One Nation One Election: वन नेशन वन इलेक्शन बिल संसद में पेश हो चुका है, लेकिन आज हम आपको बताएंगे कि सरकार इस बिल को क्यों लागू करना चाहती है? क्यों है ये इतना जरूरी? वन नेशन, वन इलेक्शन’ के जरिए लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराया जाएगा। यानी वोटर्स को दोनों चुनावों के लिए अलग अलग मतदान करने की जरूरत नहीं पड़ेगी और वो एक ही बार में मतदान कर सकेंगे। वहीं सरकार का कहना है कि अलग अलग समय पर चुनाव कराने से बहुत सारे कामकाज ठप हो जाते है। ऐसे में सरकार का पैसा और वक्त दोनों बर्बाद होता है।
One Nation One Election: सभी परियोजनाएं होगी समय से पूरी
केंद्र सरकार का कहना है कि इस बिल से सरकार का कामकाज आसान हो जाएगा। वहीं देश में बार-बार चुनाव होने की वजह से आचार संहिता लग जाती है और सरकारी कामकाज अटक जाते है। जिससे देश में चल रहे विकास कार्य और परियोजनाएं बाधित होती है। सरकार का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ होने से वो इन कामों को समय से पूरा करा पाएगी।
एक रिपोर्ट में ऐसा दावा किया गया है कि इंडिया में 1952 से 2023 तक एक साल में लगभग 6 चुनाव हुए है। यह आंकडा सिर्फ लोकसभा और विधानसभा चुनावों का है। वहीं नगर निकाय और पंचायत चुनावों को शामिल कर लिया जाए तो हर साल होने वाले चुनावों की संख्या कई ज्यादा बढ़ जाएगी। यही नहीं दावा किया जा रहा है कि एक बार चुनाव कराने से पैसों की बचत होगी और इसमें संसाधनों को इस्तेमाल भी कम होगा और जो पैसा बचेगा उससे देश के विकास में खर्च किया जाएगा। इसके साथ ही एक साथ चुनाव कराने से वोटर्स के रजिस्ट्रेशन और लिस्ट तैयार करने में आसानी होगी। कम चुनाव होने से राज्यों पर भी वित्तीय बोझ भी नहीं पड़ेगा।
विपक्ष ने बिल को लेकर किया विरोध
इस बिल को पेश करने को लेकर विपक्ष का कहना है कि यह कानून भारत जैसे विशाल देश में संभव नहीं है। क्योंकि हर राज्यों की अलग- अलग चुनौतियां और उसके मुद्दे हैं। एक साथ चुनाव से वो प्रभावित होंगे। वहीं विपक्ष का कहना है कि सरकार लोगों के अधिकारों का हनन कर रही है। विपक्ष का कहना है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की संभावनाएं प्रभावित हो सकती हैं, क्योंकि वे स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता से उजागर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। विपक्ष का कहना है कि पैसे और चुनावी रणनीतियों के मामले में राष्ट्रीय पार्टियों से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं हो सकते।
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के पास सीमित संसाधन हैं, जबकि और दलों के पास संसाधन कम है। संशोधन बिल को संसद में पेश किया जा चुका है लेकिन इस संशोधन को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों और प्रमुख राजनीतिक दलों के द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। वन नेशन, वन इलेक्शन’ के लिए सबसे बड़ा चैंलेज कई राज्यों की विधानसभाओं की शर्तों को लोकसभा की शर्तों के साथ समन्वयित करना है। मीडिल चुनाव या राष्ट्रपति शासन जैसी स्थितियों में अगर कोई पार्टी बहुमत पाने नहीं पाती है तो उसे वन नेशन वन इलेक्शन के लागू होने के बाद कैसे निपटना होगा इस पर अब तक कोई क्लियरेंस नहीं है।
देश के सरकारी खजाने का बोझ होगा कम
ऐसा कहा जा रहा है कि एक साथ देश में चुनाव होने से सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा और जो पैसा बचेगा वह इंडस्ट्रियल ग्रोथ में लगेगा। वन नेशन, वन इलेक्शन लागू होने से देश की GDP भी एक से डेढ़ फीसदी तक बढ़ सकती है। वहीं पिछले चुनावों में हुए खर्चों के आधार पर expense की सीमा तय की जाती है। जानकारी के लिए बता दें कि देश आजाद होने के बाद पहला आम चुनाव 1951 में हुआ था, लगभग 18 करोड़ मतदाताओं में 10.5 करोड़ रुपये खर्च हुआ था। जो साल 2019 में बढ़कर 91.2 करोड़ हो गए। इलेक्शन कमीशन के अनुसार 2024 के चुनाव में 98 करोड़ मतदाताओं के नाम लिस्ट में जोड़े गए है।
कौन से चुनाव में कितना हुआ खर्च
इलेक्शन कमीशन के आकड़े पर निगाह डाली जाए तो जब मोदी सरकार 2014 में जब पहली बार सत्ता में आई थी तो इस चुनाव करीब 3870 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इससे पहले 2009 लोकसभा चुनाव में 1114.4 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। वहीं 2009 के मुकाबले में 2014 में चुनावी खर्च करीब तीन गुना बढ़ गया। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में खर्च करीब 6600 करोड़ रुपये का था।
2024 में संपन हुए चुनाव पर नजर डाले तो इस चुनाव में 1.35 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इसको लेकर एक रिपोर्ट का कहना है कि यह चुनाव काफी खर्चीला था। इस वजह से इस बार एक वोट की कीमत 1400 रुपये तक पहुंच गई है। वहीं 1951 में हुए चुनाव की बात करें तो उस वक्त एक वोट पर 60 पैसे खर्च की लागत आई थी।
देश का सबसे सस्ता चुनाव
देश में पहली बार जब 1951 में आम चुनाव हुए थे, तब करीब 17 करोड़ वोटर्स ने भाग लिया था। उस वक्त हर एक मतदाता पर 60 पैसे का खर्च आया था और कुल 10.5 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 6600 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जबकि कुल मतदाता की संख्या करीब 91.2 करोड़ थी। यानि प्रति वोटर 72 रुपये का खर्च था।
साल 2014 के चुनाव में प्रति मतदाता 46 रुपये का खर्चा आया था और 2009 में 17 रुपये प्रति वोटर और 2004 के चुनाव में 12 रुपये प्रति वोट आया था। ऐसे में अगर बात की जाये तो देश आजाद होने के बाद से अब तक का सबसे सस्ता चुनाव 1957 का था, जिसमें प्रति मतदाता के ऊपर 30 पैसे का खर्च आया था।