Thursday, December 4, 2025

पुतिन के भारत दौरे से भारत रूस अमेरिका चीन समीकरण में भूचाल

मॉस्को दिल्ली वाशिंगटन बीजिंग के बीच अचानक बदली चालें भारत पर केंद्रित नए वैश्विक जुए का इशारा असामान्य खामोश खुलासे

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पाकिस्तान को रूसी चेतावनी असामान्य व्यवहार और असामान्य अपेक्षाओं का संकेत

पुतिन के भारत दौरे से ठीक पहले रूस ने परंपरागत कूटनीतिक प्रोटोकॉल एक तरफ रख कर सीधे पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष असीम मुनीर को भारत के विरुद्ध किसी भी दुस्साहस से दूर रहने की चेतावनी दी। यह खुला संदेश दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन की नई रेखाएं खींचता दिखा।

विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ऑपरेशन सिंदूर जैसे संवेदनशील क्षण में भी रूस ने भारत के पक्ष में इतना स्पष्ट और खुला बयान जारी नहीं किया था।

इस बार की कड़क भाषा यह दर्शाती है कि मॉस्को को इस क्षेत्रीय समीकरण में अब केवल दूरी बनाकर तमाशाई बने रहने से लाभ नहीं दिख रहा।

कूटनीतिक हलकों में इसे रूस की भारत से असामान्य अपेक्षाओं और पाकिस्तान के प्रति असामान्य व्यवहार की संयुक्त अभिव्यक्ति माना जा रहा है।

संदेश यह कि रूस न केवल भारत की सुरक्षा चिंताओं को सार्वजनिक रूप से मान्यता दे रहा है, बल्कि पाकिस्तान की सैन्य नेतृत्व संरचना को सीधा लक्ष्य बना कर दबाव भी रच रहा है।

ख्रुश्चेव के बाद पहली सीधी डांट मुनीर ट्रम्प समीकरण की पृष्ठभूमि

ख्रुश्चेव युग के बाद शायद पहली बार रूस ने पाकिस्तान को इतनी प्रत्यक्ष और नाम लेकर चेतावनी दी है। यह केवल किसी एक भाषण का परिणाम नहीं बल्कि पिछले महीनों में जमा हुई नाराजगी का संस्थागत रूप है, जो अब शब्दों में फूट पड़ा है।

मूल कारण के तौर पर असीम मुनीर का ट्रम्प प्रशासन के साथ असामान्य नजदीकी पर जोर दिया जा रहा है।

मुनीर का वॉशिंगटन की गोद में जा बैठना केवल मास्को को नहीं, बल्कि बीजिंग को भी असहज कर रहा है। चीन अपनी क्षेत्रीय योजनाओं में पाकिस्तान को अमेरिकी धुरी से दूर देखना चाहता था।

अमेरिका के नए ट्रम्प कार्यकाल में पाकिस्तान की सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा बारबार भारत विरोधी बयानबाजी और परमाणु संकेतों ने रूस के रणनीतिक धैर्य को भी चुनौती दी है।

इसीलिए रूस की चेतावनी दरअसल मुनीर के जरिए वॉशिंगटन को भेजा गया अप्रत्यक्ष संदेश भी समझी जा रही है।

पुतिन की बदलती भाषा भारत और मोदी पर खुली प्रशंसा की रणनीति

इस कठोर कदम के समानांतर पुतिन भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुले मंचों से प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं। ऊर्जा, रक्षा और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की बहस में वे लगातार भारत को जिम्मेदार शक्तिकेंद्र के रूप में सामने रख रहे हैं।

रूसी बयानबाजी में मोदी के निर्णायक नेतृत्व, भारतीय अर्थव्यवस्था की गति और वैश्विक दक्षिण के प्रतिनिधि के रूप में भारत की भूमिका पर विशेष बल दिया जा रहा है।

यह बदलाव केवल मित्रता प्रदर्शित करने का प्रयास नहीं, बल्कि पश्चिमी दबावों के बीच भारत को अपने पक्ष की धुरी पर टिकाने की दीर्घकालिक रणनीति है।

दिल्ली मॉस्को धुरी को पुनर्जीवित करने की इस कोशिश के बीच भारत भी रूस को यह संदेश देना चाहता है कि यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद वह मास्को को केवल अतीत का साझेदार मान कर किनारे लगाने के मूड में नहीं है। दोनों पक्ष प्रशंसा की भाषा से व्यावहारिक सौदे की जमीन तैयार कर रहे हैं।

सैन्य बेस की साझा पहुंच ड्यूमा से मंजूर नई व्यवस्था का अर्थ

रूसी संसद ड्यूमा ने हाल ही में जिस समझौते को मंजूरी दी है, उसके तहत भारत और रूस एकदूसरे के सैन्य ठिकानों, पोर्ट और लॉजिस्टिक सुविधाओं का उपयोग कर सकेंगे।

यह Reciprocal Exchange of Logistic Support व्यवस्था भारत के अन्य प्रमुख साझेदारों के साथ हुए समझौतों की तर्ज पर है।

समझौता दोनों सेनाओं को ईंधन, मरम्मत, रखरखाव, रसद और मानवीय अभियानों में त्वरित सहयोग की सुविधा देगा।

इससे संयुक्त अभ्यास, हिंद महासागर में रूसी नौसैनिक उपस्थिति और आर्कटिक से लेकर हिंद प्रशांत तक ऊर्जा तथा सुरक्षा सहयोग के नए आयाम खुलते हैं, जो बीजिंग को स्पष्ट संकेत भेजते हैं।

विश्लेषकों की नजर में यह समझौता केवल तकनीकी लॉजिस्टिक दस्तावेज नहीं, बल्कि यह संदेश भी है कि भारत रूस संबंध अब केवल हथियार खरीद तक सीमित नहीं रहेंगे।

परंतु चीन कारक के कारण इस साझेदारी की ऊपरी सीमा और वास्तविक उपयोगिता पर सवाल बने रहेंगे, जिनका उत्तर आने वाले वर्षों में जमीनी तैनाती से ही मिलेगा।

तथाकथित पांचवीं पीढ़ी के विमान एस यू सत्तावन पर रस्साकशी

पुतिन की एक बड़ी प्राथमिकता अपने तथाकथित पांचवीं पीढ़ी के युद्धक विमान एस यू सत्तावन के लिए भारत जैसे ठोस ग्राहक को सुनिश्चित करना है। क्रेमलिन इस सौदे को रूस की रक्षा उद्योग के लिए आर्थिक और तकनीकी प्रतिष्ठा दोनों के स्तर पर जीवनरेखा मान रहा है।

दूसरी ओर भारतीय वायुसेना इस मंच को लेकर अब तक अनिच्छुक दिखी है। पहले संयुक्त विकास वाली एफजीएफए परियोजना का ठंडा पड़ जाना, फिर स्टेल्थ और एवियोनिक्स क्षमता पर पश्चिमी मानकों की तुलना में उठे सवालों ने भारतीय निर्णय निर्माताओं को सावधान कर दिया है।

भारत फ्रांस, संयुक्त राज्य और स्वदेशी उन्नत मध्यम लड़ाकू विमान कार्यक्रम के विकल्पों को साथ रख कर दीर्घकालिक संतुलन साधना चाहता है।

ऐसे में पुतिन की बेचैनी समझी जा सकती है, क्योंकि यदि भारत इस मंच को ठोस रूप से न अपनाए तो एस यू सत्तावन का भविष्य सीमित ग्राहकों तक सिमट सकता है।

इंजन तकनीक पर रूसी हिचक भारत की आत्मनिर्भरता के रास्ते की बाधा

भारत का पुराना अनुभव यह है कि रूस इंजन तकनीक साझा करने के मामले में लगातार असहज रहा है। न केवल पूर्ण इंजन प्रौद्योगिकी पर गोपनीयता रखी गई, बल्कि परीक्षण, प्रमाणन और दीर्घकालिक रखरखाव से जुड़ी कई महत्वपूर्ण तकनीकें भी भारत के साथ खुलकर साझा नहीं की गईं।

परिणाम यह हुआ कि भारत को अपने विमानन कार्यक्रमों में हमेशा किसी न किसी विदेशी इंजन पर निर्भर रहना पड़ा।

तेजस से लेकर भविष्य के ट्विन इंजन प्लेटफॉर्म तक हर जगह इंजन की आत्मनिर्भरता बड़ी चुनौती बनी रही। रूस की यह नीति अपने लिए दीर्घकालिक ग्राहक बनाए रखने की व्यावसायिक रणनीति के रूप में भी देखी जाती है।

यदि भारत स्वदेशी इंजन सहित अपना उन्नत लड़ाकू विमान सफलतापूर्वक विकसित कर लेता है, तो रूस के लिए उसके सबसे बड़े और भरोसेमंद ग्राहकों में से एक का भविष्य अनिश्चित हो जाएगा।

इसलिए इंजन तकनीक पर हिचक और विमान सौदे पर उत्साह, दोनों रूसी दृष्टिकोण की अंदरूनी आर्थिक गणना को उजागर करते हैं।

एस चार सौ की शेष बैटरियां विलंब और भरोसे की परीक्षा

भारत ने रूस से एस चार सौ वायु रक्षा प्रणाली की पांच इकाइयां खरीदी थीं, जिनमें से तीन की आपूर्ति हो चुकी है, जबकि दो बैटरियां अब भी लंबित हैं। यूक्रेन युद्ध, पश्चिमी प्रतिबंध और रूस की उत्पादन क्षमता पर दबाव ने आपूर्ति समयसारिणी को गम्भीर रूप से प्रभावित किया।

हाल के बयानों में रूसी और भारतीय रक्षा अधिकारियों ने आश्वस्त किया है कि शेष बैटरियों की डिलीवरी बीस सौ छब्बीस से बीस सौ सत्ताईस के बीच पूरी कर दी जाएगी।

फिर भी इस देरी ने भारत में भरोसे, विविधीकरण और वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं की आवश्यकता पर नई बहस छेड़ दी है।

ऐसी पृष्ठभूमि में पुतिन का यह दौरा केवल नए सौदों की चर्चा का मंच नहीं, बल्कि पुराने अनुबंधों के क्रियान्वयन, समयबद्ध आपूर्ति और प्रतिबंधों की परिस्थितियों में रूस की वास्तविक क्षमता को परखने का अवसर भी है। भारत अब भावनात्मक ऐतिहासिक मित्रता नहीं, बल्कि अनुबंधीय विश्वसनीयता के आधार पर निर्णय लेना चाहता है।

वैश्विक निगाहें दिल्ली पर क्यों टिकी हैं सौदों से आगे की कहानी

इन सब कारणों से पुतिन का वर्तमान भारत दौरा केवल एक और द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन नहीं रहा, बल्कि विश्व कूटनीति की कसौटी बन गया है। यूक्रेन युद्ध, पश्चिमी नेतृत्च वाले प्रतिबंध, चीन का उभार और पश्चिमी आर्थिक संकट, सब दिल्ली की मेज पर संकेंद्रित दिख रहे हैं।

यूरोपीय संघ और अमेरिकी नीति निर्माता यह देख रहे हैं कि भारत रूस के साथ कितनी निकटता दिखाते हुए भी पश्चिम के साथ अपने रिश्ते किस हद तक संतुलित रखता है।

वहीं बीजिंग यह परखना चाह रहा है कि क्या यह साझेदारी उसके लिए सामरिक चुनौती का रूप ले सकती है, विशेषकर हिंद प्रशांत में।

दूसरी ओर वैश्विक दक्षिण के कई देश भारत को एक ऐसे मध्यस्थ के रूप में देख रहे हैं जो पश्चिम रूस चीन के बीच संवाद की कोई व्यावहारिक राह निकाल सके।

इसलिए पुतिन की दिल्ली मौजूदगी वस्तुतः पूरे बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के भविष्य का प्रतीकात्मक मंच बन गई है।

ट्रम्प युग में भारत अमेरिका संबंध पुराने युद्धकालीन तनाव स्तर पर

डोनाल्ड ट्रम्प के नए कार्यकाल के साथ भारत अमेरिका संबंधों में अनिश्चितता और अविश्वास का स्तर उन वर्षों की याद दिला रहा है जब उन्नीस सौ पैंसठ और इकहत्तर में दक्षिण एशियाई युद्धों के दौरान वाशिंगटन की नीतियां भारत के लिए गंभीर चिंता का कारण बनी थीं।

ट्रम्प प्रशासन की आपूर्ति श्रृंखला, व्यापार, वीजा और मानवाधिकार संबंधी कठोर टिप्पणियों ने हाल के महीनों में नई दिल्ली पर दबाव बढ़ाया है।

उसी समय रूस के साथ ऊर्जा और रक्षा सहयोग पर अमेरिकी अप्रत्यक्ष नाराजगी भी खुलकर झलक रही है, जो भारत की सामरिक स्वायत्तता के सिद्धांत से टकराती दिखती है।

भारत इस बदले परिदृश्य को एक अवसर में भी बदलने की कोशिश कर रहा है। ट्रम्प के साथ दूरी और रूस के साथ नजदीकी का संयोजन नई दिल्ली को यह कहने का मौका देता है कि वह किसी एक खेमे की परिधि में कैद नहीं है, बल्कि अपने हितों के अनुरूप साझेदार चुनने में स्वतंत्र है।

रूस का सापेक्ष अकेलापन चीन की संगति और उसकी सीमाएं

रूस स्वयं भी पश्चिमी प्रतिबंधों और यूक्रेन युद्ध के कारण अभूतपूर्व आर्थिक और कूटनीतिक दबाव में है। हालांकि चीन का समर्थन उसे तत्कालिक राहत देता है, पर वही चीन रूस को दीर्घकालिक रूप से आर्थिक रूप से निर्भर बनाता जा रहा है, जिससे उसकी रणनीतिक स्वतंत्रता सीमित होती है।

यही कारण है कि भारत रूस संबंधों के बीच चीन एक स्थायी फांस की तरह उपस्थित रहता है। पाकिस्तान के विपरीत, चीन के साथ किसी प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति में रूस के लिए भारत का खुलकर साथ देना लगभग असंभव है, क्योंकि वह बीजिंग पर ऊर्जा, व्यापार और प्रौद्योगिकी में भारी निर्भर हो चुका है।

नई दिल्ली इस वास्तविकता को भलीभांति समझती है, इसलिए वह रूस के साथ अपने संबंधों को ‘‘सीमित पर गहरे’’ स्वरूप में ही विकसित कर सकती है।

मित्रता और ऐतिहासिक निकटता के बावजूद सीमा विवाद, हिंद प्रशांत और इंडो पैसिफिक की समूची सामरिक भूगोल पर अंतिम भरोसा केवल बहुपक्षीय संतुलन पर ही टिकता दिखता है।

मोदी द्वारा प्रोटोकॉल तोड़ना अमेरिका के लिए प्रतीकात्मक संदेश

ऐसे परिदृश्य में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सारे औपचारिक प्रोटोकॉल तोड़कर स्वयं एयरपोर्ट पर पुतिन का स्वागत करना केवल व्यक्तिगत दोस्ती का संकेत नहीं, बल्कि वॉशिंगटन सहित समूचे पश्चिम के लिए एक सशक्त प्रतीकात्मक संदेश है कि भारत के पास विकल्प मौजूद हैं और वह उन्हें दिखाने से डरता नहीं।

एयरपोर्ट रिसेप्शन जैसी गतिविधियां सामान्यतः राजनयिक शिष्टाचार की श्रेणी में रखी जाती हैं, पर इस समय यह कदम उस संकेत की तरह पढ़ा जा रहा है जिसमें भारत कह रहा है कि यदि उसके हितों की अनदेखी की गई तो वह केवल एक धुरी पर निर्भर रहने के लिए बाध्य नहीं रहेगा।

यह संदेश न केवल अमेरिका बल्कि यूरोप और चीन, दोनों के लिए है। भारत दिखा रहा है कि वह रूस के साथ समीपता बढ़ाकर अमेरिकी दबावों का संतुलन बनाता रह सकता है, जबकि पश्चिमी तकनीक और बाजारों के साथ अपने संबंधों को भी यथासंभव सक्रिय रखेगा। यही बहुध्रुवीय कूटनीति का व्यावहारिक रूप है।

चीन की मौजूदगी में रूस भारत संबंधों की सीमा और संदेह की रेखा

फिर भी अमेरिका, रूस और स्वयं भारत, तीनों जानते हैं कि चीन के रहते रूस के साथ संबंधों को असीमित और शंका रहित स्तर तक बढ़ाना संभव नहीं।

सीमा विवाद, हिंद महासागर में प्रतियोगिता और एशियाई सुरक्षा संरचना में चीन की महत्वाकांक्षा, इन सबने एक स्थायी अविश्वास की रेखा खींच दी है।

रूस चाहे जितना भी भारत के साथ नजदीकी प्रदर्शित करे, उसकी आर्थिक जकड़न और भू रणनीतिक मजबूरियां उसे बीजिंग के विरुद्ध वास्तविक पक्षधरता निभाने से रोकती रहेंगी। भारत को यह समझौता स्वीकार करना पड़ रहा है कि मॉस्को उसके लिए पूर्ण सुरक्षा भागीदार कभी नहीं बन सकता, केवल उपयोगी संतुलनकारी शक्ति बन सकता है।

इसीलिए भारत रूस संबंधों में अब भावनात्मक नारे कम और ठंडे दिमाग से गिने हुए कदम अधिक दिखते हैं। भारत न तो रूस को खोना चाहता है, न चीन के खिलाफ उस पर अंधा भरोसा कर सकता है। इस बीच अमेरिका और यूरोप के साथ समीकरण अलग पटरियों पर चलते रहेंगे।

विदेश नीति की शतरंज मोदी और पुतिन की अलग अलग गणनाएं

ऐसी स्थिति में मोदी और पुतिन दोनों अपनेअपने लाभ की शतरंजी चालें चल रहे हैं। पुतिन भारत के माध्यम से वैश्विक दक्षिण में अपनी वैधता पुनः स्थापित करना, ऊर्जा बाजार सुरक्षित रखना और रक्षा उद्योग के लिए दीर्घकालिक ग्राहक बनाए रखना चाहते हैं।

मोदी की गणना अलग है। वे रूस के साथ निकटता दिखाकर ट्रम्प प्रशासन और पश्चिम को यह सुस्पष्ट संकेत देना चाहते हैं कि भारत किसी भी प्रकार की दबाव आधारित नीति स्वीकार नहीं करेगा, चाहे वह तेल खरीद पर हो, रक्षा सौदों पर या मानवाधिकार बहस के नाम पर।

अंततः विदेश नीति में भाषण चाहे जितने भावनात्मक हों, समझौते हमेशा यथार्थ धरातल पर और राष्ट्रीय हित की कसौटी पर ही होते हैं।

पुतिन का यह दौरा भी इसी कठोर नियम से मुक्त नहीं है। सवाल केवल इतना है कि इस जटिल वैश्विक जुए में अगली चाल किसके खाते में बढ़त के रूप में दर्ज होगी।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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