Malegaon Bomb Blast Case: 17 साल की लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद 2008 के मालेगांव बम विस्फोट मामले में आखिरकार एनआईए की विशेष अदालत ने फैसला सुना दिया है।
इस बहुचर्चित मामले में बीजेपी की पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, सेना के कर्नल श्रीकांत पुरोहित समेत सभी 11 आरोपियों को अदालत ने बरी कर दिया।
इस ऐतिहासिक फैसले ने न सिर्फ वर्षों से चली आ रही कानूनी जद्दोजहद को विराम दिया है, बल्कि उस कथित नैरेटिव को भी खारिज कर दिया है, जिसमें पहली बार किसी आतंकी हमले में ‘हिंदू आतंकवाद’ की थ्योरी को पेश किया गया था।
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Malegaon Bomb Blast Case: पुरोहित लाया था RDX !
मुंबई स्थित एनआईए की विशेष अदालत में सुनवाई कर रहे जज ए. के. लाहोटी ने स्पष्ट रूप से कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि मालेगांव में विस्फोट वाली बाइक किसने पार्क की थी, किसने बम रखा, और कौन आरडीएक्स लाया।
अदालत ने कहा कि मामले की जांच पुलिस, एटीएस और बाद में एनआईए द्वारा की गई, लेकिन तीन-चार एजेंसियों के बावजूद भी कोई ऐसा ठोस साक्ष्य नहीं मिला, जिससे यह साबित किया जा सके कि आरोपियों का इस धमाके से कोई सीधा संबंध था।
जज ने यह भी कहा कि जिस बाइक में बम रखा गया था, उसके पार्क करने के स्थान और जिम्मेदार व्यक्ति को लेकर जांच में गंभीर खामियां थीं।
कर्नल पुरोहित के खिलाफ आरडीएक्स लाने का कोई सबूत नहीं मिला, और साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य मौजूद नहीं थे। इसी आधार पर सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया।
रमजान के महीने में धमाका
29 सितंबर, 2008 की रात मालेगांव के भिक्खू चौक पर रमजान के दौरान रात 9:35 बजे एक बम धमाका हुआ था। इस विस्फोट में छह लोगों की मौत हो गई थी और 100 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।
इस धमाके ने सभी को चौंका दिया। वहीं इस घटना के अगले दिन से नवरात्रि शुरू होने वाली थी। ब्लास्ट के बाद इलाके में दहशत फैल गई थी और सांप्रदायिक तनाव की आशंका को लेकर पूरे शहर को छावनी में बदल दिया गया था।
जांच और गिरफ्तारी
धमाके के दो हफ्तों के भीतर महाराष्ट्र एटीएस ने इस मामले में साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और अन्य को गिरफ्तार कर लिया। एटीएस का दावा था कि यह हमला ‘अभिनव भारत’ नाम के संगठन की साजिश का हिस्सा था,
जो कथित रूप से कट्टरपंथी विचारधारा से प्रेरित था। जनवरी 2009 में एटीएस ने पहली चार्जशीट दाखिल की जिसमें कुल 11 लोगों को आरोपी बनाया गया। इसके बाद 2011 में यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया गया।
मार्च 2016 में एनआईए ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की और मकोका (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट) जैसे कड़े आरोप हटा दिए गए।
यही वह मोड़ था जब केस की धाराएं हल्की हुईं और अदालत ने सबूतों के आधार पर नियमित सुनवाई शुरू की।
फैसला आने में क्यों लगी इतनी देर?
इस मामले की सुनवाई अप्रैल 2025 में पूरी हो गई थी, लेकिन फैसला आने में देरी इसलिए हुई क्योंकि इसमें एक लाख से अधिक पन्नों के दस्तावेज और सबूत थे।
कोर्ट को सारे रिकॉर्ड का अध्ययन करने के लिए अतिरिक्त समय चाहिए था। अब 31 जुलाई 2025 को आखिरकार फैसला सुनाया गया, जिससे 17 साल पुराना यह केस बंद हो गया।
कांग्रेस शासनकाल में हुई थी कार्रवाई
जब मालेगांव में विस्फोट हुआ था, तब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार और महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की सरकार सत्ता में थी।
राज्य के मुख्यमंत्री तब विलासराव देशमुख थे, जो कुछ महीनों बाद अशोक चव्हाण से पदस्थापित हो गए। यह वही दौर था जब ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द पहली बार भारत की राजनीति में जोर पकड़ रहा था।
इस केस में आरोप लगने के तुरंत बाद कुछ मीडिया संस्थानों और राजनीतिक दलों द्वारा इसे “हिंदू आतंकवाद” का उदाहरण बताया गया। इससे देशभर में एक नैरेटिव बनने लगा कि अब आतंकवाद केवल एक समुदाय तक सीमित नहीं रहा।
साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित जैसे लोगों को कठघरे में खड़ा किया गया, जिससे यह संदेश गया कि अब सेना और संत समाज भी आतंकी गतिविधियों से जुड़ चुका है।
फैसले ने बदली तस्वीर
एनआईए कोर्ट का यह फैसला न केवल आरोपियों के लिए राहत लेकर आया है, बल्कि इसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बिना ठोस सबूतों के किसी समुदाय को “आतंकवादी” करार देना संविधान और न्याय की मूल भावना के खिलाफ है।
यह फैसला एक तरह से उस आरोप को भी खारिज करता है, जिसमें हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की गई थी।