राजस्थान के झालावाड़ में शुक्रवार सरकारी स्कूल की छत गिरने से 7 बच्चों की दर्दनाक मौत हो गई जबकि कई बच्चे जीवन मृत्यु की जंग लड़ रहे हैं। उसके बाद शनिवार को नागौर के डेगाना के सरकारी स्कूल की छत भी गिर गई, यद्यपि उस वक्त वहां कोई न होने से कई जानें बच गईं।
ऐसे में राजस्थान के शिक्षा विभाग पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं और चौंकाने वाली जानकारियां सामने आ रही हैं।
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चार बार मांगी गई जानकारी, मरम्मत के लिए राशि फिर भी शून्य
राज्य सरकार ने गत वर्ष सभी जिलों से जर्जर भवनों और मरम्मत योग्य स्कूलों की जानकारी कुल चार बार अलग-अलग फॉर्मेट में मंगवाई थी। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन सूचनाओं के बावजूद मरम्मत हेतु कोई राशि नहीं दी गई।
नियमों के अनुसार, इस प्रकार की राशि ADPC (जिला परियोजना समन्वयक) के माध्यम से व्यय की जानी होती है। परंतु यह राशि सत्र के आरंभ में देने के बजाय मार्च अंत में दी जाती है, जिससे काम की गुणवत्ता और पारदर्शिता दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं।

जयपुर से मंजूरी, जिलों में रोकी जाती है; अंत में बिल और कमीशन का खेल
जानकारी के अनुसार, जयपुर से जब कोई वित्तीय स्वीकृति जारी होती है तो ADPC उसे कुछ दिन रोक देता है। इसके बाद मामला CBEo स्तर पर अटकता है। स्कूलों को राशि फरवरी या मार्च के अंत में दी जाती है ताकि अधिकारी जल्दी-जल्दी बिल बनवाकर अपना कमीशन निकाल सकें।
यदि यह राशि समय पर खर्च न हो तो 31 मार्च को लैप्स हो जाती है। हमारे जिले में ही गत वर्ष मरम्मत के लिए निर्धारित 17 करोड़ रुपये बिना उपयोग के खत्म हो गए।
रमसा के अधिकारी वही, जो कांग्रेस शासन में नियुक्त हुए थे
रिपोर्ट्स के अनुसार, रमसा योजना से संबंधित जिम्मेदार अधिकारी वही हैं जो कांग्रेस शासनकाल में नियुक्त हुए थे। डेढ़ साल बीतने पर भी भाजपा सरकार व्यवस्था सुधार नहीं कर पाई।
इन कांग्रेस नेताओं के करीबी अधिकारियों पर जयपुर से आने वाले सैकड़ों करोड़ रुपये के बजट के वितरण का दायित्व है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि ये अधिकारी कांग्रेस विचारधारा के न सिर्फ समर्थक हैं, बल्कि सलीम मोहम्मद जैसे कांग्रेस के करीबी लोगों के ‘पिट्ठू’ के तौर पर खुलेआम काम कर रहे हैं।
इसी नेक्सस के कारण कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष और पूर्व शिक्षामंत्री गोविन्द डोटासरा ने सरकार पर तीखा हमला करते हुए कहा था कि भजनलाल सरकार में मंत्रियों से ज्यादा तो कांग्रेस के नेताओं की ज्यादा चलती है। अभी तक वही लोग पदों पर हैं।
मदरसों और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों को प्राथमिकता
इन अधिकारियों पर आरोप है कि वे आज भी संघ के समर्थकों का मजाक उड़ाते हैं और सीमावर्ती क्षेत्रों में रमसा के बजट का वितरण चुन-चुनकर मुस्लिम बहुल गांवों, मदरसों और कांग्रेस से जुड़े कर्मचारियों के हित में करते हैं। इससे शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य पीछे छूट जाता है और पक्षपात की नीति हावी हो जाती है।
राज्य सरकार की मंशा ही नहीं थी बजट व्यय की
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर यह भी आरोप है कि उसकी कोई मंशा ही नहीं थी कि बजट का सही तरीके से व्यय किया जाए। छात्रावासों में रहने वाले बच्चों को दिए जाने वाले भोजन जैसे अनिवार्य कार्यों का बजट तक रोक दिया गया था।
इससे समाज कल्याण से जुड़े विभागों और शिक्षा संस्थानों की व्यवस्था ठप होने की कगार पर पहुंच गई थी।
विद्यालय समिति को अधिकार नहीं, टेंडर के नाम पर भ्रष्टाचार
केंद्र सरकार की रणनीति थी कि छोटे बजट और गतिविधियों का व्यय विद्यालय प्रबंध समिति द्वारा किया जाए ताकि जरूरत अनुसार स्थानीय व्यय हो सके। परंतु राज्य स्तर पर इसे रोक दिया गया और स्कूलों को 10,000 रुपये से अधिक खर्च करने की अनुमति नहीं दी गई।
दीवार लेखन जैसी गतिविधियों के लिए 4.5 लाख रुपये का बजट जिला अधिकारियों ने स्वयं आपसी बंदरबांट में खर्च कर दिया।
JEN की नियुक्ति में भी खेल, वर्षों से एक ही व्यक्ति को AEN का चार्ज
जिले में JEN की नियुक्तियों में भी पक्षपात का आरोप है। बताया गया कि 3-4 JEN में से एक खास धर्म विशेष के मजहबी अधिकारी को वर्षों से AEN का चार्ज देकर टिकाए रखा गया है, जिसे आज तक नहीं बदला गया।
इस चयन को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। इससे कार्यों में पारदर्शिता और निष्पक्षता की उम्मीदें टूटती दिखीं।
जब स्कूल गिरता है, दोष मास्टरों पर, जबकि उनका कोई दोष नहीं
दुर्घटना होने पर सबसे पहले शिक्षक को दोषी ठहराया जाता है, जबकि न तो मरम्मत का बजट उनके पास होता है, न ही निर्माण कार्य की कोई जिम्मेदारी।
इसके उलट कई शिक्षक आज भी अपनी जेब से चॉक, डस्टर, कुर्सी, रंग, दरी जैसी चीजें खरीदकर स्कूल चलाते हैं। कई बार पोषाहार बनाने वाली महिलाओं को महीनों तक मानदेय नहीं दिया जाता, तब प्रधानाचार्य अपने पैसे से भुगतान करते हैं।
बजट ऊपर बंटता है अपनों में, नीचे संघर्ष करते शिक्षक
शिक्षा परिषद से जारी बजट का वितरण केवल ‘अपने लोगों’ में किया जाता है। तरह-तरह की योजनाएँ बनाकर लाभ कांग्रेस-समर्थित कर्मचारियों और समुदाय विशेष तक सीमित किया जाता है।
और जब स्कूल की दीवार गिरती है या कोई बच्चा घायल होता है, तो सारा दोष शिक्षक पर मढ़ दिया जाता है। यह पूरा तंत्र अब एक पक्षपातपूर्ण और जड़ सिस्टम में तब्दील हो चुका है, जहां ईमानदार शिक्षकों के पास सिर्फ संघर्ष शेष है।