जस्टिस पारडीवाला का विवाद और सुप्रीम कोर्ट की उलझन
सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों पर चल रही सुनवाई अब गहरी उलझन का रूप ले चुकी है।
अदालत ने साफ़ किया कि वह केवल राष्ट्रपति के रेफ़रेंस पर ही व्याख्या करेगी और पुराने मामलों पर विचार नहीं होगा।
लेकिन जस्टिस पारडीवाला की बेंच का पुराना फैसला अब अदालत के गले की हड्डी बन गया है।
जस्टिस पारडीवाला ने दो जजों की बेंच के साथ ऐसा निर्णय दिया जिससे राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका पर ही प्रश्नचिह्न लग गया।
उन्होंने आदेश दिया कि यदि राष्ट्रपति तीन महीने से अधिक किसी बिल को रोकते हैं तो उन्हें मजबूरी में उसे पास करना होगा।
अब पाँच जजों की बेंच इस विरोधाभासी स्थिति से निकलने का रास्ता खोज रही है।
संवैधानिक प्रश्न और उठते गंभीर संदेह
इस पूरे विवाद में सबसे बड़ा सवाल यह है कि अनुच्छेद 32, जो मूल अधिकारों के लिए व्यक्ति को ही उपलब्ध है, उसमें राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में कैसे पहुँची?
और उससे भी अधिक गंभीर यह कि जस्टिस पारडीवाला ने उसे सुनने योग्य क्यों माना। यह कदम न्यायिक परंपरा और संविधान दोनों पर सीधा आघात माना जा रहा है।
इसी के साथ यह भी सवाल है कि आखिर राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों के अधिकार किसी न्यायाधीश की बेंच कैसे सीमित कर सकती है।
यदि कोई ऐसा निर्णय संविधान को ही बदलने की स्थिति पैदा करता है तो उसे दो जजों की बेंच कैसे सुन सकती है? यह बुनियादी सवाल न्यायपालिका की विश्वसनीयता को हिला रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की शक्ति और उसकी सीमा
बहस का एक और बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट सीधे राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है? यदि ऐसा आदेश राष्ट्रपति या राज्यपाल नज़रअंदाज़ कर दें, तो सुप्रीम कोर्ट के पास उसे लागू कराने का क्या अधिकार होगा? संविधान स्पष्ट करता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अदालत के समक्ष जवाबदेह नहीं हैं। ऐसे में यह आदेश न्यायपालिका की सीमाओं से परे जाता दिख रहा है।
अगर जस्टिस पारडीवाला का फैसला मान लिया जाए तो बिना राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी के तीन महीने में बिल अपने आप क़ानून बन जाएगा।
ऐसी स्थिति में कोई राज्य सुप्रीम कोर्ट या राष्ट्रीय अखंडता के ख़िलाफ़ भी कानून पारित कर दे, तो उसका परिणाम कितना भयावह हो सकता है, यह सहज समझा जा सकता है।
न्यायपालिका की साख पर गंभीर खतरा
अब बड़ा प्रश्न यह भी है कि यदि सुप्रीम कोर्ट इस रेफ़रेंस में कह देता है कि राष्ट्रपति को आदेश नहीं दिया जा सकता, तो जस्टिस पारडीवाला की न्यायिक क्षमता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
सुप्रीम कोर्ट ख़ुद को बचाने की कोशिश में कह रहा है कि वह केवल रेफ़रेंस पर व्याख्या करेगा, लेकिन यदि राष्ट्रपति जस्टिस पारडीवाला केस पर भी रेफ़रेंस माँग लें तो कोर्ट क्या करेगा?
इस पूरे विवाद ने एक और चिंता पैदा कर दी है। अगर सुप्रीम कोर्ट बराबरी का हवाला देकर राष्ट्रपति और राज्यपाल को भी कोर्ट के सामने उपस्थित होने का आदेश दे दे।
तो फिर यह सवाल उठेगा कि जिन जजों के घर से नोटों की गड्डियाँ मिलती हैं, उन्हें क्यों सीधे जेल नहीं भेजा जाता?
समाज में यह चर्चा तेज़ है कि सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक साख लगातार गिर रही है।
भविष्य का सबसे बड़ा सवाल
जस्टिस पारडीवाला के विवादित निर्णयों ने सुप्रीम कोर्ट को बार-बार मुश्किल में डाला है। समाज का विश्वास न्यायपालिका पर डगमगा रहा है।
ऐसे हालात में यह बड़ा प्रश्न बन चुका है कि क्या भविष्य में उन्हें कभी चीफ जस्टिस बनाया जा सकता है?
क्योंकि रोज़-रोज़ गढ्ढा खोदकर न्यायपालिका की साख को चोट पहुँचाने वाले जज अंततः उसी गढ्ढे में गिरने की ओर बढ़ रहे हैं।