मोहन भागवत
गांधी के कथन पर मोहन भागवत की आपत्ति
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि महात्मा गांधी का यह कहना सही नहीं था कि ब्रिटिश शासन से पहले भारत एकजुट नहीं था।
नागपुर में एक पुस्तक महोत्सव में उन्होंने कहा कि यह धारणा स्वयं गांधी पर औपनिवेशिक शिक्षण के प्रभाव के कारण बनी थी।
भागवत के अनुसार हिंद स्वराज में जो टिप्पणी गांधी ने लिखी, वह ब्रिटिशों द्वारा दी गई झूठी शिक्षा का परिणाम थी और इतिहास इसका समर्थन नहीं करता।
औपनिवेशिक शिक्षण की भूमिका और ऐतिहासिक निरंतरता
भागवत ने कहा कि गांधी का यह निष्कर्ष कि ब्रिटिशों के आगमन से पूर्व हम ‘एक’ नहीं थे, औपनिवेशिक पाठों की देन था।
उन्होंने कहा कि ब्रिटिशों ने भारतीय इतिहास को इस तरह पढ़ाया कि भारतीय समाज को विभाजित और असंगठित दिखाया जाए।
उनका कहना था कि वास्तविक इतिहास में भारत का सांस्कृतिक राष्ट्र बहुत पहले से विद्यमान था और उसकी एकता किसी आधुनिक राजनीतिक संकल्पना पर आधारित नहीं थी।
आधुनिक राष्ट्र–राज्य की संकल्पना और भारतीय राष्ट्र का स्वरूप
भागवत ने स्पष्ट किया कि भारतीय राष्ट्र आधुनिक राष्ट्र–राज्य की परिभाषाओं से आगे की चीज़ है। उनके अनुसार भारत का राष्ट्र किसी राज्य द्वारा निर्मित नहीं हुआ, बल्कि यह अनादि काल से अस्तित्व में है।
उन्होंने कहा कि जब राज्य नहीं था तब भी राष्ट्र था, जब दासता का काल था तब भी राष्ट्र था और जब चक्रवर्ती सम्राटों के शासन का समय था तब भी राष्ट्र विद्यमान था।
‘स्टेट’ और ‘नेशन’ के बीच भ्रम
उन्होंने कहा कि ‘स्टेट’ और ‘नेशन’ जैसे शब्दों में अंतर न समझने से अक्सर भ्रम पैदा होता है। यदि कोई लेखक ‘स्टेट’ शब्द का प्रयोग करता है तो वह भाव संप्रेषित नहीं होता जो भारतीय ‘राष्ट्र’ की अवधारणा में निहित है। भागवत ने कहा कि यह पूरी तरह अलग अनुभूति है, जिसे आधुनिक राजनीतिक भाषा नहीं समझा पाती।
राष्ट्रीयता और तर्क की सीमाएँ
स्वयं को राष्ट्रवादी कहे जाने के प्रश्न पर भागवत ने कहा कि वे राष्ट्रवादी हैं, लेकिन यह पूछना ही अनावश्यक है।
उन्होंने कहा कि क्या कोई व्यक्ति भावनाओं से राष्ट्रवादी होता है या तर्क से, यह भी सीमित प्रश्न है, क्योंकि दुनिया की अनेक बातें तर्क से परे होती हैं। राष्ट्रभावना भी केवल तर्क से नहीं समझी जा सकती।
पश्चिमी राजनीतिक विचार और भारतीय दृष्टि का अंतर
भागवत ने कहा कि पश्चिमी राजनीतिक विचार संघर्ष-मूलक वातावरण में विकसित हुए, इसलिए वे भिन्न प्रकार की राष्ट्र अवधारणाओं को स्वीकार नहीं करते।
एक विचार बन जाने पर वे अन्य विचारों के लिए द्वार बंद कर देते हैं और उन्हें ‘इज़्म’ के रूप में बाँध देते हैं।
इसी प्रवृत्ति के कारण भारत की सभ्यतागत पहचान को बाहरी लोगों ने ‘नेशनलिज़्म’ का नाम दे दिया, जबकि भारतीय राष्ट्र का स्वरूप पूरी तरह अलग है।
राष्ट्रीयता बनाम राष्ट्रवाद और संघ का दृष्टिकोण
उन्होंने कहा कि भारत के संदर्भ में ‘राष्ट्रीयता’ शब्द अधिक उपयुक्त है। उनके अनुसार अत्यधिक राष्ट्रवादी गर्व ने दो विश्व युद्धों को जन्म दिया था, इसलिए कुछ लोग ‘नेशनलिज़्म’ शब्द से डरते हैं।
संघ स्वयं इसीलिए ‘नेशनहुड’ के प्रयोग को तरजीह देता है और भारतीय राष्ट्रभावना को पश्चिमी राष्ट्रवाद से अलग मानता है।

