इस बार के स्वतंत्रता दिवस समारोह में संसद के दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे, नदारद रहे।
इस शाही अनुपस्थिति ने पूरे समारोह के माहौल में एक सवालिया सन्नाटा भर दिया, आख़िर क्या वजह थी कि देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच के विपक्षी सरदारों ने तिरंगे के सम्मान में कदम नहीं बढ़ाए?
शायद इनके लिए असली भारत ‘इंदिरा भवन’ की चारदीवारी के भीतर ही शुरू होकर वहीं समाप्त हो जाता है, और वहाँ ये खुद को ‘राजा’ मानकर ही चलते हैं।
राष्ट्रगौरव बनाम ‘फ्रंट रो’ की कुर्सी
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि राहुल-खड़गे की असली समस्या तिरंगा या राष्ट्रगौरव नहीं, बल्कि कुर्सी की पंक्ति है।
अगर इन्हें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले या राष्ट्रपति भवन में फ्रंट रो में स्थान न मिले, तो ये अपने शाही साए तक को कार्यक्रम में नहीं भेजते।
मानो राष्ट्रप्रेम का मापदंड केवल इस बात पर निर्भर हो कि कैमरे के सामने कितनी देर और किस एंगल से दिखा गया।
कांग्रेस की ‘वंशवादी’ विरासत का मोह
पुराने कांग्रेसी नेताओं को याद करते हुए कई लोग कहते हैं कि नेहरू जी ने संविधान में यह प्रावधान क्यों नहीं जोड़ा कि चाहे पार्टी सत्ता में हो या न हो, झंडा फहराने का सम्मान और सबसे आगे बैठने का अधिकार सिर्फ नेहरू-गांधी खानदान के ‘राजकुमारों’ के लिए आरक्षित होगा।
इंदिरा गांधी भी अगर यह ‘संशोधन’ कर देतीं, तो शायद आज राहुल और खड़गे को इतने अपमानजनक ‘बैक रो’ का सामना ही न करना पड़ता।
जनता से दूर और राजनीति में खोई चमक
यह वही कांग्रेस है, जिसने कभी जनता की नब्ज़ पर हाथ रखा था, और अब वही जनता मान रही है कि पार्टी के नेता देश के गौरवमयी अवसरों से अधिक अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और शाही तामझाम को अहमियत देते हैं।
अगर स्वतंत्रता दिवस जैसा राष्ट्रीय पर्व भी इनकी ‘प्रोटोकॉल पॉलिटिक्स’ की भेंट चढ़ जाए, तो जनता इन्हें राष्ट्रहित में कैसे गंभीर माने?
जब तक कांग्रेस यह ‘दरबारी मानसिकता’ नहीं छोड़ेगी, तब तक उसकी राष्ट्रीय राजनीति में वापसी महज़ एक सपना ही रहेगी।