Monday, November 10, 2025

LGBTQ पहचान का गंदा खेल: कैसे बदल रहा है बच्चों का नजरिया और समाज की सोच

LGBTQ की बुनियादी परिभाषा और सीमित समझ

लोगों की सामान्य समझ में LGBTQ का अर्थ केवल समलैंगिकता यानी होमोसेक्सुअलिटी तक सीमित है। लेस्बियन (L) का मतलब है महिला का महिला के प्रति आकर्षण।

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गे (G) का अर्थ है पुरुष का पुरुष के प्रति आकर्षण। वहीं बाइसेक्सुअल (B) वे लोग होते हैं जिनका झुकाव पुरुष और महिला दोनों की ओर होता है।

यहां तक का मामला केवल यौन आकर्षण और व्यवहार तक सीमित दिखाई देता है।

ट्रांस: सामान्य शरीर पर अलग मानसिक पहचान

LGBTQ में सबसे विवादास्पद अक्षर T है। आमतौर पर इसे हिजड़े से जोड़ दिया जाता है, लेकिन यह गलत धारणा है।

हिजड़े जन्म से शारीरिक विकृति के कारण अलग होते हैं, जबकि ट्रांस लोग पूरी तरह सामान्य शरीर वाले होते हैं। उनकी समस्या सेक्सुअलिटी की नहीं बल्कि जेंडर आइडेंटिटी की होती है।

ऐसे लोग अपने जन्म से मिले लिंग को अस्वीकार कर देते हैं और खुद को विपरीत पहचान में देखने लगते हैं।

मानसिक उलझन और पहचान का टकराव

ट्रांस व्यक्ति अपने आप को उसी पहचान से जोड़ते हैं जो वे महसूस करते हैं। जैसे कोई पुरुष खुद को महिला मान सकता है और महिला खुद को पुरुष।

जरूरी नहीं कि वे गे या लेस्बियन हों। यहां मुद्दा यह है कि उनका अनुभव उनके शरीर से मेल नहीं खाता।

यही असंगति उन्हें ट्रांस की श्रेणी में डालती है। यह स्थिति उनके लिए मानसिक पहचान का प्रश्न बन जाती है, जिसका असर पूरे समाज पर डाला जा रहा है।

क्वीर: अनगिनत जेंडर पहचानों की खुली परिभाषा

इस विमर्श का अगला चरण Q यानी क्वीर है। इसमें ऐसे लोग शामिल होते हैं जो खुद को न पूरी तरह पुरुष मानते हैं न महिला।

वे उपलब्ध 70-75 जेंडर पहचानों में से कोई एक चुन लेते हैं या फिर कोई पहचान ही स्वीकार नहीं करते।

यानी यह स्थिति इतनी अजीब है कि व्यक्ति अपनी पहचान को बार-बार बदल भी सकता है और कभी-कभी कोई पहचान रखने से भी इनकार कर देता है।

सेक्स बनाम जेंडर: वास्तविकता को नकारने का तरीका

सेक्स यानी मेल और फीमेल एक जैविक स्थिति है, जो जन्म से तय होती है। लेकिन जेंडर को नई परिभाषा दी गई है, आप जैसा महसूस करते हैं वही आपकी पहचान है।

यदि कोई अपने लिंग को वैसे ही स्वीकार करता है तो उसे सिस मेल या सिस फीमेल कहा जाता है। लेकिन यदि कोई अपने लिंग के विपरीत महसूस करता है तो उसे ट्रांस घोषित कर दिया जाता है।

यानी अब वास्तविकता से ऊपर भावनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है।

सर्वनाम और कानून: व्यक्तिगत भावना पर कानूनी शिकंजा

इस सोच में व्यक्ति का सब्जेक्टिव अनुभव समाज की ऑब्जेक्टिव हकीकत पर हावी कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, यदि कोई लड़की खुद को लड़का मानती है तो उसे उसी रूप में संबोधित करना होगा।

उसकी पसंद के सर्वनाम का इस्तेमाल न करना भेदभाव और उत्पीड़न माना जाएगा। कई देशों में इसके लिए कानून बनाए गए हैं और अपराध साबित होने पर जेल तक हो सकती है।

यानी समाज को जबरन व्यक्तिगत भावनाओं के हिसाब से ढालने की कोशिश की जा रही है।

पश्चिम में बच्चों पर थोपे जा रहे नए विचार

आज पश्चिमी देशों में यह विचारधारा बच्चों और युवाओं के बीच मुख्यधारा में है। स्कूलों में इस विषय को पढ़ाया जाता है।

यहां तक कि बच्चों को जेंडर आइडेंटिटी पर आधारित किताबें और कहानियां पढ़ने को दी जाती हैं। वयस्कों को कार्यस्थलों पर इसके लिए अनिवार्य ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वे अपने व्यवहार और भाषा को बदलें।

यानी व्यक्तिगत सोच अब केवल निजी नहीं रही, बल्कि इसे समाज पर अनिवार्य नियम के रूप में थोपा जा रहा है।

भारत में प्रवेश और तेजी से फैलता खतरा

कई लोग यह मानकर निश्चिंत हैं कि यह विमर्श भारत तक नहीं पहुंचेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि यह पहले ही हमारे महानगरों और बड़े शहरों के स्कूलों में दाखिल हो चुका है।

धीरे-धीरे यह मध्यम शहरों और छोटे कस्बों तक भी फैल रहा है। इंटरनेट के इस दौर में ऐसे विचार सीमाओं में नहीं बंधते और एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत तेजी से फैलते हैं।

यही वजह है कि इस खतरे को नज़रअंदाज़ करना घातक साबित हो सकता है।

माता-पिता के लिए चेतावनी और जिम्मेदारी

यदि आपको लगता है कि आपके बच्चे इस विमर्श से अछूते हैं तो आप खुद को धोखा दे रहे हैं। बेहतर होगा कि आप उनसे सीधे बातचीत करें।

उनसे पूछें कि वे LGBTQ के बारे में क्या जानते हैं, स्कूल या इंटरनेट पर उन्हें क्या सिखाया जा रहा है और उनकी सोच किस दिशा में जा रही है।

तभी आप इस विमर्श की गहराई और इसके असर को समझ पाएंगे। यह केवल पश्चिम की समस्या नहीं रही, बल्कि हमारे घरों तक दस्तक दे चुकी है।

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