उत्तर प्रदेश भाजपा की धीमी होती रफ्तार और अंदरूनी ठहराव से बढ़ती सियासी बेचैनी
उत्तर प्रदेश भाजपा इस समय ठहराव के दौर से गुजर रही है। राष्ट्रीय नेतृत्व में बदलाव की प्रक्रिया बीच में ही रुक गई है, जिसके कारण प्रदेश संगठन में भी परिवर्तन अटक गए हैं।
कैबिनेट विस्तार की चर्चाएं भी लंबी खिंच गई हैं और सक्रिय नेता अब थकान महसूस करने लगे हैं।
अक्टूबर के पहले सप्ताह में महत्वपूर्ण निर्णय की संभावना जताई जा रही है, लेकिन हर बीतते दिन के साथ हालात बिगड़ते नज़र आ रहे हैं।
आयोग, निगम और नामित पद लंबे समय से खाली हैं, मगर उन पर भी नियुक्तियां अटकी हुई हैं। इस जड़ता ने कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल गिरा दिया है।
पिछड़ी जातियों का बदलता समीकरण और भाजपा की चिंता
प्रदेश की महत्वपूर्ण पिछड़ी जातियों का झुकाव तेजी से समाजवादी पार्टी की ओर बढ़ रहा है। लोधी समाज को छोड़ दें तो अधिकांश प्रभावशाली पिछड़ी जातियां भाजपा से दूर होती दिख रही हैं। यदि यही हाल रहा तो लोधी समाज भी सपा का रुख कर सकता है।
हालांकि सवर्ण और अति पिछड़े वर्ग अब भी भाजपा के साथ मजबूती से खड़े हैं। दूसरी ओर, दलित समाज का बड़ा हिस्सा बीते चुनाव में पहले ही सपा को समर्थन दे चुका है।
सपा 2027 में सामान्य सीटों पर भी दलित प्रत्याशी उतारने की योजना बना रही है, जिससे भाजपा की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं।
भविष्य भाजपा और बसपा के संबंधों पर टिका है। यदि दोनों का गठबंधन होता है तो सपा की संभावित वापसी थम जाएगी। लेकिन यदि मायावती अकेले चुनाव लड़ती हैं और उनका मत प्रतिशत 10% से नीचे रह जाता है तो यह सपा के लिए बड़ा अवसर बन सकता है।
योगी सरकार पर ठाकुरवाद का आरोप और संगठन की चुनौती
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद के आरोपों ने उनकी छवि को आंशिक नुकसान पहुंचाया है।
हालांकि विधायक और संभावित उम्मीदवारों के सर्वे में यह आरोप सोशल मीडिया जितना असरदार दिखाई नहीं दे रहा है। बावजूद इसके, इसे सपा जमीन पर मुद्दा बना सकती है।
कुछ अति-समर्थक योगी को ‘हिंदू नेता’ के बजाय ‘ठाकुर नेता’ के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे उनकी छवि संकुचित हो सकती है।
यदि उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन ने समय रहते इन पर लगाम नहीं लगाई तो यही लोग भविष्य में सपा के अप्रत्यक्ष सहयोगी साबित हो सकते हैं।
जातिगत जनगणना और आरक्षण का बढ़ता विवाद
उत्तर प्रदेश भाजपा के पास अब भी कुछ महत्वपूर्ण दांव बचे हैं, जिनमें सबसे अहम है जातिगत जनगणना।
यह मुद्दा चुनाव से ठीक पहले उठेगा और समाज में आरक्षण को लेकर नई बहस छेड़ेगा। यह संभावना है कि आरक्षण की सीमा 60% से ऊपर ले जाने की मांग तेज होगी।
पिछले तीन दशकों में आरक्षण 23% से बढ़कर 60% हो चुका है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सवर्ण समाज समझदारी न दिखाए तो यह और 25% तक बढ़ सकता है।
समाधान के रूप में सवर्णों के लिए 25% आरक्षण, क्रीमीलेयर की सख्त व्यवस्था और अतिपिछड़ों के लिए अलग कोटा प्रभावी विकल्प हो सकते हैं।
मगर फिलहाल सवर्ण समाज में इस मुद्दे पर गहन चिंतन का अभाव है। चुनाव से पहले यदि उत्तर प्रदेश भाजपा ने इस पर ठोस निर्णय नहीं लिया तो बड़ा राजनीतिक भूचाल आ सकता है। यह देखना होगा कि पार्टी सवर्ण असंतोष को संतुलित कर पाती है या नहीं।
बेलगाम नौकरशाही और भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजगी
प्रदेश में नौकरशाही पर नियंत्रण की कमी भाजपा के लिए चिंता का विषय बन चुकी है। जनता से वसूली और कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न की शिकायतें बढ़ रही हैं।
कई विधायकों का कहना है कि उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही, जिससे संगठन में असंतोष गहरा रहा है।
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री ने हाल में प्रशासन पर ध्यान बढ़ाया है। जनप्रतिनिधि अपने कार्य निकाल रहे हैं, लेकिन जनता के मामलों में लापरवाही का ठीकरा वे योगी पर फोड़ देते हैं।
यह स्थिति सरकार और संगठन दोनों के लिए नुकसानदेह है और सुधार की मांग कर रही है।
2027 का चुनाव और उत्तर प्रदेश भाजपा के सामने निर्णायक सवाल
उत्तर प्रदेश का 2027 विधानसभा चुनाव केवल प्रदेश की राजनीति ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी असर डालेगा।
उत्तर प्रदेश भाजपा को समय रहते संगठनात्मक ठहराव, जातिगत समीकरण, आरक्षण की राजनीति और नौकरशाही की बेलगाम प्रवृत्ति पर काबू पाना होगा।
पार्टी, संगठन और कार्यकर्ताओं को अब तत्काल कदम उठाने होंगे। यदि इन मुद्दों पर समाधान नहीं हुआ तो लगातार बिगड़ते हालात उत्तर प्रदेश भाजपा के भविष्य को गहरे संकट में धकेल सकते हैं। 2027 का चुनाव पार्टी की दिशा और दशा तय करने वाला साबित होगा।