कुलदीप सिंह सेंगर
हाई कोर्ट का फैसला और बेल का कारण
दिल्ली हाई कोर्ट ने कुलदीप सिंह सेंगर की सजा को निलंबित करते हुए जमानत का लाभ दिया। आदेश 54 पन्नों के विस्तृत न्यायिक विश्लेषण पर आधारित है। अदालत ने यह संकेत दिया कि अपील लंबित रहते कानूनी त्रुटियों, तथ्यात्मक विरोधाभासों और साक्ष्य मूल्यांकन की गहराई से समीक्षा आवश्यक है।
कथित घटना 04 जून 2017 और अभियोजन का समय निर्धारण
मामले में अभियोजन का दावा रहा कि 04 जून 2017 को माखी स्थित घर में रात 8 बजे से 8 बजकर 30 मिनट के बीच घटना हुई। इसी समयरेखा को केंद्र में रखकर अपराध, आरोपी की मौजूदगी और पीड़िता की परिस्थितियों का आकलन किया गया, जिस पर अदालत ने अनेक प्रश्न उठाए।
घटना समय पर पीड़िता की कॉल गतिविधि और रिकॉर्ड का संकेत
कॉल डिटेल रिकॉर्ड में जिस नंबर 8112802913 को जांच में पीड़िता से जोड़ा गया, उस पर 7 बजकर 52 मिनट से 9 बजे तक लगातार कॉल गतिविधि दर्ज बताई गई। 7:52 पर 6 मिनट 37 सेकंड, 7:59 पर 7 मिनट 14 सेकंड, 8:08 पर लगभग 5 मिनट की बातचीत दर्ज हुई।
8:19 की कॉल और 9 बजे की लंबी बातचीत का विवरण
रिकॉर्ड में 8 बजकर 19 मिनट पर भी कॉल दर्ज होने की बात सामने आई। इसके बाद 9 बजे के आसपास लगभग 40 मिनट की बातचीत बताई गई। अदालत में इस डेटा के आधार पर यह सवाल उभरा कि कथित घटना के समय मोबाइल सक्रिय रहने का तथ्य अभियोजन कहानी से कैसे मेल खाता है।
आरोपी की लोकेशन उन्नाव और फिर कानपुर, माखी का अभाव
सेल टावर लोकेशन डेटा के अनुसार आरोपी की उपस्थिति माखी गांव में दर्ज नहीं मिली। रिकॉर्ड में 12 बजकर 20 मिनट से लगभग 8 बजकर 45 मिनट तक आरोपी उन्नाव सिटी ऑफिस क्षेत्र में बताया गया। इसके बाद उसके कानपुर एक पारिवारिक कार्यक्रम के लिए निकलने का तथ्य सामने आया।
14 किलोमीटर दूरी और समय संगति पर न्यायिक आपत्ति
माखी से उन्नाव सिटी ऑफिस की दूरी लगभग 14 किलोमीटर बताई गई। अदालत में यह बिंदु भी सामने आया कि यदि कथित अपराध 8 से 8:30 के बीच हुआ, तो उसी समय या तुरंत बाद उन्नाव क्षेत्र में कॉल रिसीव होने का दावा समय और दूरी की दृष्टि से असंगत प्रतीत होता है।
सीडीआर में 7 बजे से 8:30 तक उन्नाव और 9:30 पर कानपुर
मामले के रिकॉर्ड में यह भी कहा गया कि आरोपी के कॉल डाटा के अनुसार 7 बजे से 8 बजकर 30 मिनट तक उसकी लोकेशन उन्नाव में रही। आगे 9 बजकर 30 मिनट पर कानपुर लोकेशन दर्ज होने का उल्लेख हुआ। इस क्रम को अभियोजन समयरेखा के विरुद्ध तर्क के रूप में रखा गया।
सुरक्षा कर्मियों की मौजूदगी और अदालत में गवाही
अदालत के समक्ष यह तथ्य भी आया कि आरोपी के साथ सुरक्षा कर्मी उत्तर प्रदेश पुलिस के जवान थे। इन सुरक्षा कर्मियों की कोर्ट में गवाही का उल्लेख किया गया, जिससे आरोपी की गतिविधि, आवाजाही और निर्धारित समयावधि के भीतर उसकी उपस्थिति संबंधी दावों पर बहस केंद्रित हुई।
धारा 164 के पहले बयान में आरोपी का नाम न होना
रिकॉर्ड के अनुसार 21 जून को पीड़िता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के अंतर्गत पहला बयान दिया। इस बयान में आरोपी के नाम का उल्लेख नहीं होने की बात सामने आई। बाद में लगाए गए आरोप कि 04 जून को रेप हुआ, इस अंतर के कारण बयान की निरंतरता पर सवाल खड़े हुए।
शिकायत और एफआईआर में देरी, दो महीने बाद पहला कदम
कथित घटना 04 जून 2017 की बताई गई, जबकि पहली लिखित शिकायत अगस्त 2017 के आसपास दर्ज होने का तथ्य सामने आया। अदालत में यह बिंदु महत्वपूर्ण रहा कि गंभीर अपराधों में देरी की स्थिति में ठोस कारण अपेक्षित होते हैं, और देरी से साक्ष्य की प्रकृति भी प्रभावित होती है।
शुरुआती शिकायत में सेंगर का नाम गायब, बाद में जुड़ना
रिकॉर्ड के अनुसार पहली शिकायत में सेंगर का नाम नहीं था। शुरुआती स्तर पर आरोप शुभम सिंह, नीरज तिवारी और अन्य व्यक्तियों पर लगाए जाने का उल्लेख हुआ। बाद के चरणों में सेंगर का नाम और रेप का आरोप जुड़ने का तथ्य सामने आया, जिसे अदालत ने गंभीर संदेह का आधार माना।
बयानों में समय परिवर्तन, विभिन्न मंचों पर अलग अलग कथन
मामले में समय निर्धारण को लेकर अलग अलग कथनों का उल्लेख किया गया। कहीं 2 बजे, कहीं 6 बजे और एफआईआर में 8 से 8:30 बजे के बीच समय बताने की बात रिकॉर्ड में आई। अदालत ने माना कि समय और घटनाक्रम में यह बदलाव सुसंगत कथा निर्माण में बाधा बनता है।
11 जून वाली बात और व्यवहारिक संगति पर प्रश्न
रिकॉर्ड में यह भी उल्लेख हुआ कि शिकायत में 04 जून की घटना के बाद 11 जून को उसी महिला के बुलाने पर फिर उसी स्थान पर जाने का विवरण आया। अदालत में इस बिंदु पर भी चर्चा हुई कि कथित भय, दबाव और आघात के संदर्भ में यह आचरण किस तरह समझा जाए।
जिस महिला पर लाने का आरोप, उसका ट्रायल कोर्ट से बरी होना
अभियोजन की आधारभूत कहानी में शशि सिंह का नाम आया कि वह पीड़िता को नौकरी के बहाने घर लाई। ट्रायल कोर्ट द्वारा शशि सिंह को सभी आरोपों से बरी किए जाने का तथ्य रिकॉर्ड में है। इसके बाद मूल कहानी का ढांचा कमजोर पड़ने की दलील महत्वपूर्ण बनकर उभरी।
पुरानी रंजिश और राजनीतिक संघर्ष का रिकॉर्ड में उल्लेख
रिकॉर्ड के अनुसार पीड़िता के चाचा महेश सिंह का आरोपी के भाई पर गोली चलाने के मामले में दोषी होना बताया गया। 16 वर्ष फरार रहने और 2017 में चुनाव लड़ने लौटने का विवरण भी सामने आया। उसी अवधि में पंचायत में विरोध और व्यक्तिगत संघर्ष की पृष्ठभूमि जोड़ी गई।
मोबाइल फोन और सिम, छीना या गिरा बनाम सक्रिय रिकॉर्ड
पीड़िता की कहानी में यह कहा गया कि घटना के दिन रेप के बाद मोबाइल और सिम छीन लिया गया या गिर गया। इसके विपरीत कॉल रिकॉर्ड में वही सिम घटना के बाद भी सक्रिय दिखने की बात रखी गई। अदालत ने पूछा कि यदि फोन उपलब्ध था, तो तत्काल सूचना क्यों नहीं दी गई।
मेडिकल इतिहास में कथित चुप्पी और बयानों की विश्वसनीयता
रिकॉर्ड के अनुसार मेडिकल जांच के समय डॉक्टर को रेप या आरोपी के बारे में न बताने का बिंदु भी सामने आया। अदालत में यह दलील रखी गई कि जब केस मुख्यतः मौखिक बयानों पर आधारित हो, तब कथन की निरंतरता, समय संगति और प्रारंभिक प्रतिक्रियाओं की जांच अत्यंत सूक्ष्म होनी चाहिए।
फोरेंसिक साक्ष्य की कमी, देरी का प्रभाव और केस की प्रकृति
एफआईआर और सूचना में देरी के कारण डीएनए, सीमेन या अन्य ठोस फोरेंसिक साक्ष्य मिलने की स्थिति कमजोर बताई गई। रिकॉर्ड में यह तथ्य उभरा कि मामला व्यापक रूप से बयान आधारित रहा। इसी कारण अदालत ने कहा कि निचली अदालत को डिजिटल, मेडिकल और कथन संबंधी विरोधाभासों का गहन मूल्यांकन करना चाहिए था।
पीड़िता की उम्र और नाबालिग होने पर दस्तावेजी विरोधाभास
हाई कोर्ट के समक्ष उम्र निर्धारण के लिए स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट, एडमिशन रजिस्टर और मेडिकल ओसिफिकेशन टेस्ट का उल्लेख हुआ। इन तीनों में जन्मतिथि और उम्र का अंतर बताया गया। स्कूल रिकॉर्ड में 2001 को मिटाकर दोबारा लिखे जाने का बिंदु भी रिकॉर्ड में आया।
ओसिफिकेशन रिपोर्ट के आधार पर बालिग होने की संभावना
रिकॉर्ड में यह दावा भी आया कि मेडिकल आकलन के हिसाब से पीड़िता घटना के समय 18 वर्ष से ऊपर हो सकती थी, और एक आकलन में 19 वर्ष से ऊपर का संकेत बताया गया। यदि यह निष्कर्ष स्वीकार होता है, तो पॉक्सो कानून की धाराएं स्वतः अप्रासंगिक हो सकती हैं, यह अदालत में विचारणीय मुद्दा बना।
सीडीआर और टावर लोकेशन को निचली अदालत द्वारा कम महत्व
रिकॉर्ड में यह तर्क रखा गया कि ट्रायल कोर्ट ने टावर लोकेशन और सीडीआर की व्याख्या में जल्दबाजी की। बचाव पक्ष ने कहा कि आरोपी की लोकेशन कथित स्थान पर नहीं थी, बल्कि 15 से 16 किलोमीटर दूर थी। अदालत ने माना कि अपील में इन तकनीकी साक्ष्यों की गहन सुनवाई आवश्यक है।
कथित फर्जी ईमेल और डिजिटल सबूत निर्माण का संदेह
जांच के दौरान पीड़िता के नाम से बनी एक ईमेल आईडी का उल्लेख रिकॉर्ड में आया। यह भी कहा गया कि उस ईमेल का पासवर्ड किसी अन्य व्यक्ति के पास हो सकता है और उससे शिकायतें भेजी गईं। अदालत में यह बिंदु भी उठा कि क्या डिजिटल माध्यम से कथा को निर्देशित या निर्मित करने का प्रयास हुआ।
पॉक्सो धारा 5 सी और लोक सेवक की परिभाषा पर हाई कोर्ट की राय
हाई कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने पॉक्सो की धारा 5 सी का गलत प्रयोग किया। अदालत के अनुसार विधायक को सामान्य अर्थ में सार्वजनिक जिम्मेदारी होती है, पर पॉक्सो के संदर्भ में लोक सेवक वही माना जाएगा जिसके पास किसी नाबालिग की प्रत्यक्ष कस्टडी, सुरक्षा या संरक्षकता का दायित्व हो।
आईपीसी धारा 21 और सार्वजनिक सेवक की कानूनी सीमा
अदालत ने यह भी कहा कि आईपीसी धारा 21 में विधायक को सार्वजनिक सेवक मानने की जो व्याख्या अपनाई गई, वह इस संदर्भ में उपयुक्त नहीं थी। इसी कारण जिस आधार पर एग्रेवेटेड अपराध मानकर कठोरतम सजा दी गई, वह आधार कमजोर हुआ और अपील में यह प्रमुख कानूनी मुद्दा बना।
सजा अवधि, न्यूनतम दंड और जेल में बिताया समय
रिकॉर्ड के अनुसार आरोपी अप्रैल 2018 से जेल में है और आदेश के समय तक लगभग साढ़े सात वर्ष से अधिक अवधि काट चुका था। अदालत में यह चर्चा हुई कि यदि लोक सेवक वाली धारा हटती है, तो साधारण प्रावधानों के तहत न्यूनतम सजा की तुलना में आरोपी पहले ही पर्याप्त अवधि बिता चुका माना जा सकता है।
अपील लंबित रहने पर जमानत का तर्क और अपूरणीय नुकसान
हाई कोर्ट ने माना कि अपील लंबित रहते आरोपी को निरंतर जेल में रखना न्यायसंगत नहीं होगा, क्योंकि यदि बाद में उसे राहत मिलती है, तो अतिरिक्त कारावास की भरपाई संभव नहीं। इसी आधार पर सजा निलंबन का निर्णय तकनीकी कानूनी बिंदुओं और तथ्यात्मक परीक्षण की जरूरत पर टिकाया गया।
मामले में सार्वजनिक धारणा और न्यायिक रिकॉर्ड की खाई
इस प्रकरण में सार्वजनिक विमर्श और न्यायिक रिकॉर्ड के बीच अंतर भी चर्चा का विषय रहा। अदालत ने संकेत दिया कि अंतिम सत्य केवल अदालतों में प्रस्तुत साक्ष्य, तकनीकी डेटा, गवाही और कानून की सही व्याख्या से तय होगा। अपील प्रक्रिया जारी है और निर्णायक निष्कर्ष उसी से निकलेगा।

