कोरोना
कोरोना के बाद कभी अपने ही जीवन से नज़र मिलाकर देखा है? कैलेंडर कहता है सिर्फ़ चार पाँच साल बीते हैं, पर भीतर से लगता है जैसे कोई युग बीत गया हो।
शरीर किसी और रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है, मन किसी और दिशा में भाग रहा है, और समय किसी तीसरी गति से फिसल रहा है। सवाल उठता है, बदला सचमुच समय है या बदल गई हमारी चेतना है?
2020 से पहले का कालखंड: बचपन का स्वप्न, बाद का समय जैसे प्रलय के बाद की धरती
कोरोना के पहले का दौर बहुतों को अब किसी दूर के बचपन के सपने जैसा लगता है। सड़कें, बाज़ार, दफ्तर, रिश्ते, सब कुछ जैसे किसी और जन्म की बात हो।
महामारी के बाद की दुनिया में कदम रखते ही लगा मानो किसी प्रलय के बाद बची हुई पृथ्वी पर एक नई प्रजाति ने नया समाज बसाया हो। वही हम हैं, पर जीवन की रफ़्तार, संबंधों की परिभाषा, नैतिकता के मानक, सब बदल चुके हैं।
आज के शहर, दफ्तर, स्कूल, सोशल मीडिया, सब मिलकर एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिसमें लोग भी नए हैं, दिनचर्या भी नई है, प्रतिमान भी नए हैं और नैतिकता भी।
जो बात पहले असभ्यता, असंयम या विकार मानी जाती थी, वह अब “नॉर्मल” बन चुकी है। जो बातें कभी दुर्लभ सुख थीं, वे आज रोज़मर्रा की आदत बन गई हैं।
सक्रिय आयु की घटती अवधि: शरीर का कैलेंडर और तेज हो गया
एक सबसे बड़ा अनुभव यह है कि जैसे सक्रिय आयु की अवधि सिमट रही है। फटाफट जवान होना, और लगभग उतनी ही तेजी से बूढ़े हो जाना, यह सिर्फ़ काव्यात्मक वाक्य नहीं, बहुतों की प्रत्यक्ष अनुभूति है।
घुटनों का जाम होना, पीठ का जकड़ जाना, बालों में अचानक आई सफेदी, माथे के बीचोंबीच उभरती खाली ज़मीन, मानो किसी ने “फास्ट फ़ॉरवर्ड” का बटन दबा दिया हो।
कोरोना काल की बंदी में शरीर स्थिर रहा, पर स्क्रीन पर चलती दुनिया ने दिमाग की गति कई गुना बढ़ा दी। शरीर को धूप, जमीन, परिश्रम, स्वेद की जितनी ज़रूरत थी, वह नहीं मिली।
कुर्सी, बिस्तर और मोबाइल के त्रिकोण में फँसा शरीर अचानक बूढ़ा लगने लगा। सक्रिय आयु घटने की अनुभूति दरअसल जीवन के असंतुलित समीकरण की सूचना है, दिमाग ओवरऐक्टिव, शरीर अंडरयूज़्ड।
अभाव से ओवरईटिंग तक: नई बीमारियाँ, नया सामान्य
दुनिया की बड़ी तस्वीर पर नज़र डालें तो एक और भयानक विरोधाभास सामने आता है। भुखमरी से मरने की खबरें जैसे न्यूज़रूम से बाहर धकेली जा चुकी हों। कई देशों में, कई शहरों में अब संकट उलटा है, ओवरईटिंग, ओवरकैलोरी, ओवरकंजम्पशन से उत्पन्न बीमारियाँ।
बिजली, पानी, टैंकर, इन्वर्टर, रिचार्ज, ये सब रोज़ के प्रबंधन का हिस्सा हैं, संकट का नहीं। पानी का प्रेशर कम हो तो लोग टैंकर बुला लेते हैं, बिजली जाये तो इन्वर्टर या जेनरेटर लगा लेते हैं। रिचार्ज के पैसे, गाड़ी के पेट्रोल के पैसे, शाम की दारू के पैसे, यह सब “फ़िक्स्ड कॉस्ट” की तरह जीवन में जोड़ दिये गये हैं।
इस प्रचुरता के बीच विडम्बना यह है कि पोषण बढ़ा है, पर स्वास्थ्य नहीं; विकल्प बढ़े हैं, पर संयम नहीं; सुविधा बढ़ी है, पर संतोष नहीं। अभाव की जगह अब अति-उपभोग ने ले ली है, और उसी से जन्म ले रही है नयी थकान, नई बीमारियाँ, नई प्रकार की निष्क्रियता।
नई पीढ़ी: सहज सुविधाएँ, ढीले वर्जनाएँ, बदली हुई सौंदर्यशास्त्र
आज की युवा पीढ़ी के लिए बहुत कुछ “सहज” है, जो पिछली पीढ़ियों के लिए विलास या वर्जना था। स्मार्टफोन, हाई स्पीड डेटा, ऑनलाइन फूड, फ़ैशन ब्रांड, डेटिंग कल्चर, यह सब किसी बड़े प्रयास या विशेषाधिकार से नहीं, बल्कि “डिफ़ॉल्ट सेटिंग” के रूप में जीवन में उपस्थित है।
परहेज़, वर्जना, लाज, मर्यादा, इनके पुराने फॉर्मूले ढीले पड़े हैं। कपड़े बदले हैं, चाल बदली है, बोलचाल बदली है। सौंदर्य अब स्वाभाविक चेहरे में कम और बनावटी फ़िल्टर में अधिक खोजा जा रहा है। गहराई की जगह “लुक्स” और “प्रेज़ेन्स” ने ले ली है।
यह सब देखकर लगता है कि हाँ, सचमुच लोग सुंदर भी हुए हैं, संभल कर कपड़े पहनते हैं, बोलना सीख गये हैं, पर उसी अनुपात में वे कितने स्थिर, कितने उत्तरदायी, कितने सहनशील हुए हैं, यह बड़ा प्रश्न है।
धैर्य, अभ्यास और निरंतरता की गिरावट: सिटिंग पॉवर की पराजय
सबसे गहरी चोट धैर्य पर हुई है। किसी का भी एक घंटे का भाषण बैठकर सुन लेना आज लगभग असंभव सा लगने लगा है। ध्यान भटकने का समय अब मिनटों में नहीं, सेकंडों में मापा जाता है।
अभ्यास का अर्थ है एक ही काम को बार बार, एकरसता के बावजूद, लंबे समय तक करना। पर आज की मानसिक बनावट को “रिपीट” सहन नहीं। वीडियो तीस सेकंड का, रील पंद्रह सेकंड की, पोस्ट पाँच लाइन की। सिटिंग पॉवर घटी है, ब्राउज़िंग पॉवर बढ़ी है। किताब के पन्ने कम पलटते हैं, स्क्रीन की विंडो ज़्यादा बदलती है।
जब धैर्य टूटता है तो निरंतरता भी टूटती है। जब निरंतरता नहीं होती तो गहराई मर जाती है। और जब गहराई मरती है तो जीवन के हर क्षेत्र में सतहीपन की भरमार हो जाती है, रिश्तों से लेकर ज्ञान तक, आध्यात्म से लेकर राजनीति तक।
“सबको जल्दी है”: सतत व्यस्तता का सामूहिक नाटक
एक और विचित्र दृश्य है, सब व्यस्त हैं। इतना व्यस्त कि किसी के पास समय नहीं, पर काम अपने आप हो रहे हैं। हर व्यक्ति किसी न किसी को कोई काम बता रहा है। ऑनलाइन ऑर्डर, फोन पर ऑर्डर, व्हाट्सएप पर ऑर्डर, दुनिया “कमांड” से भरी है, “कर्म” करने वाले अदृश्य हैं।
इस व्यवस्था ने एक नया मनोविज्ञान पैदा किया है, जिसमें हर व्यक्ति स्वयं को “मैनेजर” की भूमिका में देखता है, “करने वाले” की भूमिका में नहीं। इस तरह समाज में उत्तरदायित्व का बँटवारा नहीं, उसका धुँधलापन बढ़ा है। काम किसने किया, किसने नहीं किया, इसका बहीखाता साफ नहीं रह गया।
प्रामाणिकता का संकट: गुरु, नेता और उपदेशक क्यों तेजहीन लगे
इस तेज़ी के युग में एक और बदलाव दिखता है, उपदेश देने वाले, कथावाचक, जातिवादी नेता, मोटिवेशनल गुरु, धार्मिक मठाधीश, सब के सब अचानक फीके लगने लगे हैं। बहुत सारी बातें जो कभी “अंतिम सत्य” की तरह सुनाई जाती थीं, अब बच्चों जैसी लगती हैं।
हमने जिन लोगों को “विज्ञान लेखक”, “संविधान निर्माता” जैसे अतिसरलीकृत खाँचों में कैद कर रखा था, आज उनके बारे में भी दृष्टि बदली है। इतिहास, विचार, आन्दोलन, सब पर पुनर्विचार शुरू हुआ है। यूट्यूब, पॉडकास्ट, सबस्टैक, ब्लॉग, इन सब ने पारंपरिक प्रामाणिकता के केंद्रों की चमक घटा दी है।
धर्मगुरु हों या वैचारिक नेता, वे तब तक प्रभावी लगते हैं जब तक श्रोता भीतर से सवाल नहीं पूछता। कोरोना के बाद के इस समय में आम इंसान के भीतर एक नई प्रकार की शंका, एक नया प्रकार का आत्मनिरीक्षण जागा है। परिणाम यह हुआ कि कई “महान व्यक्तित्व” अचानक साधारण लगने लगे हैं।
डिजिटल सफाई का भ्रम: ऐप की झाड़ू और जीवन की गंदगी
फोन में एक समय “क्लीनर” नाम के ऐप हुआ करते थे। एक बटन दबाते ही स्क्रीन पर झाड़ू चलती थी, कुछ सेकंड घूमता हुआ ग्राफ़ दिखता था, और हम चैन से सोचते थे, सफाई हो गई। वास्तव में कितनी हुई, किस चीज़ की हुई, हमें पता नहीं था, पर मानसिक सुकून मिल जाता था कि सिस्टम “फ्रेश” हो गया।
आज जीवन में भी हम वैसी ही नकली सफाइयाँ कर रहे हैं। कुछ दिन सोशल मीडिया डिलीट, एक दो हफ्ते “डिटॉक्स”, किसी नये कोर्स में एडमिशन, किसी नये मोटिवेशनल स्पीच की प्लेलिस्ट – झाड़ू हर जगह घूम रही है, पर अंदर की धूल, अंदर का कचरा, अंदर के असंतुलन वैसा ही बना हुआ है।
यही कारण है कि बार बार “रिस्टार्ट” करने के बावजूद सिस्टम फिर वैसा ही भारी महसूस होता है। असली सफाई वहाँ से शुरू होती है जहाँ हम अपनी गति, अपनी प्राथमिकताओं, अपने उपभोग और अपनी इच्छाओं के साथ ईमानदार प्रश्नों का सामना करने लगते हैं।
समय की तेज़ रफ्तार: मनोविज्ञान, तकनीक और सामूहिक आघात
यह अनुभूति कि समय बहुत तेज़ भाग रहा है, सिर्फ़ भावुकता नहीं, मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। जब जीवन अनुभवों से ज़्यादा सूचना से भर जाता है, तो यादों की गहराई घटती है, और पीछे मुड़कर देखने पर साल पतले लगने लगते हैं।
कोरोना एक सामूहिक आघात था। लाखों को मृत्यु, बीमारी, अकेलेपन, आर्थिक असुरक्षा का सामना करना पड़ा। जीवन में पहली बार मौत की निकटता को इतने पास से देखने का जो असर पड़ा, उसने भीतर कहीं यह भावना बैठा दी कि “जो करना है जल्दी कर लो।” यही “जल्दी” आज हर जगह दिख रही है, करियर में, संबंधों में, ख़रीदने में, बेचने में, प्रयोग करने में, त्यागने में।
तकनीक ने इस जल्दबाजी को साधन दे दिया। फटाफट डिलीवरी, फटाफट एंटरटेनमेंट, फटाफट राय, फटाफट जजमेंट। समय की रफ़्तार वास्तव में नहीं बदली, पर समय के भीतर भरा जाने वाला कंटेंट बदल गया है। इसलिए चार साल दस साल जैसे लगते हैं और बीस साल किसी पिछले जन्म की तरह।
नई दुनिया, नया संकट: समाधान नहीं, साक्षात्कार की आवश्यकता
कोरोना के बाद की यह दुनिया “नई” है, पर हर नई चीज़ समाधान नहीं होती, कभी कभी नया रूप ले चुका संकट भी होती है। तेज़ी की यह संस्कृति शरीर की सक्रिय आयु घटा रही है, मन की सहनशीलता खत्म कर रही है, संबंधों की गहराई कम कर रही है और समाज की उत्तरदायित्व भावना को धुंधला बना रही है।
अभाव से अधिशेष, धीमी गति से अतिरंजित तेज़ी, अभ्यास से इंस्टेंट परिणाम, सुनने से स्क्रॉल करने तक, यह जो संक्रमण हुआ है, वह सिर्फ़ तकनीकी या आर्थिक बदलाव नहीं, यह हमारे सामूहिक मन की दिशा बदलने वाला मोड़ है।
यहीं असली प्रश्न छिपा है कि क्या हम इस तेज़ रफ्तार में अपने भीतर की सच्ची गति को पहचान पा रहे हैं या नहीं। दुनिया को जल्दी कहीं पहुँचना है, यह अलग बात है; हमें मनुष्य के रूप में कहाँ पहुँचना है, यह बिल्कुल अलग प्रश्न है।

