Sunday, October 12, 2025

लद्दाख में जनसांख्यिकीय बदलाव और राजनीतिक टकराव: छठी अनुसूची से लेकर बढ़ते तनाव तक की पूरी पड़ताल

लद्दाख

लद्दाख की जनसांख्यिकी और छठी अनुसूची की बहस

लद्दाख में 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम आबादी 46 प्रतिशत दर्ज की गई थी, जबकि बौद्ध समुदाय का अनुपात इससे कुछ अधिक था।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

विशेषज्ञों का मानना है कि यही आंकड़े छठी अनुसूची पर सरकार की झिझक का कारण हैं, क्योंकि इससे कश्मीर जैसी स्थिति पैदा होने की आशंका जताई जाती है।

बदलते संतुलन पर आशंकाएँ

स्थानीय संगठनों और समुदायों का कहना है कि 2025 में बौद्धों का प्रतिशत और गिर चुका है। कई सामाजिक कार्यकर्ता ‘लव जेहाद’ जैसे आरोप लगाकर इसे जनसंख्या संतुलन बिगड़ने की वजह बताते हैं।

image

इन दावों पर आधिकारिक पुष्टि नहीं है, लेकिन बौद्ध समाज में असुरक्षा की भावना लगातार गहराती जा रही है।

सोनम वांगचुक और राजनीतिक विवाद

लद्दाख में आंदोलन की अगुवाई कर रहे पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक पर भाजपा समर्थक वर्ग लगातार निशाना साध रहा है।

आरोप है कि वे स्थानीय बौद्धों को केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ भड़का रहे हैं। वहीं वांगचुक खुद का रुख लोकतांत्रिक अधिकारों और छठी अनुसूची की मांग पर केंद्रित बताते हैं।

उन पर कांग्रेस और विपक्षी नेताओं से नजदीकी रखने के भी आरोप लगाए जा रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि वे क्षेत्रीय राजनीति में बड़े पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं।

भाजपा खेमे का आरोप है कि कांग्रेस और विदेशी ताकतों के साथ उनकी कथित नजदीकियां लद्दाख को अस्थिर करने की कोशिश हैं।

हिंसा और तनाव के संकेत

हाल ही में लद्दाख में भाजपा दफ्तर पर हमला और आगजनी की घटना ने हालात को और संवेदनशील बना दिया। भाजपा नेताओं ने इसे सुनियोजित साजिश बताया, वहीं विपक्षी दलों ने लोगों के गुस्से को जनविरोधी नीतियों से जोड़ा। जांच एजेंसियां इस घटना को लेकर सक्रिय हैं और जिम्मेदारों की तलाश जारी है।

समुदायों के बीच बढ़ती दूरी

विश्लेषकों का कहना है कि मौजूदा हालात में लद्दाखी बौद्ध और मुस्लिम समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है। राजनीतिक दलों और नेताओं के बयानों से तनाव और गहराता दिखाई देता है। सामाजिक विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि यदि यह खाई और चौड़ी हुई तो लद्दाख की शांति और सुरक्षा पर असर पड़ सकता है।

आंदोलन और ऐतिहासिक संदर्भ

लद्दाख का आंदोलन फिलहाल तेज है, लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे आक्रोश लंबे समय तक नहीं चलते। नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे उदाहरण बताते हैं कि हिंसा और तोड़फोड़ भले शुरुआती दिनों में व्यापक असर डालें, लेकिन अंततः व्यवस्था पुनः सक्रिय हो जाती है और आंदोलनकारियों को घर लौटना पड़ता है।

सरकार की रणनीति और संभावनाएँ

विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में सरकार को अनावश्यक प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों से संवाद आवश्यक है, जबकि तोड़फोड़ करने वालों को बाद में कानून के दायरे में लाना चाहिए। फिलहाल केंद्र की नीतियों और स्थानीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन ढूँढ़ना ही सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है।

- Advertisement -

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -

Latest article