंपरा में मतभेद को दंडित नहीं किया जाता, बल्कि उस पर बहस होती है।

इतिहास में कबीर, दादू, रविदास, विवेकानंद, दयानंद, शंकराचार्य, रामानुज जैसे संत और विचारक किसी धार्मिक सत्ता से अनुमति लेकर नहीं बोलते थे। आज जब संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, तब विचार प्रकट करने पर धार्मिक दंड देना सीधा संकेत है कि आधुनिक भारत बौद्धिक स्वतंत्रता से पीछे हट रहा है।

भारत की दिशा का निर्णायक मोड़

इन तीन प्रश्नों का उत्तर केवल वर्तमान विवाद तक सीमित नहीं है। यह तय करेगा कि भारत आगे क्या बनेगा। क्या भारत समान नागरिकता वाला आधुनिक राष्ट्र रहेगा, या धार्मिक संस्थान दंड और अनुशासन के नाम पर धीरे धीरे संवैधानिक ढाँचे को किनारे करते जाएँगे।

क्या गुरुद्वारे वही समावेशी परंपरा बने रहेंगे, या पहचान आधारित राजनीति उन पर हावी हो जाएगी। और क्या भारतीय समाज विचार की स्वतंत्रता को महत्व देगा, या धार्मिक आदेशों को अंतिम सत्य मानने लगेगा।

अकाल तख्त का यह निर्णय एक अलग घटना नहीं बल्कि एक संकेत है। यह संकेत बताता है कि आने वाले वर्षों में धार्मिक सत्ता और संवैधानिक व्यवस्था के बीच संघर्ष और तीखा होगा। भारत को तय करना होगा कि वह किस पक्ष में खड़ा होगा।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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