भारत-अमेरिका डील पर रॉयटर्स का दावा और उसकी पृष्ठभूमि
अमेरिकी समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अपनी हालिया रिपोर्ट में भारत-अमेरिका के बीच असफल हुई डील के अंदरूनी घटनाक्रम का हवाला देते हुए कई बड़े खुलासे किए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, शुरुआत में दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडल को भरोसा था कि समझौता आसानी से हो जाएगा, विशेषकर भारत की ओर से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की अमेरिका यात्रा और अमेरिकी उपराष्ट्रपति के भारत दौरे के बाद।
भारत को लग रहा था कि राजनयिक संवाद की नींव मज़बूत हो चुकी है और यह प्रक्रिया बिना टकराव के संपन्न होगी।
लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा बार-बार भारत-पाक युद्ध को रोकने का श्रेय लेने के प्रयासों ने भारत को असहज कर दिया।
4रॉयटर्स का कहना है कि अमेरिका चाहता था कि भारत सार्वजनिक रूप से ट्रम्प की भूमिका को मान्यता दे।
अमेरिका के मैसेजिंग आग्रह से भारत की असहमति
रिपोर्ट में बताया गया कि अमेरिका का इरादा था कि इस डील को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए जिससे लगे कि ट्रम्प प्रशासन ने कोई बड़ी कूटनीतिक सफलता हासिल की है। भारत ने इस मांग को अपमानजनक माना और सख्ती से खारिज कर दिया।
दोनों पक्षों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या राष्ट्रपति ट्रम्प में से कोई एक पहल करेगा और वार्ता को समाप्त करेगा, लेकिन दोनों नेताओं की चुप्पी के कारण उच्च स्तरीय संवाद ठप हो गया।
इस विफलता के पीछे एक बड़ा कारण अमेरिका की “अमेरिका फर्स्ट” नीति रही, जिसके अंतर्गत वह अपने कृषि और डेरी उत्पादों को भारतीय बाजार में उतारना चाहता था।
भारत ने इसे अपनी संप्रभुता से जुड़ा विषय मानते हुए स्पष्ट इनकार कर दिया।
पाकिस्तान की सहमति और अमेरिकी प्रचार युद्ध
रॉयटर्स की रिपोर्ट से इतर, राजनयिक सूत्रों का कहना है कि अमेरिका ने पाकिस्तान पर भी वैसी ही शर्तें लागू की थीं, जिन्हें पाकिस्तान ने तुरंत स्वीकार कर लिया।
पाकिस्तान न केवल अमेरिकी मध्यस्थता को मान्यता दी बल्कि सैन्य प्रमुख आसिफ मुनीर ने वाइट हाउस का दौरा भी किया।
इसके बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया में यह ख़बर फैलायी गई कि पाकिस्तान में पेट्रोलियम खोजा गया है और अमेरिका उसे विकसित करेगा, जो कि ज़मीनी सच्चाई से दूर प्रतीत होता है।
यह पूरा घटनाक्रम अमेरिका की प्रचार-प्रधान रणनीति को उजागर करता है, जहाँ उसे कूटनीतिक सफलता की छवि पेश करनी होती है, भले ही उसके पीछे कोई ठोस उपलब्धि न हो।
पाकिस्तान ने अपनी परंपरागत निर्भरता में रहकर अमेरिका को वह स्पेस दे दिया जिसकी वह भारत से भी उम्मीद कर रहा था।
ट्रम्प के बयानों से भारत की रणनीतिक चिढ़
डोनाल्ड ट्रम्प की शैली भारत के लिए लगातार चुनौती बनती रही। भारत हमेशा कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा मानता है, लेकिन ट्रम्प ने अंतरराष्ट्रीय समाधान की बात कहकर पाकिस्तान के नैरेटिव को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इससे भारत की कूटनीतिक असहजता और भी बढ़ी।
जब भारत-पाक युद्ध का संकट मंडरा रहा था, तब अमेरिकी उपराष्ट्रपति ने भारत को पाकिस्तान के संभावित हमले की जानकारी दी, जिसे भारत ने भय के बजाय रणनीतिक अवसर में बदला और तीव्र जवाबी कार्रवाई की।
केवल दो घंटे के भीतर भारत ने पाकिस्तान के प्रमुख ठिकानों पर जवाबी हमला कर दिया, जिसमें किरना हिल जैसे संवेदनशील स्थल भी शामिल थे।
किरना हिल को लेकर विश्वास किया जाता रहा है कि 90 के दशक में यहाँ अमेरिका द्वारा परमाणु हथियार कार्यक्रम चलाया गया था, और आज भी वहाँ संवेदनशील अमेरिकी सामग्री संरक्षित हो सकती है।
ऐसे में भारत का यह आक्रामक उत्तर न केवल पाकिस्तान बल्कि अमेरिका को भी अप्रत्याशित और अप्रिय लगा।
अमेरिका की भाषा में संप्रभुता का अवमूल्यन
पिछले दो महीनों में ट्रम्प प्रशासन की भाषा और व्यवहार ऐसे रहे हैं जिससे यह संदेश गया कि भारत अमेरिका की तुलना में एक अधीनस्थ शक्ति है। इस व्यवहार ने भारत की रणनीतिक समुदाय और प्रशासन को असहज किया है।
हालाँकि अमेरिका की यह शैली केवल भारत तक सीमित नहीं रही। ट्रम्प प्रशासन ने लगभग एक-तिहाई दुनिया के देशों को दबाव में लेने की कोशिश की, लेकिन रूस, चीन, भारत और ईरान जैसे सांस्कृतिक और सामरिक रूप से मज़बूत राष्ट्रों ने इस दबाव को नकार दिया।
ईरान ने अमेरिका के तख्तापलट प्रयासों को भी असफल कर दिया, जिससे अमेरिकी रणनीतिक प्रतिष्ठान की हताशा और बढ़ी।
ब्रिक्स को नया जीवन देने वाले ट्रम्प?
ब्रिक्स समूह, जिसमें भारत, चीन, रूस, ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका शामिल हैं, बीते वर्षों में निष्क्रिय होता दिख रहा था।
लेकिन अमेरिका की ‘फर्स्ट पॉलिसी’ और दक्षिण अफ़्रीका व भारत के साथ जल्दबाज़ी में की गई गलतियों ने इस संगठन को फिर से सक्रिय कर दिया है।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की राय में, यदि ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार किसी विषय में मिलना हो तो वह इस बात के लिए मिलना चाहिए कि उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ के देशों को पहले से अधिक एकजुट कर दिया है।
यह एक ऐसा राजनीतिक व्यंग्य है जो उनके व्यवहार की आलोचना भी करता है और उसके दूरगामी परिणामों की गंभीरता को भी उजागर करता है।
भारत की चुप्पी, अमेरिका की बेचैनी
भारत और अमेरिका के बीच जो डील अधूरी रह गई, वह केवल व्यापारिक असहमति नहीं बल्कि वैचारिक असहमतियों की भी प्रतीक थी।
भारत ने स्पष्ट किया कि वह किसी बाहरी शक्ति से अपनी नीति, बाजार या संप्रभुता पर निर्देश नहीं लेगा।
ट्रम्प का एकतरफा मैसेज-निर्माण, पाकिस्तान के साथ डील, और भारत को संदेशविहीन छोड़े जाने की रणनीति ने न केवल भारत को नाराज़ किया बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत अब विश्व राजनीति में अपनी स्वतंत्र स्थिति को बनाए रखने के लिए तैयार है, भले ही कीमत कूटनीतिक असहमतियों की क्यों न हो।