Thursday, September 19, 2024

10 साल बाद एक बार फिर गठबंधन सरकार का दौर: 31 साल तक रही गठबंधन सरकारें

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पहले लोकसभा चुनाव 1952 से लेकर 2024 तक के चुनावी सफर में देश में करीब 31 साल गठबंधन द्वारा बनी सरकारों का दौर रहा है। 2014 से लेकर 2024 तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में NDA गठबंधन की सरकारें तो जरूर थी लेकिन वो कभी इन पर बहुमत के लिए निर्भर नहीं रही क्योंकि भाजपा के पास दोनों ही चुनावों में बहुमत से ज्यादा सीटें रही। बता दें कि 2014 और 2019 बीजेपी के 282 और 303 सीटें जीती थीं।

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सरकार चलाने और बनाने के लिए बीजेपी गठबंधन पर निर्भर नहीं थी, लेकिन 2024 में हुए चुनावों में भाजपा को बहुमत जितनी सीटें नहीं मिली। इस बार बीजेपी कि सीटें घटकर 240 ही रह गयी जिसके परिणाम स्वरुप इस बार भाजपा को सरकार बनाने के लिए गठबंधन पर निर्भर रहना होगा। इसका सीधा मतलब ये है कि देश में एक बार फिर गठबंधन का दौर शुरू होने जा रहा है।

पहली गठबंधन वाली सरकार कब बनी

1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार पहली गठबंधन वाली सरकार थी। इसके बाद 1989 में वीपी सिंह की नेतृत्व में  राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी। 1991 में कांग्रेस को 232 सीटें ही मिलीं, जिससे पीवी नरसिंह राव को कई पार्टियों पर निर्भर रहना पड़ा। 1996 के चुनाव के बाद सबसे बड़े दल भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री तो बने जरूर लेकिन बहुमत नहीं जुटा सके। गठबंधन में तालमेल ना बैठने के कारण उनकी सरकार मात्रा 13 दिनों में गिर गई।

एच डी देवेगौड़ा की नेतृत्व में 13 पार्टियों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, जिसे बाहर से कांग्रेस का समर्थन मिला हुआ था। 1996 से लेकर 2014 तक देश में गठबंधन सरकारों को लंबा दौर रहा। गठबंधन सरकारों ने आर्थिक सुधार के मामले में दिशा दिखाई, लेकिन लोगों की महत्वाकांक्षाओं की वजह से तालमेल में हमेशा कमी रही।

अब हम सबके मन में रहता है कि ये अनुभव आखिर कैसे रहा होगा ? आइये जानते हैं

1 : संयुक्त मोर्चा पार्टी : 1 जून, 1996 से 19 मार्च, 1998

NDA

इस दौरान देश ने दो प्रधानमंत्री देखे, पहले एच डी देवेगौड़ा और दूसरे इंद्रकुमार गुजराल। देवेगौड़ा ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी 13 दलों की संयुक्त मोर्चा सरकार संभाली थी। इसमें प्रमुख दल थे, सपा, द्रमुक, तमिल मनिला कांग्रेस, असम गण परिषद व टीडीपी। देवेगौड़ा सरकार में 1997 में चिदंबरम द्वारा पेश किए गए बजट में पावर ट्रिलर, खाद, और छोटे ट्रैक्टर की खरीद पर सब्सिडी दी। आयकर की दरें 15, 30 और 40 फीसदी से 10, 20 और 30 फीसदी कर दी गईं। कॉर्पोरेट टैक्स में सेस हटाया गया।वहीं देवेगौड़ा की जगह प्रधानमंत्री बनने वाले इंद्र कुमार गुजराल ने पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्तों को प्राथमिकता दी। इसे ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ का नाम दिया गया और ये आज भी इतिहास के पन्नों में एक बड़ा प्रसंग है।

कांग्रेस अध्यक्ष के लालसा के कारण गिरी थी ये सरकार :

देवगौड़ा की सरकार कांग्रेस की मेहरबानियों पर टिकी थी। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी की अति लालसा के कारण देवगौड़ा ने एक साल के अंदर – अंदर ही इस्तीफा दे दिया। ऐसा ही कुछ हाल रहा इंद्रकुमार का। राजीव गांधी की हत्या की जांच से जुड़े जैन आयोग की रिपोर्ट को कांग्रेस ने आधार बनाया। रिपोर्ट में घटक दल डीएमके पर उंगली उठाई गई थी। वैसे सरकार के आंतरिक झगड़े भी कम नहीं थे। चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव का नाम आना भी इस सरकार के गिरने की बड़ी वजह रही।

2 : एनडीए : 19 मार्च, 1998 से 22 मई, 2004

Mamata Banerjee

भाजपा का गठबंधन, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में दो सरकारें रही। इसमें भाजपा के साथ ही अन्नाद्रमुक, बीजद, अकाली दल, शिवसेना, टीएमसी और पीएमके जैसी पोलिटिकल दल शामिल थे। वाजपेयी ने ‘गठबंधन धर्म’ को महत्व दिया और सहयोगियों को समझते हुए आर्थिक व्यवस्था को सुधारा। उनकी सरकार ने दूरसंचार, बीमा क्षेत्र में सुधार किए, जिसके नतीजे आज हम सब के सामने हैं। आईटी क्षेत्र में भारत को ने दिशा दी।

ममता को मनाने खुद पहुंचे थे अटल जी :

वाजपेयी को अपने दो दल तृणमूल व अन्नाद्रमुक के कारण मुश्किलें आईं। तृणमूल नेता ममता बनर्जी उस समय रेलमंत्री थीं। वह पश्चिम बंगाल के कुछ बीमार सरकारी उपक्रमों को बंद करने से नाराज थीं। ममता को मनाने पहले वाजपेयी ने जॉर्ज फर्नांडीज को भेजा फिर खुद ममता से मिलने के लिए कोलकता गए।

अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिया चाहती थीं कि उनके खिलाफ दर्ज सभी मामले वापस लिए जाएं। बाद में उन्होंने नौसेना प्रमुख विष्णु भागवत की बर्खास्तगी को लेकर रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज को सरकार से हटाए जाने की मांग की। मांग नहीं माने जाने पर 1999 में जयललिता ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

3 : यूपीए सरकार (कांग्रेस) 22 मई, 2004 से 26 मई, 2014

UPA

यूपीए गठबंधन ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दो सरकारें चलायी। संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन (यूपीए) में कांग्रेस के साथ एनसीपी, राजद, द्रमुक, लोजपा, डीएमके, तृणमूल, जैसे कई दल शामिल रहे। यूपीए सरकार को वाम दलों का बाहर से समर्थन भी मिला हुआ था। इस सरकार में लोगों को संवैधानिक अधिकारों से संबंधित कई सुधार हुए। इसके लिए कई अहम कानून बनाए गए, जिनमें शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, वन अधिकार, खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण पुनर्वास व पुनर्स्थापन जैसे अधिनियम शामिल हैं।

द्रमुक अपनी इच्छानुसार बदलने लगी थी मंत्री :

मनमोहन सरकार पर शुरू से ही घटक जैसे दल हावी रहे , जिससे कई फैसले प्रभावित हुए। द्रमुक ने अपनी मर्जी से केंद्र में मंत्री बदला। पहले दयानिधि मारन संचार मंत्री थे। उनकी जगह बाद में द्रमुक के ए राजा को मंत्री बनाया। वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन 2004 से 2006 के दौरान तीन बार कोयला मंत्री बने, क्योंकि यह उनके मन को भाने वाला मंत्रालय था। यह स्थिति इसलिए बनी, क्योंकि सोरेन को कुछ पुराने मामलों के कारण मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। यूपीए-2 पर नीतिगत जड़ता के आरोप लगे और उसकी हार का कारण भी बना।

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