रुपया डॉलर सम्बन्ध
रुपये की गिरावट पर शोर और असली तस्वीर
रुपये पर चर्चा होते ही मीडिया की सुर्खियां अक्सर सिर्फ इस बात पर टिक जाती हैं कि पहली बार डॉलर के सामने 90 का स्तर पार हो गया। आर्थिक विश्लेषण के मुताबिक यह तस्वीर अधूरी है, क्योंकि लंबे समय में रुपया औसतन हर वर्ष लगभग 3 से साढ़े 3 प्रतिशत गिरता ही रहा है।
जनवरी से अगस्त 2013 तक रुपये का ध्वंस और मनमोहन काल
आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2013 में रुपया करीब 55 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर था, लेकिन मात्र आठ महीनों में अगस्त तक लगभग 20 प्रतिशत टूटकर 68 दशमलव 8 रुपये तक पहुंच गया। डॉलर ही नहीं, यूरो के मुकाबले 16 प्रतिशत, पाउंड के मुकाबले 14 प्रतिशत और युआन के मुकाबले भी 16 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।
दूसरी मुद्राओं के सामने समग्र कमजोरी और व्यापक संकट का संकेत
उस दौर में मुद्रा बाजार के जानकार बताते हैं कि जब किसी देश की मुद्रा एक साथ कई प्रमुख विदेशी मुद्राओं के मुकाबले टूटती है तो यह सिर्फ डॉलर की मजबूती नहीं, बल्कि घरेलू आर्थिक कमजोरियों और भरोसे के संकट का संकेत बन जाती है। मनमोहन सिंह की महान अर्थशास्त्री वाली छवि के बावजूद यह व्यापक गिरावट थम नहीं सकी।
मोदी काल में डॉलर के सामने रुपया और प्रतिशत गिरावट की तुलना
वर्तमान दौर में भी रुपया डॉलर के सामने कमजोर हुआ है, लेकिन रफ्तार और संदर्भ अलग हैं। 2022 में जब डॉलर के मुकाबले स्तर लगभग 77 रुपये था, वहां से ढाई से साढ़े तीन वर्ष की अवधि में करीब 16 प्रतिशत टूटकर 90 के पार पहुंचा है, जिसे राजनीतिक हमला बनाकर पेश किया जा रहा है।
यूरो पाउंड युआन के सामने 2014 के बाद रुपये की स्थिति
तुलना पूरी रखने के लिए अन्य प्रमुख मुद्राओं के आंकड़े भी देखे जाते हैं। विश्लेषण के अनुसार 2014 के बाद से यूरो के मुकाबले रुपया लगभग 1 प्रतिशत मजबूत ही बना हुआ है, पाउंड के मुकाबले लगभग 6 प्रतिशत मजबूत है, जबकि युआन के सामने केवल शून्य दशमलव 5 प्रतिशत की मामूली कमजोरी दिखती है।
पहली बार 90 पार की सुर्खियां और ऐतिहासिक क्रम की अनदेखी
आलोचना यह है कि मीडिया हर नये स्तर को मानो प्रलय की सूचना की तरह बेचता है। कभी पहली बार 30 पार, फिर पहली बार 50 पार, बाद में 70 पार और अब 90 पार की हेडलाइनें बनती रहीं। जबकि दीर्घकालिक ऐतिहासिक डेटा साफ दिखाता है कि रुपये में नियमित रूप से गिरावट की प्रवृत्ति बनी रही है।
डॉलर की रणनीति महंगाई बाहर भेजने और भारत में दामों की धारणा
दावा यह है कि इसी क्रमिक अवमूल्यन के जरिये डॉलर में बैठी महंगाई दुनिया पर एक्सपोर्ट की जाती है। आम धारणा बनती है कि अमेरिका में तो बीस बीस वर्ष तक चीजों के दाम नहीं बढ़ते, जबकि असल बोझ उन देशों पर आता है जिनकी मुद्रा लगातार डॉलर के सामने कमजोर की जाती है।
निर्यात बढ़ाने के लिए नियंत्रित कमजोरी और डॉलर जरूरत की चक्रव्यवस्था
आर्थिक दृष्टि से तर्क दिया जा रहा है कि केवल भारत ही नहीं, अनेक देशों की मुद्राओं पर यह बोझ इसलिए डाला जाता है ताकि वे प्रतिस्पर्धी निर्यात कर सकें। यदि निर्यात नहीं होगा तो डॉलर आना मुश्किल होगा और बिना पर्याप्त डॉलर के आवश्यक आयात भी संभव नहीं रहेंगे, जिसके अभाव में देश को अंततः सोना गिरवी रखने जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
विदेशी मुद्रा भंडार सोना और वर्तमान सुरक्षा कवच की तस्वीर
भारत के वर्तमान विदेशी मुद्रा भंडार को इस संदर्भ में सुरक्षा कवच के रूप में पेश किया जा रहा है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार कुल रिजर्व लगभग 688 अरब डॉलर के आसपास माना जा रहा है, जिसमें से लगभग 108 अरब डॉलर के बराबर मूल्य सोने के रूप में मौजूद है, जो पिछली पीढ़ी के संकटों से बिल्कुल अलग स्थिति दिखाता है।
क्लीन फ्लोटिंग की वर्तमान नीति और पुराने नैरो बैंड का फर्क
लेख के अनुसार इस समय सरकार रुपये को अपेक्षाकृत क्लीन फ्लोटिंग की नीति के तहत चलने दे रही है, यानी बाजार की मांग और आपूर्ति के अनुसार दर तय हो रही है। इससे पहले की व्यवस्था में प्रतिदिन लगभग दस पैसे का नैरो बैंड रखा जाता था, जिसे बचाए रखने के लिए लगातार फॉरेक्स बाजार में हस्तक्षेप कर डॉलर बेचने पड़ते थे।
आर ई ई आर सूचकांक ओवरवैल्यूएशन और प्रतिस्पर्धा की चुनौती
रियल इफेक्टिव एक्सचेंज रेट नामक सूचकांक का उल्लेख करते हुए बताया जा रहा है कि हाल तक रुपये को लगभग आठ प्रतिशत ओवरवैल्यूड माना जा रहा था, जिसे अब कम करके लगभग अठानबे के स्तर पर लाया गया है। यह ठीक वैसा ही मानक बताया जाता है जैसा डी एक्स वाई में सौ को आधार मानकर प्रतिस्पर्धा को मापा जाता है।
आर ई ई आर सौ से ऊपर जाने पर दबाव और सौ के नीचे प्रतिस्पर्धात्मक लाभ
व्याख्या के अनुसार जब कोई मुद्रा सूचकांक में सौ से ऊपर जाता है तो उसके निर्यातकों पर दबाव बढ़ जाता है, क्योंकि उनकी वस्तुएं अपेक्षाकृत महंगी दिखने लगती हैं। इसके उलट सौ से नीचे रहने पर उस देश की मुद्रा निर्यात के लिए अधिक प्रतिस्पर्धी साबित होती है, क्योंकि विदेशी खरीदारों को कीमत लाभ मिलता है।
चीनी डंपिंग रणनीति और भारतीय उत्पादों के लिए फ्री फ्लोट की मजबूरी
चीन द्वारा अपने उत्पाद उत्पादन लागत से भी नीचे बेचने की रणनीति का उदाहरण देकर कहा जा रहा है कि वैश्विक बाजार में बने रहने के लिए भारत जैसे देशों के पास सीमित विकल्प बचते हैं। ऐसे माहौल में रुपये को अपेक्षाकृत फ्री फ्लोट छोड़ना पड़ता है, ताकि बाजार खुद कीमतें एडजस्ट कर सके और घरेलू उत्पाद पूरी तरह बाहर न हो जाएं।
हार्वर्ड केम्ब्रिज वाले महान अर्थशास्त्री बनाम वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व
लेख का तर्क है कि आज की सरकार वह नहीं है जो हार्वर्ड या केम्ब्रिज के स्थापित अर्थशास्त्रियों के नुस्खों पर आंख मूंदकर चले और अर्थव्यवस्था को पांच प्रतिशत जीडीपी वृद्धि तक लुढ़कने दे। पिछली सरकार के समय भारत को फ्रेजाइल फाइव में शामिल होकर वैश्विक निवेशकों की नजर में जोखिम वाला बाजार माना जाने लगा था।
महंगाई चालू खाता घाटा और उधार के महंगे ब्याज का पुराना अनुभव
उस दौर में महंगाई दर दोहरे अंक तक पहुंच गई थी, चालू खाते का घाटा लगभग पांच प्रतिशत के आसपास जाकर उन्नीस सौ इक्यानवे के सोना गिरवी संकट से भी अधिक खतरनाक स्तर पर पहुंचा। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग दो सौ पचासी अरब डॉलर तक गिर गया, जो सात महीने से भी कम आयात कवर कर पा रहा था, इसलिए वैश्विक बाजार से डॉलर उधार लेने पर लगभग दो प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज देना पड़ा।
फिस्कल डेफिसिट और निर्यात प्रतिस्पर्धा के मोर्चे पर वर्तमान तुलना
तुलना में आज फिस्कल डेफिसिट को पांच प्रतिशत के भीतर रखने की बात की जा रही है। चालू खाते का घाटा लगभग दो प्रतिशत के आसपास बताया जाता है, और यह दावा किया जा रहा है कि टैरिफ के रहते भी हमारे निर्यात घटने के बजाय टिके हुए हैं, जबकि पिछली सरकार के समय महंगाई ने ही हमें वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बाहर धकेल दिया था।
एफ पी आई आउटफ्लो के समय घरेलू निवेशकों का व्यवहार और भरोसे का अंतर
एक महत्वपूर्ण फर्क यह बताया जा रहा है कि पूर्ववर्ती दौर में जब विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक पैसा निकालते थे तो घरेलू निवेशक भी बाजार से मुंह मोड़ लेते थे। इसके उलट आज की स्थिति में यदि एफ पी आई बिकवाली करते हैं तो घरेलू निवेशक उतने ही अनुपात में खरीदारी करके बाजार को सहारा देने लगे हैं, जो सरकार पर भरोसे का संकेत माना जा रहा है।
मनमोहन सिंह के बयान सोना आयात शुल्क और पेट्रोल पंप बंद करने की नीति
पुराने दौर में स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ा था कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था बेहतर रिटर्न दे रही है, इसलिए निवेशक वहां जा रहे हैं और रुपया कमजोर हो रहा है। इसके जवाब में सरकार ने सोने पर आयात शुल्क छह से दस प्रतिशत कर दिया और रात आठ बजे के बाद पेट्रोल पंप बंद रखने जैसी कठोर नीतियां अपनाईं, ताकि सोने और तेल का आयात घटाकर अर्थव्यवस्था को संकट से बचाया जा सके।
वर्तमान दौर में सोना और तेल आयात के साथ स्थिति नियंत्रण में
इसके विपरीत वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के समर्थक दावा करते हैं कि आज की परिस्थितियों में न तो सोने के आयात पर ऐसी कठोर पाबंदियां हैं और न ही तेल आपूर्ति पर इस स्तर का संकट दिख रहा है। इसके बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार और अन्य सूचकांक अपेक्षाकृत सुरक्षित दायरे में बने हुए हैं, जिससे बाजार में घबराहट वाली स्थिति नहीं बन रही।
सीरिया तनाव रूस की सदस्यता और तेल खरीद पर पुरानी मजबूरियां
मनमोहन काल की नीतियों की आलोचना करते हुए यह भी याद दिलाया जाता है कि उस समय तेल के दामों में उछाल के लिए सीरिया में तनाव का हवाला दिया जाता था। तब रूस जी एट समूह का सदस्य होते हुए भी भारत अमेरिकी दबाव के कारण रूसी तेल नहीं खरीद सका, जबकि घरेलू महंगाई और चालू खाते का बोझ लगातार बढ़ रहा था।
आज रूस से तेल खरीद और पश्चिमी दबाव के बीच संतुलन की रणनीति
अब स्थिति यह बताई जा रही है कि पश्चिमी देशों के तमाम दबाव के बावजूद भारत रूस से सस्ता तेल ले रहा है, ताकि घरेलू जरूरतों की आपूर्ति बाधित न हो। समर्थकों के अनुसार यही व्यावहारिक कूटनीतिक आर्थिक नीति है जिसने देश को पुराने सोना गिरवी जैसे संकट से दूर रखा है, भले ही डॉलर के सामने रुपया कुछ और कमजोर हुआ हो।
ब्राजील तुर्की इंडोनेशिया और साउथ अफ्रीका के उदाहरण पर पुरानी सफाई
तत्कालीन प्रधानमंत्री की एक और सफाई का उल्लेख है, जिसमें कहा गया था कि केवल भारत ही नहीं, ब्राजील तुर्की इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों की मुद्राएं भी गिर रही हैं। आलोचक मानते हैं कि इससे घरेलू नीतिगत जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की गई, जबकि निवेशकों ने भारत को अलग से अधिक जोखिम वाला माना।
निर्मला सीतारमन का तर्क डॉलर मजबूत रुपया स्थिर और गलतफहमी
इसके विपरीत मौजूदा वित्त मंत्री ने यह तर्क दिया था कि रुपया नहीं गिर रहा, बल्कि डॉलर असामान्य रूप से मजबूत हो रहा है। इस तर्क का आशय यह था कि डॉलर के अलावा अन्य कई मुद्राओं के मुकाबले रुपया या तो स्थिर है या अपेक्षाकृत मजबूत है, लेकिन आलोचकों ने इस बात की बारीकी समझने से इंकार किया और बयान को सरल राजनीतिक बचाव मानकर खारिज कर दिया।
रुपये को जानबूझकर गिरने देने की नीति और नोट छापने वाले अर्थशास्त्री
पूरा तर्क यही है कि नीतिगत रूप से भारत डॉलर के सामने रुपये को एक नियंत्रित दायरे में गिरने दे रहा है, ताकि निर्यात प्रतिस्पर्धा बनी रहे। इसके उलट वे अर्थशास्त्री और राजनीतिक नेता निशाने पर हैं जो हर संकट में नोट छापने को समाधान बताते रहे, यहां तक कि अधिक मूल्य का नया नोट चलाने तक की सलाह देते रहे।
कोरोना काल में नोट छापने की सलाह और वैश्विक तुलना
कोविड महामारी के समय भी कई स्वघोषित विशेषज्ञों ने बड़े पैमाने पर नोट छापने का सुझाव दिया। विश्लेषण के अनुसार जिन देशों ने यह रास्ता चुना वे आज तक अपने प्री कोरोना स्तर पर पूरी तरह वापस नहीं पहुंच सके, जबकि भारत उन देशों में गिना जा रहा है जो उस स्तर से आगे निकल चुके हैं और वास्तविक उत्पादन में वृद्धि दिखा रहे हैं।
हार्वर्ड के शोध का हवाला और तथाकथित काबा पर व्यंग्य
लेख के अंत में व्यंग्यात्मक ढंग से कहा गया है कि यह निष्कर्ष किसी राजनीतिक समर्थक का नहीं, बल्कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोध का है, जिसे कई वाम उदार अर्थशास्त्री अपना वैचारिक काबा मानते हैं। उसी संस्थान के अध्ययन को आधार बनाकर भारत की अपेक्षाकृत बेहतर पुनर्बहाली को रेखांकित किया जा रहा है, जबकि नोट छापने वाली नीतियों को लंबी अवधि का खतरा बताया जा रहा है।

