Rajasthan: सुप्रीम कोर्ट ने एक रेप के मामले में ऐसा फैसला सुनाया है, जिसने पूरे न्यायिक जगत को चौंका दिया है। यह मामला 37 साल पुराना है, लेकिन कोर्ट ने न्याय के मूल सिद्धांतों के आधार पर ऐसा निर्णय दिया, जो दुर्लभ और कानूनी दृष्टि से ऐतिहासिक माना जा रहा है।
राजस्थान के अजमेर जिले में वर्ष 1988 में 11 साल की बच्ची से बलात्कार के मामले में अदालत ने आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन यह स्वीकार करते हुए कि अपराध के समय आरोपी नाबालिग था, उसे अब जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (JJB) के समक्ष पेश करने का आदेश दिया।
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Rajasthan: आरोपी की उम्र 53 साल
इस मामले में आरोपी की वर्तमान उम्र 53 वर्ष है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रावधानों के तहत यदि कोई व्यक्ति अपराध करते समय नाबालिग था, तो उसे कानून के अनुसार विशेष दर्जा मिलना चाहिए, चाहे यह दावा किसी भी मुकदमे की किसी भी अवस्था में क्यों न किया जाए।
घटना 17 नवंबर 1988 की है, जब आरोपी की उम्र 16 साल, दो महीने और तीन दिन थी। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह स्वीकार किया कि आरोपी ने निचली अदालतों में कभी नाबालिग होने का मुद्दा नहीं उठाया,
लेकिन यह कानूनन बाधा नहीं है। शीर्ष अदालत ने यह दोहराया कि किशोर होने का दावा किसी भी स्तर पर उठाया जा सकता है, और इस आधार पर उसे न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता।
अपराध के वक्त नाबालिग
निचली अदालत यानी किशनगढ़ के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने आरोपी को बलात्कार का दोषी मानते हुए 5 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। बाद में राजस्थान हाईकोर्ट ने जुलाई 2024 में इस सजा को बरकरार रखा।
लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो वहां दोषी ने पहली बार यह दलील दी कि अपराध के वक्त वह नाबालिग था।
दोषसिद्धि बरकरार
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और सत्र अदालत दोनों के फैसले का पुनर्मूल्यांकन करते हुए दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन सजा को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अब आरोपी को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए,
जहां उस पर किशोर न्याय अधिनियम के तहत अधिकतम तीन साल तक विशेष सुधार गृह भेजे जाने का निर्णय लिया जा सकता है। यह फैसला न सिर्फ कानून की बारीकियों को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सुप्रीम कोर्ट न्याय करते समय तकनीकी प्रक्रिया से ऊपर जाकर,
न्याय की आत्मा को प्राथमिकता देता है। यह एक मिसाल है कि देरी या लापरवाही के बावजूद भी किसी को उसके कानूनी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो।