Friday, December 5, 2025

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वतंत्रता के बाद संघ की दिशा और प्रयोग

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

संघ की स्थापना और आरम्भिक दृष्टि

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज-परिवर्तन की प्रक्रिया में बीते शताब्दी का एक महत्त्वपूर्ण एवं अभिनव प्रयोग सिद्ध हुआ। महात्मा गांधी ने जिस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन-जन को संगठित कर स्वतंत्रता का भाव जगाया, उसी भाँति संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने स्वतंत्रता-युद्ध हेतु समर्पित युवाओं का संगठन खड़ा किया। साथ ही उन्होंने उनमें राष्ट्रवाद पर आधारित समाज-निर्माण और स्वतंत्रता-उत्तर प्रयोगों का संस्कार भी संजोया।

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स्वतंत्रता के पश्चात् कार्य की नई दिशा

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् संघ के शीर्ष कार्यकर्ताओं में यह विमर्श प्रारम्भ हुआ कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के उद्देश्य से स्थापित संगठन का आगामी स्वरूप क्या होना चाहिए।

30 दिसम्बर 1947 को नागपुर से प्रकाशित एक समाचारपत्र में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहिब देवरस ने “संघ-कार्य के अगले कदम” शीर्षक लेख के माध्यम से यह विचार रखा कि संघ के स्वयंसेवक समाज के साथ मिलकर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण हेतु नये-नये संगठनों का सृजन करें।

गांधी-हत्या और संघ पर प्रतिबंध

इस विमर्श का विस्तार होता उससे पूर्व ही 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हो गई। इस दुखद घटना का तत्कालीन सत्ताधीशों ने राजनीतिक दुरुपयोग किया और 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया।

परिणामस्वरूप उस लेख की विषयवस्तु पर औपचारिक चर्चा नहीं हो सकी। तथापि, उसी कालखंड में संघ के स्वयंसेवकों ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे रचनात्मक एवं आन्दोलनात्मक संगठन की नींव रख दी।

प्रतिबंधोत्तर पुनर्गठन

12 जुलाई 1949 को प्रतिबंध हटने के पश्चात् संघ के ढाँचे को व्यवस्थित करना प्राथमिक आवश्यकता बनी। यद्यपि गांधी-हत्या को राजनीतिक हथियार बनाकर संघ के विस्तार में बाधाएँ उत्पन्न की गईं और स्वयंसेवकों को हर स्तर पर सफाई देनी पड़ी कि संघ का उस घटना से कोई संबंध नहीं था। इस अग्निपरीक्षा से संघ और भी दृढ़ होकर निकला तथा उसके कार्य में पुनः प्रगति होने लगी।

संगठन की दिशा पर आन्तरिक बहस

स्वतंत्रता-उत्तर काल में संघ की दिशा पर तीन विचारधाराएँ प्रकट हुईं—

  1. संघ को रचनात्मक कार्यों में प्रवृत्त होकर शिक्षा एवं सेवा पर बल देना चाहिए।
  2. गांधी-हत्या के आरोपों से उपजे राजनीतिक शून्य को देखते हुए संघ को एक राजनीतिक दल के रूप में सामने आना चाहिए।
  3. संघ को अपनी मौलिक शाखा-प्रणाली पर ही केन्द्रित रहना चाहिए।

लंबी बहस के उपरान्त तीसरे विकल्प को अंगीकृत किया गया। इसी बीच डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिन्दुत्वनिष्ठ राजनीतिक दल की आवश्यकता को प्रतिपादित किया और संघ-नेतृत्व से सहयोग प्राप्त कर अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई।

संघ और राजनीति का संबंध

संघ ने राजनीति से अलिप्त रहते हुए शाखा-आधारित व्यक्ति-निर्माण को राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की आधारशिला माना। यद्यपि भारतीय जनसंघ ही वह दल था जो संघ के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखता था, शेष दल प्रायः विरोधी ही थे।

परिणामस्वरूप सामान्य स्वयंसेवकों का रुझान जनसंघ की ओर रहा, परन्तु संगठन-निर्देशानुसार संघ कार्यकर्ता प्रत्यक्ष चुनाव-प्रचार से दूर रहे।

अनुषांगिक संगठनों का विकास

इसी कालखंड में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, सरस्वती शिशु मंदिर, भारतीय मजदूर संघ, हिन्दुस्थान समाचार तथा विश्व हिन्दू परिषद् जैसी संस्थाओं ने आकार ग्रहण किया।

सरसंघचालक गुरुजी प्रायः वर्ष में दो बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय से वैचारिक संवाद कर संगठनात्मक मार्गदर्शन देते रहे।

एकात्म मानववाद और जनसंघ की चुनौतियाँ

1951 से 1966 तक जनसंघ ने वैकल्पिक विचारधारा को रूपायित करने का प्रयास किया। दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद और भारतीय अर्थनीति – विकास की दिशा जैसी रचनाएँ संगठन को मार्गदर्शन देने हेतु प्रस्तुत की गईं।

तथापि चुनावी राजनीति की छाया के कारण वैचारिक गहराई और वैज्ञानिक कार्यपद्धति विकसित नहीं हो सकी। फलतः वैचारिक संतुलन बिगड़ा और एकात्म मानववाद को अपेक्षित महत्त्व नहीं मिल पाया।

1967 का राजनीतिक परिदृश्य और परिणाम

1967 के चुनावों में गैर-कांग्रेसी दलों के अप्रत्याशित गठबंधनों से सिद्धांतहीनता और अवसरवाद भारतीय राजनीति का अंग बन गया।

इन परिस्थितियों में संघ और जनसंघ के संबंधों को नई वैज्ञानिक दृष्टि देने की आवश्यकता थी। किन्तु 11 फरवरी 1968 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय मृत्यु ने इस प्रक्रिया को अधूरा छोड़ दिया।

संघ का विस्तार और दायित्व

दीनदयाल उपाध्याय की असमय मृत्यु के पश्चात् जनसंघ संगठनात्मक विघटन और अनुशासनहीनता से ग्रस्त हुआ, जबकि संघ अपने विस्तार में संलग्न रहा।

असम, बंगाल, बिहार, केरल, राजस्थान और दिल्ली में संघ का तीव्र विकास हुआ। मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद् और विश्व हिन्दू परिषद् भी निरंतर प्रगति कर रहे थे। तथापि जनसंघ को अपेक्षित मार्गदर्शन संघ द्वारा उपलब्ध नहीं हो सका।

1972 की अखिल भारतीय बैठक

गुरुजी कैंसर से ग्रस्त होकर सक्रिय मार्गदर्शन देने की स्थिति में नहीं थे। ऐसे समय में उन्होंने 1972 में बम्बई में पाँच दिवसीय अखिल भारतीय बैठक आयोजित कर सभी अनुषांगिक संगठनों को महत्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया। यह बैठक मानो परिवार के मुखिया की अंतिम शिक्षाओं के रूप में रही।

इसमें प्रत्येक संगठन की रिपोर्टिंग, उस पर चर्चा तथा गुरुजी की संक्षिप्त अभिव्यक्ति के माध्यम से यह संदेश स्पष्ट हुआ कि संघ का मूल बल अभियानों में नहीं, बल्कि दैनंदिन सम्पर्क और व्यक्ति-निर्माण में निहित है।

बहुत अच्छा। आपके भेजे हुए इस दूसरे भाग को भी मैं उसी शैली में रूपांतरित कर रहा हूँ, गंभीर शोधपत्रीय भाषा, हेडिंगों सहित, तथ्यों को बिना बदले और अकादमिक संरचना के अनुरूप।

हिंदुत्व और राष्ट्रीयत्व : अखण्ड श्रद्धा का सूत्र

गुरुजी ने स्पष्ट किया कि “हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है”, यह केवल तर्क अथवा बौद्धिक विचार का विषय नहीं, बल्कि अखण्ड श्रद्धा का विषय है। इस विषय में किसी भी प्रकार का संशय कार्यकर्ताओं के मन में स्थान नहीं पाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि कार्यक्षेत्रानुसार भाषा और शैली में भिन्नता हो सकती है, किंतु यदि यह श्रद्धा डगमगाई तो संघ का मार्ग विचलित हो जाएगा।

दैनिक शाखा और संस्कार-पद्धति

संघ-कार्य की मूल धुरी दैनिक शाखा को ही माना गया। गुरुजी ने गट-पद्धति और गण-पद्धति को संस्कार की सर्वोत्तम विधि घोषित करते हुए कहा कि इनका कोई विकल्प नहीं है। शाखा के एक घंटे से आगे बढ़कर स्वयंसेवक को शेष तेईस घंटों में भी समाजोन्मुख, जागरूक और सक्रिय जीवन जीना चाहिए।

विद्यार्थी परिषद् और रचनाधर्मिता

विद्यार्थी परिषद् के आंदोलनात्मक स्वरूप की समीक्षा करते हुए गुरुजी ने उन प्रवृत्तियों की आलोचना की, जिनमें कुलपतियों की कुर्सी पर जबरन कब्ज़ा या उनका पुतला दहन किया जाता था। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ-सम्बद्ध संगठनों को रचनाधर्मिता पर आधारित कार्यशैली ही अपनानी चाहिए।

विश्व हिंदू परिषद् और परावर्तन का स्वरूप

विश्व हिंदू परिषद् को निर्देश देते हुए गुरुजी ने कहा कि ‘घर वापसी’ अथवा परावर्तन प्रयासों को मात्र प्रमुख एजेंडा न बनाया जाए।

परावर्तन के लिए लोभ अथवा भय का सहारा न लेकर, सहज स्नेह, आत्मीय सम्पर्क, सहानुभूति और सेवा के माध्यम से ही यह कार्य आगे बढ़े।

दत्तोपंत ठेंगड़ी और भारतीय मजदूर संघ का आदर्श

बैठक में गुरुजी ने स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगड़ी तथा भारतीय मजदूर संघ की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि यदि कोई कार्यकर्ता ध्येयवाद और आदर्शवाद को आधार बनाकर अपने क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्यशैली से आगे बढ़े, तो कार्य किस प्रकार यशस्वी हो सकता है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण भारतीय मजदूर संघ है। दत्तोपंत ठेंगड़ी को उन्होंने संघ का ‘Thought Giver’ कहा।

जनसंघ पर गुरुजी के विचार

जनसंघ की स्थिति पर चर्चा करते हुए गुरुजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की असमय मृत्यु को संगठन का बड़ा आघात बताया। उनके अनुसार, “शेष तो कंगूरे के कलश हैं, किंतु यदि सब साथ चलें तो अभाव की आंशिक पूर्ति हो सकती है।”

उन्होंने यह भी चेताया कि यदि जनसंघ चुनाव जीतने हेतु कांग्रेस की भाँति अनैतिक उपायों का अनुसरण करेगा, तो वह सदैव ‘नम्बर दो’ पर ही रहेगा। उनका आग्रह था कि जनसंघ अपने अखाड़े में प्रतिद्वंद्वी को पराजित करना सीखे।

गुरुजी का अवसान और देवरस का दायित्व-ग्रहण

5 जून 1973 को गुरुजी ने देह त्याग किया। इससे पूर्व लिखे गए पत्रों में उन्होंने बाला साहिब देवरस को उत्तराधिकारी घोषित किया था।

जुलाई 1973 में नागपुर के कार्यकर्ता-सम्मेलन में देवरस ने औपचारिक रूप से सरसंघचालक का दायित्व ग्रहण किया।

बाला साहिब देवरस की घोषणाएँ

देवरस ने कार्यपद्धति में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए—

  • डॉ. हेडगेवार और गुरुजी के लिए ‘परम पूजनीय’ सम्बोधन रखा जाए, किन्तु अन्य सरसंघचालकों के लिए ‘माननीय’ पर्याप्त होगा।
  • केवल प्रथम दो सरसंघचालकों के चित्र ही लगाए जाएँ, अन्य के चित्र आवश्यक नहीं।
  • एक-चालकानुवर्तित्व की परंपरा समाप्त कर ‘टीम-कार्यपद्धति’ को आगे बढ़ाया जाए।

अस्पृश्यता और वंचित समाज के प्रति दृष्टिकोण

देवरस ने अस्पृश्यता को घोर पाप बताते हुए समाज के वंचित वर्गों की समस्याओं पर विशेष संवेदनशीलता बरतने का आग्रह किया।

बिहार आंदोलन के समय उन्होंने नक्सलवाद को केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानने की प्रवृत्ति की आलोचना की और कहा कि यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषमताओं का परिणाम है।

आपातकाल और चुनावी राजनीति

आपातकाल के दौरान जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संकेत दिया कि यदि संघ चुनाव से अलग हो जाए तो प्रतिबंध हट सकता है, तब देवरस ने स्पष्ट संदेश भेजा कि वे संकट की घड़ी में साथियों को नहीं छोड़ेंगे। 1977 के चुनावों में संघ ने सक्रिय भागीदारी की।

आरक्षण पर देवरस की दृष्टि

1980 के दशक में उन्होंने अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आरक्षण के समर्थन में प्रस्ताव पारित कराया। उन्होंने कहा कि केवल जाति-आधारित या केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करना एकांगी दृष्टिकोण है। आवश्यक है कि सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान में रखकर ही इस विषय पर निर्णय लिया जाए।

1980–2000 : नए आंदोलन और चुनौतियाँ

इसी दशक में हिंदू वोट बैंक की चर्चा प्रारम्भ हुई, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ तथा श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन और मण्डल आयोग का उभार सामने आया। इसके साथ ही—

  • 1989 में सत्ता-परिवर्तन और वी.पी. सिंह की सरकार का पतन
  • 1991 में राजीव गांधी की हत्या
  • उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियाँ
  • 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी ढाँचे का ध्वंस
  • 1996 एवं 1998 में भाजपा-राजग की सरकार का गठन
    जैसी घटनाएँ भारतीय राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित करती रहीं।

उत्तराधिकार और संगठनात्मक परम्परा

देवरस ने अपने जीवनकाल में ही रज्जू भैया को उत्तराधिकारी घोषित किया, जिन्होंने आगे सुदर्शन जी को दायित्व सौंपा। यह प्रक्रिया संघ में उत्तराधिकार की पारदर्शी एवं अनोखी मिसाल बन गई।

भाजपा और संघ के सम्बन्ध

1990 के दशक में भाजपा और विश्व हिंदू परिषद् दोनों का प्रभाव बढ़ा। 2000 के बाद भाजपा की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि के साथ संघ के वैचारिक प्रभाव में अपेक्षाकृत कमी दिखाई दी। सत्ता-सुख और गुटबाजी जैसी प्रवृत्तियों ने संघ के मूल ध्येय को ओझल करने का खतरा उत्पन्न किया।

वर्तमान चुनौतियाँ और यक्ष प्रश्न

संघ के समक्ष यह चुनौती बनी हुई है कि वह राजनीतिक तंत्र को पुनः मूल्याधारित मार्ग पर कैसे ले आए। राजनीतिक क्षेत्र सत्ता-संवर्धन में तो संघ का सहयोग चाहता है, किंतु हिंदुत्व और साधन-शुचिता को अक्सर बोझ मानता है। परिणामस्वरूप विचारधारा और आदर्शवाद का क्षरण स्पष्ट दिखाई देता है।

आज संघ के समक्ष दोहरी चुनौतियाँ हैं, एक ओर बाह्य संकट और सामाजिक-धार्मिक संघर्ष, दूसरी ओर आंतरिक अनुशासन, आचरण और कार्यपद्धति की कसौटी। इतिहास के अनुभव संकेत देते हैं कि इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर ढूँढना समय की अनिवार्यता है।

स्वतंत्रता-उत्तर कालखण्ड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रतिबंध, चुनौतियों और राजनीतिक दबावों के बीच भी अपनी मौलिक शाखा-प्रणाली और व्यक्ति-निर्माण पर आधारित राष्ट्र-निर्माण की दिशा को दृढ़ किया।

भारतीय जनसंघ के गठन, अनुषांगिक संगठनों की स्थापना तथा एकात्म मानववाद के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हुआ कि संघ का ध्येय राजनीतिक सत्ता नहीं, बल्कि राष्ट्र की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का पुनरुद्धार रहा है।

संघ शताब्दी पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का संपूर्ण व्याख्यान: 26 अगस्त 2025, विज्ञान भवन, नई दिल्ली

संघ शताब्दी पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का संपूर्ण व्याख्यान: 27 अगस्त 2025, विज्ञान भवन, नई दिल्ली

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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