कुतुब मीनार के प्रांगण में जैन आचार्य प्रणम्यसागर महाराज के सान्निध्य में 828 साल बाद णमोकार मंत्र गूंजा। 7 अप्रैल 2025 को दिगंबर जैन परंपरा के संत मुनि प्रणम्यसागर महाराज ने कुतुब मीनार के प्रांगण में बड़ी संख्या में साधकों को अर्हं ध्यानयोग का अभ्यास कराया और णमोकार महामंत्र का पाठ किया।

गौरतलब है कि क़ुतुब मीनार 27 जैन और हिन्दू मंदिरों को तोड़कर गुलाम वंश के शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 12वीं शताब्दी में बनवाई थी। उस समय यहाँ जैन मंदिरों में णमोकार मंत्र गूंजा करता था। इसके बाद इतनी शताब्दियों में यहाँ पर कोई भी जैन या हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान नहीं हो पाया था। पर अब 828 साल बाद एक बार फिर यह प्राचीन परिसर णमोकार मंत्र और ॐ अर्हं नमः के जाप से गुंजायमान हो गया।

कुतुब मीनार परिसर – हिंदू-जैन मंदिरों का विध्वंस और लुटेरों की बर्बरता का प्रतीक
कुतुब मीनार: दिल्ली के महरौली में खड़ा कुतुब मीनार परिसर आज भले ही कुछ लोगों के लिए एक पर्यटन स्थल हो, लेकिन हिंदू और जैन समुदाय के लिए यह दर्द का एक ज़िंदा सबूत है। यहाँ की ऊँची मीनार और क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद उस बर्बरता की गवाह हैं, जो 12वीं सदी में लुटेरे आक्रमणकारी क़ुतुबुद्दीन ऐबक जैसे आतंकवादियों ने हमारे पवित्र मंदिरों पर ढाई थी।

यह परिसर कोई साधारण इमारत नहीं है, बल्कि 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर, उनके पत्थरों और मूर्तियों को रौंदकर बनाया गया एक ढांचा है। यहाँ की हर दीवार, हर खंभा चीख-चीखकर उस ज़ुल्म की कहानी सुनाता है, जब हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ा गया, हमारे पूजा स्थलों को मिट्टी में मिला दिया गया और हमारी आस्था को कुचलने की कोशिश की गई। आज भी इस परिसर में बिखरे मंदिरों के अवशेष—खंडित मूर्तियाँ, कमल की नक्काशी और घंटियों के निशान—यह बताते हैं कि ये जगह कभी जैन और हिन्दू धर्म का गढ़ थी।
अब समय आ गया है कि हम इस सच को पूरी दुनिया के सामने लाएँ और इन बर्बर आक्रमणकारियों की करतूतों की निंदा करें। साकेत कोर्ट में दायर याचिका इस दिशा में एक बड़ा कदम है, जो हमारे मंदिरों को वापस पाने और पूजा का हक माँग रही है। मुनि प्रणम्यसागर महाराज द्वारा इस स्थल को पुनः अपने मंत्रोच्चार, आगमन और योग से पवित्र बनाना एक शुभ संकेत है।

कुतुब मीनार- 27 मंदिरों के ध्वंस का इतिहास
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1192 ई. में मोहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद सत्ता परिवर्तन
कुतुब मीनार: 1192 का साल हिंदुस्तान के इतिहास में एक काला दिन बनकर आया, जब तराइन की दूसरी लड़ाई में मोहम्मद गोरी ने राजा पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। यह हार भारत में धर्म के लिए एक बड़ा झटका थी। इस जीत के बाद गोरी ने दिल्ली को अपने कब्ज़े में ले लिया और अपने सबसे खूंखार और बर्बर सेनापति क़ुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासक बना दिया।
ऐबक एक गुलाम से बादशाह बना था। इस क्रूर आतंकी ने सत्ता संभालते ही हिंदुओं और जैनों पर कहर बरपाना शुरू कर दिया। ऐबक का मकसद भारत की धार्मिक पहचान को मिटाना था। मंदिरों को तोड़ना, मूर्तियों को खंडित करना और हिंदुओं को डराना—यही उसकी नीति थी। उसकी बर्बरता की मिसालें आज भी कुतुब मीनार परिसर में देखी जा सकती हैं।

हिंदू-जैन मंदिरों का विध्वंस और मस्जिद के निर्माण की शुरुआत
क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने महरौली में मौजूद 27 हिंदू और जैन मंदिरों को अपनी क्रूरता का शिकार बनाया। इन मंदिरों में देवी-देवता बसते थे, यहाँ पूजा होती थी, और ये आस्था के केंद्र थे। लेकिन ऐबक ने इन मंदिरों को तोड़ डाला, मूर्तियों को खंडित कर दिया और उनके पत्थरों को लूटकर क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद बनाई। यह मस्जिद हिंदुओं को नीचा दिखाने और उनकी आस्था को कुचलने का एक हथियार थी। ऐबक ने यह सब इसलिए किया ताकि भारतियों का मनोबल टूटे और वो डर के साये में जीने को मजबूर हों।
कुतुब मीनार और क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण:
कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कुतुब मीनार की स्थापना (1199 ई.)
कुतुब मीनार: क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में कुतुब मीनार की नींव रखी। यह मीनार 27 हिन्दू जैन मंदिरों के मलबे से बनाई गई थी और इसका मकसद था अपनी ताकत का ढोंग करना। इसकी पहली मंजिल उसने अपने शासन में बनवाई, और हर पत्थर में खण्डित मंदिरों की चीखें छिपी हैं।

मस्जिद निर्माण की शुरुआत (1197-1198 ई.)
क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण 1197-98 में शुरू हुआ, और यह ऐबक की क्रूरता का सबसे बड़ा सबूत है। “इस्लाम की ताकत” नाम से बनाई गई इस मस्जिद के लिए 27 मंदिरों को तोड़ा गया, उनके पत्थरों को लूटा गया और मूर्तियों को तोड़कर फेंक दिया गया। इतिहासकार भी मानते हैं कि यह कोई पूजा की जगह नहीं, बल्कि हुकूमत करने का हथियार थी। इस मस्जिद की हर ईंट पर हिंदुओं का खून और आँसू टपकते हैं। इसके खंभों पर मंदिरों की नक्काशी और टूटी मूर्तियाँ आज भी मौजूद हैं।

शम्सुद्दीन इल्तुतमिश द्वारा दोनों इमारतों का विस्तार
ऐबक की मौत के बाद उसका दामाद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश आया, जो उसी बर्बरता का वारिस था। उसने कुतुब मीनार में तीन मंजिलें और जोड़ीं और मस्जिद को बड़ा किया। यह विस्तार भी उसी लूट के माल से हुआ, जो हिंदू-जैन मंदिरों से छीना गया था।
मंदिरों के विध्वंस का प्रमाण और पुरातात्विक साक्ष्य
मस्जिद के प्रवेश द्वार पर लगा शिलालेख, जिसमें 27 मंदिरों को तोड़ने का स्पष्ट उल्लेख
कुतुब मीनार: क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के मुख्य पूर्वी प्रवेश द्वार पर एक प्राचीन शिलालेख मौजूद है, जो इस परिसर के निर्माण की सच्चाई को बयान करता है। इस शिलालेख में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि यह मस्जिद 27 हिंदू और जैन मंदिरों को ध्वस्त करके उनके मलबे से बनाई गई थी। यह इन आतंकियों का खुद का कबूलनामा है। ऐबक ने पहले मंदिरों को रौंदा और फिर उस पर गर्व करते हुए यह शिलालेख बनवाया।

वर्तमान में मस्जिद परिसर में दिखने वाले हिंदू-जैन मंदिरों के स्थापत्य अवशेष, देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियाँ और प्रतीक
आज भी इस मस्जिद में घुसते ही मंदिरों के टूटे हुए अवशेष दिखते हैं। खंभों पर कमल, घंटियाँ और कलश की नक्काशी साफ बताती है कि यहाँ पहले भारतीय वास्तुकला से बने सुंदर मंदिर थे। वहाँ बिखरी मूर्तियाँ—गणेश, शिव, ऋषभदेव, विष्णु की टूटी मूर्तियाँ—ऐबक की क्रूरता की गवाही देती हैं। जैन मंदिरों की विशेषता, जैसे तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और उनकी सादगी भरी नक्काशी, भी इन अवशेषों में झलकती है। इन मूर्तियों को तोड़ा गया, लेकिन फिर भी ये अपनी पहचान बता रही हैं।

भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) द्वारा परिसर में लगाए गए सूचना बोर्ड और प्रमाणित दस्तावेजों के साक्ष्य
एएसआई ने भी इस सच को स्वीकार किया है। वहाँ लगे ASI के बोर्ड पर साफ लिखा है कि यह मस्जिद 27 मंदिरों को तोड़कर बनाई गई। इसके अलावा, एएसआई की प्रकाशित पुस्तक “इन्वेंटरी ऑफ मॉन्यूमेंट्स ऑफ साइट्स ऑफ नेशनल इंपॉर्टेंस” (भाग एक, पृष्ठ 141) में भी इस बात का विस्तृत उल्लेख है। इस पुस्तक में लिखा गया है कि गुलाम वंश के शासक क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 में इन मंदिरों को ध्वस्त करवाया और उनके अवशेषों से मस्जिद का निर्माण कराया। यह कोई कहानी नहीं, बल्कि सरकारी सबूत है।

मुस्लिम इतिहासकारों (हसन निज़ामी, मौलाना अब्दुल हई आदि) के उल्लेख
कुतुब मीनार: इस घटना की पुष्टि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी की है। हसन निज़ामी, जो क़ुतुबुद्दीन ऐबक के समय का इतिहासकार था, ने अपनी किताब “ताज उल मज़ीर” में लिखा है कि जब विजेता ने शहर पर कब्ज़ा किया, तो उसने इसे मूर्ति पूजा से मुक्त कर दिया और सालों से चली आ रही मूर्तियों को तोड़कर उनके ऊपर मस्जिद बना दी। इसी तरह, मौलाना हकीम सैयद अब्दुल हई ने अपने लेखन में उल्लेख किया कि ऐबक मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी था और मूर्तियों को तोड़ना उसके शासनकाल में आम बात थी।

मूल पहचान: “ध्रुव स्तंभ” और ज्योतिषीय महत्ता
महरौली (मिहिरावली) की स्थापना का कारण एवं वराहमिहिर का योगदान
कुतुब मीनार: महरौली परिसर को आज भले ही कुछ लोग कुतुब मीनार कहें, लेकिन सच तो यह है कि यह जगह कभी मिहिरावली कहलाती थी। इसका नाम पड़ा था महान हिंदू गणितज्ञ और ज्योतिषी वराहमिहिर के नाम पर, जो गुप्त साम्राज्य के चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के ज्योतिष विद्वान थे।
वराहमिहिर ने यहाँ नक्षत्रों के अध्ययन के लिए एक खास प्रयोगशाला बनाई थी, जहाँ 27 नक्षत्रों की गणना होती थी। यहाँ ज्योतिषीय गणनाओं के साथ-साथ नक्षत्र देवताओं की पूजा भी होती थी। मिहिरावली गुप्त काल की समृद्ध सांस्कृतिक और बौद्धिक परंपरा का प्रतीक था।

नक्षत्र अध्ययन के लिए निर्मित “मेरु स्तंभ” या “ध्रुव स्तंभ” का विवरण
कुतुब मीनार मूल रूप से “मेरु स्तंभ” या “ध्रुव स्तंभ” था। 72.5 मीटर ऊँचा यह ढांचा अपने समय की इंजीनियरिंग का एक चमत्कार था, जिसे वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने नक्षत्रों के अवलोकन के लिए डिज़ाइन किया था। इस स्तंभ में 27 झरोखे बने हुए हैं, जो हिंदू ज्योतिष में मान्य 27 नक्षत्रों का प्रतीक माने जाते हैं। इन झरोखों से खगोलशास्त्री आकाश का निरीक्षण करते थे और नक्षत्रों की गति को रिकॉर्ड करते थे। इसके शीर्ष तक पहुँचने के लिए 379 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं, और हर मंजिल पर बालकनियाँ थीं, जो अवलोकन के लिए उपयोगी थीं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह “ध्रुव स्तंभ” नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह ध्रुव तारे (पोलर स्टार) के संरेखण में बनाया गया था, जो नक्षत्र अध्ययन में एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु होता है। इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक और गोपाल गोडसे जैसे विद्वानों ने अपने शोध में इसे एक हिंदू संरचना बताया है, यह कोई अज़ान देने वाली मीनार नहीं थी, बल्कि हिंदुओं का एक वैज्ञानिक चमत्कार थी, जिसे नक्षत्रों के अध्ययन के लिए बनाया गया था।
स्तंभ का नाम “कुतुब मीनार” में परिवर्तन कैसे और कब हुआ
जब क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली पर कब्ज़ा किया, तो इस ध्रुव स्तंभ का इस्लामीकरण कर दिया गया। इतिहासकार गुंजन अग्रवाल के अनुसार, ऐबक ने इस स्तंभ पर कुरान की आयतें खुदवाईं और इसका नाम “कुतुब मीनार” रखा। अरबी भाषा में “कुतुब” का अर्थ “धुरी” या “संतुलन” होता है, जो इसके मूल ध्रुव स्तंभ होने की ओर इशारा करता है। “मीनार” का अर्थ “स्तंभ” होता है। इस तरह, इस प्राचीन हिंदू संरचना का नाम बदलकर इसे इस्लामी पहचान दे दी गई।

परिसर में मौजूद 1600 साल पुराना “विष्णु स्तंभ” या “गरुड़ ध्वज”
इस परिसर में एक और सबूत है 1600 साल पुराना “विष्णु स्तंभ” या “गरुड़ ध्वज”। यह लोहे का बना हुआ लौह स्तंभ आज भी वहाँ खड़ा है। इसे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय बनवाया गया था, और इस पर भगवान विष्णु का ध्वज अंकित है। लगभग 7 मीटर ऊँचा यह स्तंभ आज भी जंग से मुक्त है, जो उस समय की धातु विज्ञान की उन्नति को दर्शाता है। इस पर एक शिलालेख है, जो इसे भगवान विष्णु को समर्पित बताता है।

ऐतिहासिक साक्ष्य और पुस्तकों से प्रमाण
इब्ने बतूता, जे. ए. पेज, गोर्डन रिस्ले हर्न, जॉन एल. एस. पॉसिटो जैसे देशी-विदेशी इतिहासकारों के वर्णन
कुतुब मीनार: कुतुब मीनार परिसर के इतिहास को कई देशी और विदेशी इतिहासकारों ने अपने लेखन में दर्ज किया है। 14वीं शताब्दी के मशहूर यात्री इब्ने बतूता ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा कि दिल्ली पर कब्ज़ा करने से पहले यह जगह जैन मंदिरों का केंद्र थी, जिसे बाद में मस्जिद में बदल दिया गया। उन्होंने मस्जिद के पूर्वी द्वार पर तांबे की दो बड़ी मूर्तियों का ज़िक्र किया, जो पत्थरों से जुड़ी थीं।
वहीं, एएसआई के पूर्व निदेशक जे. ए. पेज ने अपनी पुस्तक “मेमोरिज ऑफ दी आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया” (1926) में मस्जिद के शिलालेखों का अनुवाद प्रस्तुत किया, जिसमें लिखा है कि यह 27 मंदिरों के मलबे से बनी थी।

ब्रिटिश इतिहासकार गोर्डन रिस्ले हर्न ने अपनी किताब “दी सेवन सिटीज ऑफ दिल्ली” (1906) में बताया कि मस्जिद में मूर्तियों के चेहरे काटे गए और कुछ को प्लास्टर से ढका गया, जो 800 साल पुरानी थीं।
जॉन एल. एस. पॉसिटो की पुस्तक “ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इस्लाम” में लिखा है कि क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद भारत की पहली शासक-निर्मित मस्जिद थी, जिसमें मंदिरों के अवशेष शामिल थे।

अदालत में दाखिल है याचिका
दिल्ली के साकेत न्यायालय में दाखिल याचिका (हरिशंकर जैन, रंजना अग्रिहोत्री, जितेंद्र सिंह बिशेन)
कुतुब मीनार: 2022 में दिल्ली के साकेत न्यायालय में एक याचिका दायर की गई, जिसने कुतुब मीनार परिसर को फिर से सुर्खियों में ला दिया। यह याचिका— अधिवक्ता हरिशंकर जैन, रंजना अग्रिहोत्री और सामाजिक कार्यकर्ता जितेंद्र सिंह ‘बिशेन’—द्वारा दायर की गई थी। इस याचिका का मुख्य उद्देश्य क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में हिंदुओं और जैनों को अपने धार्मिक स्थलों पर पूजा-अर्चना का अधिकार दिलाना है।
याचिका में यह भी माँग की गई है कि इन मंदिरों को पुनर्जनन किया जाए और यहाँ भगवान विष्णु, ऋषभदेव, गणेश, शिव, माँ गौरी, सूर्य देवता और तीर्थंकरों की पूजा की अनुमति दी जाए। आज 2025 में महावीर जयन्ती के अवसर पर मुनि प्रणम्यसागर ने कुतुब मीनार में अरिहंत भगवान के मन्त्रों का पाठ करके और योग ध्यान कराके इसका सूत्रपात कर दिया।

हिंदू-जैन मंदिरों के पुनः प्रतिष्ठापन और पूजा-अर्चना का अधिकार प्रदान करने की मांग
कुतुब मीनार: याचिका में मुख्य रूप से यह माँग की गई है कि अदालत कुतुब मीनार परिसर को 27 हिंदू और जैन मंदिरों का मूल स्थान घोषित करे और यहाँ पूजा-अर्चना का अधिकार बहाल किया जाए। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यहाँ तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और भगवान विष्णु सहित अन्य हिंदू देवताओं के मंदिर थे, जिन्हें नष्ट कर दिया गया। उनकी माँग है कि इन मंदिरों को पुनर्जनन कर पूजा-दर्शन और सभी धार्मिक अनुष्ठानों की अनुमति दी जाए।

इसके साथ ही, उन्होंने भारत सरकार से एक न्यास स्थापित करने की अपील की है, जिसे इस कुतुब मीनार परिसर के रखरखाव और प्रशासन का अधिकार सौंपा जाए। यह न्यास ध्रुव स्तंभ और 27 मंदिरों की देखरेख करेगा। याचिका में यह भी कहा गया है कि एएसआई एक्ट 1958 की धारा 16 और 19 के तहत पूजा करने का अधिकार दिया जा सकता है। खास बात यह है कि याचिकाकर्ताओं ने वर्तमान ढांचे को तोड़ने की माँग नहीं की, बल्कि मौजूदा संरचना में धार्मिक अधिकार बहाल करने की बात कही।

हरिशंकर जैन और रंजना अग्रिहोत्री द्वारा दिए गए ऐतिहासिक तथ्य एवं तर्क
हरिशंकर जैन, जो खुद को तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का वाद मित्र मानते हैं, का कहना है कि क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद 27 मंदिरों के मलबे से बनी थी, और इसके प्रमाण मस्जिद की दीवारों पर खंडित मूर्तियों और शिलालेखों में मौजूद हैं। उनका तर्क है कि यह परिसर मूल रूप से हिंदू और जैन धार्मिक स्थल था, जिसे इस्लामी शासकों ने नष्ट कर दिया। वहीं, रंजना अग्रिहोत्री, जो भगवान विष्णु की वाद मित्र हैं, ने लौह स्तंभ को “गरुड़ ध्वज” बताते हुए कहा कि यह हिंदू आस्था का प्रतीक है और गुप्त काल से संबंधित है।
नेपाल की सत्ता का रक्त चरित्र: जो अब तक धधक रहा है
दरगाह : यहाँ हिन्दू माथा टेकते हैं या अस्तित्व का सरेंडर करते हैं ?