भाजपा के सामने इस समय उपराष्ट्रपति पद के लिए सबसे विश्वसनीय और अनुभवी चेहरा राजनाथ सिंह के रूप में मौजूद है।
उनके कद, अनुभव और कार्यशैली को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा को फिलहाल उनसे बेहतर नाम नहीं मिल सकता। अगर दल सामाजिक समीकरणों के संतुलन को प्राथमिकता देता है तो वह अलग बात है।
राजनाथ सिंह न सिर्फ भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में गिने जाते हैं बल्कि उनकी संघ से गहराई से जुड़ी पृष्ठभूमि भी पार्टी की वैचारिक छवि को मज़बूती देती है।
ऐसे में पार्टी को चाहिए कि वह संघ की सोच से इतर किसी व्यक्ति को इस पद के लिए न चुने, क्योंकि उपराष्ट्रपति का पद सिर्फ संवैधानिक ही नहीं बल्कि वैचारिक और सांस्कृतिक सन्देश का भी वाहक होता है।
जब मोदी ने वसुंधरा को रक्षा मंत्री बनाने की सोची थी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शुरुआती कार्यकाल में वसुंधरा राजे सिंधिया को भारत की पहली पूर्णकालिक महिला रक्षा मंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा था।
यह प्रस्ताव उनके नेतृत्व कौशल, शाही परिवार से जुड़ी विरासत और महिला सशक्तिकरण की प्रतीकात्मक सोच के आधार पर आया था। मोदी की यह इच्छा थी कि भारत को पहली बार एक महिला पूर्णकालिक रक्षा मंत्री मिले।
मोदी की यह सोच भारतीय परंपरा में स्त्री को शक्ति का प्रतीक मानने की भावना से प्रेरित थी। इंदिरा गांधी ने जरूर प्रधानमंत्री रहते हुए कुछ वर्षों तक रक्षा मंत्रालय का प्रभार रखा था, परंतु कोई महिला अब तक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री नहीं बनी थी।
वसुंधरा ने उस समय इस प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि वे राजस्थान की राजनीति में मुख्यमंत्री पद के प्रति गंभीर थीं।
निर्मला सीतारमण को मिला रक्षा मंत्रालय, पर कहानी वहीं रुकी नहीं
जब वसुंधरा राजे ने रक्षा मंत्रालय का प्रस्ताव ठुकरा दिया, तब मोदी ने निर्मला सीतारमण को इस पद पर नियुक्त किया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि मोदी सरकार महिला नेतृत्व को राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अहम क्षेत्र में स्थान देने के लिए प्रतिबद्ध थी।
पर यह प्रस्ताव वसुंधरा के लिए एक बड़ा राजनीतिक मोड़ हो सकता था जो उन्होंने खुद स्थगित किया।
हालांकि यह बात यहाँ खत्म नहीं होती। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह के मुताबिक वसुंधरा राजे अब एक बार फिर राजनीति की मुख्यधारा में सक्रिय होती नज़र आ रही हैं।
उनका भाजपा नेतृत्व से संवाद भी बढ़ा है और उन्होंने अतीत में जो राजनीतिक चेतावनियाँ दी थीं, वे भी अब सच होती प्रतीत हो रही हैं।
वसुंधरा की दूरदृष्टि और जगदीप धनखड़ को लेकर उनकी आशंका
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह का दावा है कि वसुंधरा राजे ने काफी पहले ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को लेकर सतर्क किया था।
उन्होंने नेतृत्व को चेता दिया था कि धनखड़ जैसे व्यक्ति को इतनी जल्दी इतना ऊँचा पद देना जोखिमपूर्ण हो सकता है। परंतु नेतृत्व ने उस समय उनकी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया।
समय बीतने के साथ वसुंधरा की आशंका सही साबित होती दिखी और पार्टी नेतृत्व की वह रणनीति सवालों के घेरे में आ गई।
यह वसुंधरा की राजनीतिक समझ और अनुभव का प्रमाण है कि वे पार्टी को उस समय एक दूरगामी चेतावनी देने की स्थिति में थीं।
राजस्थान की राजनीति में सीमित संभावनाएँ और नई भूमिका की संभावना
राजस्थान में भाजपा की सत्ता में वापसी तो हो चुकी है, लेकिन वहां की राजनीतिक स्थितियाँ अब वसुंधरा के लिए सीमित हो चुकी हैं।
वे पहले ही दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और वर्तमान समीकरणों में उनके लिए कोई विशेष भूमिका नहीं बन रही है। वहीं पार्टी भी आंतरिक असंतुलन से जूझ रही है।
ऐसे में पार्टी को वसुंधरा जैसे अनुभवी और चतुर नेता की जरूरत है। वहीं वसुंधरा को भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से एक ऐसी भूमिका की दरकार है जो उन्हें पुनः राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में सक्रिय बनाए। यही वह बिंदु है जहाँ भाजपा और वसुंधरा के रास्ते दोबारा मिलते दिख रहे हैं।
उपराष्ट्रपति पद की दौड़ में क्या फिर नाम होगा वसुंधरा का?
अब जब जगदीप धनखड़ की वापसी के बाद उपराष्ट्रपति पद फिर से चर्चा में है और भाजपा को एक ऐसे चेहरे की तलाश है जो राष्ट्रीय स्तर पर विश्वसनीयता, अनुभव और दूरदर्शिता का प्रतीक हो, तो वसुंधरा राजे का नाम फिर से उभर सकता है।
उनकी उम्र, अनुभव और छवि इस पद के लिए उन्हें स्वाभाविक उम्मीदवार बना सकते हैं।
हालाँकि यह फैसला पूरी तरह भाजपा नेतृत्व के सामूहिक निर्णय पर निर्भर करेगा कि वे सामाजिक समीकरणों को अधिक प्राथमिकता देंगे या अनुभव को। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक यह मान रहे हैं कि वसुंधरा की राजनीति में वापसी अब बहुत दूर नहीं है।
राजनाथ सिंह बनाम वसुंधरा: भाजपा के सामने निर्णायक मोड़
इस पूरे परिदृश्य में राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे, दोनों ही ऐसे चेहरे हैं जो भाजपा को उपराष्ट्रपति जैसे उच्च संवैधानिक पद के लिए गरिमा, स्थायित्व और प्रतीकात्मक शक्ति दे सकते हैं।
एक तरफ राजनाथ सिंह का संघनिष्ठ और अनुभवी कद है तो दूसरी ओर वसुंधरा का राजसी और दूरदर्शी राजनीतिक अनुभव।
भाजपा के लिए यह अवसर भी है और चुनौती भी, कि वह किस दिशा में अपने वरिष्ठ नेताओं की पुनर्स्थापना करती है और किसे राष्ट्रीय राजनीति के निर्णायक केंद्र में दोबारा स्थापित करती है। शायद आने वाले कुछ महीनों में इसपर स्थिति स्पष्ट होगी।