Wednesday, September 3, 2025

सुप्रीम कोर्ट में उठे सवाल: क्या न्यायिक सक्रियता अब टकराव की सीमा लांघ रही है?

सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति जी द्वारा भेजे गए 14 सवालों पर सुनवाई के दौरान कल कई अप्रत्याशित बहसें हुईं। तमिलनाडु की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी पेश हुए।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

विवाद तब शुरू हुआ जब विधानसभा से पारित विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजा और राष्ट्रपति ने उसे लंबे समय तक रोक लिया।

तमिलनाडु सरकार ने इस देरी को चुनौती देते हुए आर्टिकल 32 का सहारा लिया और सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंची।

जस्टिस पारडीवाला और जस्टिस महादेवन की बेंच ने राष्ट्रपति को आदेश दिया कि वह किसी भी बिल को अपनी इच्छा से अनिश्चितकाल तक न रोकें।

आदेश में कहा गया कि तीन माह के भीतर कानून स्वतः लागू हो जाएगा।

आर्टिकल 32 पर पहली आपत्ति

बहस का पहला सवाल यह रहा कि आर्टिकल 32 का उपयोग मूलतः नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए करते हैं।

यह प्रावधान सरकार के दमन से व्यक्ति को बचाने के लिए है। ऐसे में क्या एक राज्य सरकार दूसरी सरकार के विरुद्ध इस अनुच्छेद का सहारा ले सकती है? इस बिंदु पर अदालत में गहरी बहस छिड़ी।

दो जजों की बेंच से संविधान संशोधन जैसा आदेश?

सवाल यह भी उठा कि संवैधानिक व्याख्या के लिए सामान्यतः पाँच या उससे अधिक जजों की बेंच बैठती है।

फिर मात्र दो जजों की बेंच ने “जितनी जल्दी संभव हो” की जगह “तीन महीने” की समय सीमा कैसे निर्धारित कर दी? इसे संविधान के अप्रत्यक्ष पुनर्लेखन के समान बताया गया।

राष्ट्रपति और राज्यपाल पर आदेश का असर

एक अहम बिंदु यह भी उठा कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आदेश को मानने से इनकार कर दें तो क्या यह कोर्ट की अवमानना मानी जाएगी?

जबकि संविधान में साफ है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल किसी भी न्यायिक कार्यवाही के लिए जवाबदेह नहीं हो सकते। ऐसे में अवमानना की कार्यवाही का क्या होगा, यह बड़ा सवाल है।

संसद और लोकतंत्र पर असर

विशेषज्ञों ने पूछा कि अगर दो जजों की बेंच संविधान के प्रावधानों को बदल सकती है तो संसद का क्या महत्व बचेगा?

लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप कहाँ रहेगा? क्या इस तरह के आदेश से संसद की भूमिका घटकर केवल औपचारिकता रह जाएगी?

राष्ट्र की एकता पर खतरा?

बहस में यह भी सवाल उठाया गया कि यदि बिना राष्ट्रपति या राज्यपाल की मंजूरी कानून बनने लगे तो भारत की एकता और अखंडता पर असर पड़ेगा।

आशंका जताई गई कि लोकप्रिय लेकिन अलगाववादी सरकारें राष्ट्रविरोधी कानून पारित कर सकती हैं और केंद्र के पास रोकने का कोई उपाय नहीं रहेगा।

सुप्रीम कोर्ट खुद के ख़िलाफ़ कैसे फैसला करेगा?

एक और पेचीदा स्थिति पर चर्चा हुई कि यदि किसी राज्य का कानून तीन महीने में लागू हो गया और बाद में वही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो सुप्रीम कोर्ट को खुद के आदेश के विरुद्ध खुद ही सुनवाई करनी होगी। यह न्यायिक प्रक्रिया को उलझनभरी बना सकता है।

जस्टिस पारडीवाला की भूमिका पर सवाल

जज पारडीवाला और जस्टिस महादेवन का यह फैसला न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन को हिला देने वाला माना जा रहा है।

यदि पाँच जजों की बेंच इस आदेश को पलट देती है तो सवाल उठेगा कि क्या पारडीवाला की बेंच का निर्णय गलत था।

जस्टिस पारडीवाला वरिष्ठता के आधार पर भविष्य में लंबे समय तक चीफ जस्टिस बनने वाले हैं।

उनके नेतृत्व में हाल ही में कई विवादित निर्णय आए हैं। इस वजह से यह बहस तेज हो गई है कि क्या वरिष्ठता मात्र से उन्हें सर्वोच्च पद पर बिठाना उचित होगा।

न्यायिक सक्रियता या न्यायिक आतंक?

अदालत में यह आशंका भी गूँजी कि क्या भविष्य में न्यायिक सक्रियता की सीमा इतनी आगे बढ़ जाएगी कि वह ‘जुडिशियल टेररिज्म’ का रूप ले ले?

और क्या इससे भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में अस्थिरता और अव्यवस्था नहीं बढ़ेगी? आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ही इस प्रश्न का उत्तर देंगे।

- Advertisement -

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -

Latest article