Wednesday, December 24, 2025

कार्तिगई दीपम: क्या सचमुच केवल भाजपा ही हिंदुओं की पार्टी है? तमिलनाडु में सारी पार्टियां हिंदुओं के खिलाफ एकजुट

कई लोग बड़े आत्मविश्वास से पूछते हैं कि क्या भाजपा ही एकमात्र पार्टी है जो हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है। कागज पर देखा जाए तो जवाब आसान है कि नहीं, देश में और भी कई दल हैं जो स्वयं को सर्वधर्मसमभाव और संविधानिक मूल्यों का रक्षक बताते हैं। पर असल जवाब कागज पर नहीं, जमीन पर दिए गए फैसलों में छिपा होता है।

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अयोध्या में राम मंदिर के फैसले को जिस तरह उत्तरप्रदेश की सरकार ने बिना एक पत्थर उछले लागू करवाया, वह एक उदाहरण है। तमिलनाडु के थिरुप्परंकुंड्रम की पहाड़ी पर कार्तिगई दीपम के छोटे से दीपक को जलाने तक की अनुमति न देना और उस आदेश को देने वाले न्यायाधीश के खिलाफ संसद तक जाकर महाभियोग चलाने की कोशिश करना, यह दूसरा उदाहरण है। इन दोनों को साथ रखकर देखिए, तभी समझ आएगा कि कौन दल कम से कम हिंदू के न्यूनतम अधिकार के साथ खड़ा है और कौन नहीं।

तमिलनाडु की राजनीति और हिंदू अधिकारों की पृष्ठभूमि

तमिलनाडु की राजनीति दशकों से द्रविड़ विचार, तमिल अस्मिता और कथित ब्राह्मण विरोध के इर्दगिर्द घूमती रही है। यहां भाजपा का जनाधार नगण्य है, कुल दो सौ चौंतीस में चार विधायक, राजनीति का मुख्य धारा नियंत्रण पूरी तरह द्रविड़ और कांग्रेस खेमे के पास।

उत्तर भारत में जो दल भाजपा पर यह आरोप लगाते हैं कि वह हिंदू गैर हिंदू की राजनीति करती है, वही दल तमिलनाडु को एक आदर्श प्रयोगशाला की तरह पेश करते हैं कि देखिए वहां भाजपा नहीं के बराबर है, इसलिए वहां सब कुछ शांत, प्रगतिशील और तथाकथित गंगा जमुना संस्कृति जैसा है।

पर उसी तमिलनाडु में जहां भाजपा सत्ता में नहीं, जहां पूरा तंत्र तथाकथित सेकुलर दलों के हाथ में है, वहां हिंदू समाज के एक साधारण धार्मिक अधिकार को मानने से भी सरकार कतराती है, यह तथ्य सारे दावों को नंगा कर देता है।

थिरुप्परंकुंड्रम पहाड़ी और अरुलमिगु सुब्रमण्य स्वामी मंदिर की कथा

थिरुप्परंकुंड्रम केवल एक पहाड़ी का नाम नहीं, यह तमिलनाडु की धार्मिक स्मृति में गहरे अंकित स्थल है। यहां अरुलमिगु सुब्रमण्य स्वामी का प्राचीन मंदिर है, जिसे पांड्य राजाओं ने छठी शताब्दी में बनवाया था। यानी यह मंदिर उस काल का है जब न आधुनिक संविधान था, न अंग्रेज थे, न इस्लामी शासन का साया, केवल स्थानीय राजसत्ता और प्राचीन परंपरा थी।

मंदिर परिसर से ऊपर की ओर पहाड़ी पर एक प्राचीन पत्थर का दीप स्तंभ है, दीपथून, जहां सौ साल नहीं, सदियों से कार्तिगई दीपम पर्व पर दीप प्रज्वलित करने की परंपरा चली आ रही थी। हिंदू समाज के लिए यह केवल एक पत्थर का खंभा नहीं, पर्वत की गोद में स्थापित देव दीपक है, जिसके सामने पूजा और उत्सव का अधिकार उनकी सामूहिक स्मृति का हिस्सा है।

इसी पहाड़ी के समीप सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में सिकन्दर बदुशा नाम के व्यक्ति की स्मृति में एक दरगाह बनी। तिथि लगभग सोलह सौ नब्बे के आस पास मानी जाती है। यानी लगभग एक हजार वर्ष पुराने मंदिर और उसकी पहाड़ी पर बाद के काल की दरगाह खड़ी की गई। समय का क्रम साफ है, पहले मंदिर, बाद में दरगाह।

बीसवीं सदी की शुरुआत: विवाद, अदालतें और मंदिर संपत्ति का अधिकार

विवाद गंभीर रूप तब बना जब उन्नीस सौ पंद्रह के लगभग दरगाह पक्ष ने वहां एक मंडप बनाना शुरू किया। मंदिर पक्ष ने तत्काल प्रशासन के सामने जाकर यह तथ्य रखा कि पूरा क्षेत्र प्राचीन मंदिर की संपत्ति है, और इस पर दरगाह का नया निर्माण मूल अधिकार का हनन है। मामला कलेक्टर से होता हुआ अदालत पहुंचा।

ब्रिटिश काल की अदालतों ने और बाद में उस समय की सर्वोच्च विलोपन संस्था प्रिवी काउंसिल ने यह माना कि पहाड़ी के खाली हिस्से भी मंदिर संपत्ति के अंतर्गत आते हैं। दीपथून और उसके आसपास का क्षेत्र भी मंदिर का ही अधिकार क्षेत्र है। कानून व्यवस्था के बहाने जो व्यवस्था दी गयी कि दीप पहाड़ी के आधे रास्ते पर या उचिपिल्लैयार मंदिर के आसपास दीप जलाया जाए, वह मूल स्वामित्व पर स्थायी रोक नहीं, तत्कालीन तनाव टालने की अस्थायी प्रशासनिक व्यवस्था थी।

तथ्य यह कि मालिकाना हक मंदिर के पक्ष में दर्ज हुआ और खाली जमीन को भी मंदिर संपत्ति माना गया। इसके बाद भी दरगाह पक्ष लगातार विवाद बनाए रहा, और समय समय पर इस अस्थायी व्यवस्था को स्थायी अधिकार में बदलने की कोशिश करता रहा।

स्वतंत्र भारत, हाईकोर्ट के आदेश और राज्य सरकार का रवैया

आजाद भारत में भी यह विवाद समाप्त नहीं हुआ। उन्नीस सौ छानबे में तमिलनाडु हाईकोर्ट ने फिर वही बात दोहराई जो पहले के न्यायिक आदेश कह चुके थे। मंदिर की संपत्ति, मंदिर का अधिकार।

इसके बाद दो हजार चौदह और दो हजार सत्रह में जयललिता की पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने बाकायदा हलफनामा दायर कर यह कहा कि दीपथून पर दीप जलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है। यहां भी तर्क वही, स्वामित्व की बात स्वीकार पर अधिकार के प्रयोग पर भय का हवाला।

प्रश्न यह है कि यदि राज्य यह मानता है कि जमीन मंदिर की है तो कार्तिगई दीपम पर मंदिर के ही दीप स्तंभ पर हिंदू समुदाय को दीप जलाने के अधिकार से रोकना वास्तव में किसके डर का प्रमाण है। कानून व्यवस्था को बहाना बनाकर मूल धार्मिक अधिकार को वर्ष दर वर्ष टालते रहना, एक तरह का स्थायी इनकार बन जाता है।

हाल की घटनाएं: कुर्बानी, तनाव और दीप पर प्रतिबंध

दिसम्बर दो हजार चौबीस में इसी क्षेत्र की दरगाह में एक मौलवी अबू ताहिर द्वारा जानवर की कुर्बानी दी गयी। जिस पहाड़ को हिंदू समाज मंदिर का विस्तार मानता है, वहां मांस और कुर्बानी का प्रदर्शन स्वाभाविक रूप से आक्रोश पैदा करता ही है। फरवरी दो हजार पच्चीस में हिंदू संगठनों ने इसे अतिक्रमण और धार्मिक भावना की अवमानना के रूप में उठाया और साफ कहा कि पूरी पहाड़ी उनकी आस्था में मंदिर का अंग है, यहां मांसाहार और कुर्बानी स्वीकार्य नहीं।

इसी पृष्ठभूमि में तीन नवम्बर दो हजार पच्चीस को मंदिर के कार्यकारी अधिकारी ने आदेश जारी कर दीपथून पर दीप जलाने पर ही रोक लगा दी। यह निर्णय केवल मंदिर समिति की इच्छा नहीं, तमिलनाडु की सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण वाले मंदिर प्रशासन तंत्र के माध्यम से लिया गया निर्णय था, क्योंकि वहां सभी मंदिर सीधे राज्य सरकार के नियंत्रण में हैं।

अर्थात जिस सरकार पर संविधान ने सभी धर्मों के लिए समान दूरी और निष्पक्षता का दायित्व रखा, वही सरकार हिंदू मंदिर की संपत्ति पर हिंदू अनुष्ठान पर प्रतिबंध लगाने वाली बन गई।

न्यायालय का हस्तक्षेप: जस्टिस स्वामीनाथन का आदेश

हिंदू पक्ष अदालत गया। एक दिसम्बर दो हजार पच्चीस को मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस स्वामीनाथन ने आदेश दिया कि राम रविचंद्रन और दस अन्य भक्तों को दीपथून पर जाकर कार्तिगई दीपम जलाने की अनुमति दी जाए। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि राज्य को कानून व्यवस्था की चिंता है तो केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की मदद ली जा सकती है।

अर्थात न्यायालय ने हिंदू पक्ष के स्वामित्व, परंपरा और धार्मिक अधिकार को मान्यता दी और साथ ही राज्य को पर्याप्त सुरक्षा संसाधन जुटाने की छूट भी दे दी। यह वही आदर्श संतुलन था जो संविधान अदालत से अपेक्षा करता है, न किसी समुदाय के पक्ष में अतिरिक्त कृपा, न दूसरे के भय का अंधा समर्थन।

आदेश की अवहेलना और सरकार की जिद

इसके बाद जो हुआ वह केवल तमिलनाडु सरकार नहीं, पूरे विपक्षी खेमे की मानसिकता का आईना है। सरकार ने दंगों के डर का हवाला देकर न्यायालय के आदेश को लागू ही नहीं किया। पुलिस ने दीप जलाने जा रहे भक्तों को रास्ते में ही रोक दिया।

राज्य सरकार ने उसी हाईकोर्ट में इस आदेश के विरुद्ध डिवीजन बेंच में अपील दायर की। पर दो न्यायाधीशों की पीठ ने भी जस्टिस स्वामीनाथन के आदेश को बरकरार रखा। यानी एक नहीं, तीन अलग अलग न्यायाधीश यह कह चुके थे कि दीपथून पर दीप जलाना हिंदू भक्तों का वैध अधिकार है और राज्य को इसे सुनिश्चित करना चाहिए।

इसके बाद तमिलनाडु सरकार सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गई, मानो पूरी लड़ाई केवल एक छोटे दीपक के खिलाफ हो। न्याय की सामान्य प्रक्रिया में यह भी एक कदम है, इसे अलग से अपराध नहीं कहा जा सकता। पर जो कदम इसके बाद उठाया गया, वह केवल कानून का प्रश्न नहीं, खुले राजनीतिक संदेश का मामला है।

लोकसभा में महाभियोग की तैयारी: निशाने पर न्याय, बहाने में हिंदू अधिकार

तमिलनाडु की सरकार और उसके सहयोगी दलों ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को एक पत्र सौंपा जिसमें जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की मांग की गई। इस पत्र पर कुल एक सौ सात सांसदों के हस्ताक्षर बताए गए हैं।

यहां पहला प्रश्न यही उठता है कि यदि आरोप न्यायिक कदाचार या अनुशासनहीनता का है, तो केवल एक न्यायाधीश क्यों निशाने पर, डिवीजन बेंच के न्यायाधीशों के नाम कहां हैं जिन्होंने वही फैसला दोहराया। नतीजा साफ दिखता है, असली अपराध दीपथून पर दीप जलाने का अधिकार देना नहीं, हिंदू पक्ष के पक्ष में जाने का साहस दिखाना है।

महाभियोग संविधान के अनुच्छेद सौ चौबीस में वर्णित एक अत्यंत गंभीर प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य न्यायालय को दबाना नहीं, न्यायालय के भीतर से ही यदि कोई न्यायाधीश स्पष्ट रूप से भ्रष्ट या पक्षपातपूर्ण साबित हो तो उसे हटाने की असाधारण व्यवस्था देना है।

यहां इसका प्रयोग एक ऐसे आदेश के बाद किया जा रहा है जिसमें न्यायाधीश ने केवल यही कहा कि मंदिर की संपत्ति पर हिंदू त्योहार में दीप जलाने की सदियों पुरानी परंपरा को पुनर्स्थापित किया जाए और कानून व्यवस्था के लिए केंद्र से मदद ली जा सकती है।

कौन कौन हैं इस महाभियोग के पीछे

पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले सांसद केवल तमिलनाडु के नहीं हैं। इसमें स्टालिन की डीएमके, राहुल गांधी की कांग्रेस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, शरद पवार की पार्टी, कम्युनिस्ट दल और ओवैसी की पार्टी के सांसद शामिल बताए जा रहे हैं।

यानी वही पूरा समूह जो राष्ट्रीय राजनीति में एक साझा मंच से स्वयं को लोकतंत्र, संविधान और सेकुलरिज्म का असली झंडाबरदार घोषित करता है।

उत्तर भारत में यही दल बार बार यह कहते हैं कि भाजपा न्यायपालिका पर दबाव डालती है, लोकतंत्र को खतरे में डालती है। पर जब खुद की वैचारिक जमीन पर चोट लगती दिखती है, तब पहला बाण वे न्यायपालिका के ही उस हिस्से पर चलाते हैं जो हिंदू समाज के अधिकार के साथ खड़ा हो गया हो।

अयोध्या और तमिलनाडु की तुलना: राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा

अयोध्या में राम जन्मभूमि का विवाद सदियों पुराना था। अदालत का निर्णय आया, सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत सुनवाई के बाद रामलला के पक्ष में फैसला दिया। उत्तरप्रदेश की सरकार ने उस फैसले को न केवल शांतिपूर्वक लागू किया, बल्कि चारों ओर से आने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए पूरी व्यवस्था बनाई।

इतने बड़े विवाद का समाधान बिना किसी बड़े दंगे के, बिना व्यापक हिंसा के होना अपने आप में उदाहरण है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो न्यायालय के निर्णय को लागू करते हुए भी कानून व्यवस्था संभाली जा सकती है।

इसके विपरीत तमिलनाडु में सवाल न किसी मस्जिद को हटाने का है, न किसी संरचना को गिराने का, केवल एक परंपरागत दीप स्तंभ पर, कुछ ही भक्तों से दीप जलाने की अनुमति देने का है। अदालत केंद्र की सुरक्षा बल तक की मदद सुझाती है, फिर भी राज्य सरकार एक दीपक के सामने हथियार डाल देती है और बात को महाभियोग तक ले जाती है।

यह केवल मैच का स्कोर नहीं, राजनीतिक संस्कार का अंतर है। एक ओर ऐसी सरकार जो न्यायालय के जरिए सदियों पुराने घाव पर मरहम लगाती है, दूसरी ओर ऐसी सरकार और ऐसे कथित सेकुलर दल जो दीप के प्रकाश से भी डरकर उसे ही बुझा देना चाहते हैं।

मंदिरों पर सरकारी कब्जा और हिंदू संस्थानों की असहायता

तमिलनाडु का मामला केवल एक न्यायाधीश बनाम सरकार नहीं है। यह उस संरचना का परिणाम है जिसमें हिंदू मंदिरों को सीधे सरकार के नियंत्रण में दे दिया गया है। पुजारी से लेकर ट्रस्ट, आय से लेकर संपत्ति तक सब पर राज्य का अधिकार है।

दूसरी ओर अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थान, चाहे वे चर्च हों, मदरसे हों या वक्फ बोर्ड द्वारा संचालित संस्थान हों, वे अपने प्रबंधन में बहुत अधिक स्वायत्त हैं। यह असंतुलन खुद संविधान की मूल आत्मा, समानता और धार्मिक स्वतंत्रता की अवधारणा के विरुद्ध जाता है, पर दशकों से इसे प्रगतिशील ढांचा कहकर जस का तस रखा गया।

थिरुप्परंकुंड्रम इसका चरम उदाहरण बन गया है, जहां मंदिर की संपत्ति पर दीप जलाने पर भी प्रतिबंध सरकारी आदेश से लगता है और फिर वही सरकार अदालत के आदेश को लागू करने से इनकार कर देती है। हिंदू समाज के पास न अपने मंदिर का स्वतंत्र प्रबंधन, न अपने त्योहार पर निर्णय का अधिकार।

न्यायपालिका पर दबाव की राजनीति और आने वाला खतरा

महाभियोग का प्रस्ताव केवल एक व्यक्ति को लक्ष्य नहीं करता, वह पूरे न्यायिक समुदाय को संदेश देता है कि यदि आपने हिंदू अधिकार के पक्ष में कोई ठोस कदम उठाया, तो आपको संसद के कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा।

यह दबाव केवल आज के एक मामले पर नहीं रुकेगा। भविष्य में कोई भी न्यायाधीश जब किसी मंदिर, किसी धार्मिक स्थल, किसी परंपरा के पक्ष में निर्णय लिखने बैठेगा, तो उसे याद रहेगा कि एक आदेश के कारण जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ संसद तक प्रस्ताव पहुंच गया था। यह भय न्याय की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा शत्रु बन सकता है।

दूसरी ओर वे सभी दल जो इस महाभियोग राजनीति में एक मंच पर खड़े हैं, वे यदि कल किसी राज्य या केंद्र की सत्ता में आते हैं तो यह वही पैटर्न दोहरा सकते हैं।

महाराष्ट्र में हिंदू त्योहारों पर पाबंदी, उत्तरप्रदेश में चरण पूजा जैसी परंपराओं पर ठंडी निगाह, पूरे देश में मंदिर भूमि विवादों में हिंदू पक्ष के प्रति ठंडी संवेदना, यह सब पहले भी दिख चुका है। अब न्यायालयों को भी सीधे निशाने पर लेने की प्रवृत्ति इस क्रम को और खतरनाक बना देती है।

दीपक से डरने वाली राजनीति और जागता हुआ समाज

थिरुप्परंकुंड्रम की पहाड़ी पर खड़ा वह दीपथून केवल पत्थर का स्तंभ नहीं, उसने आज के भारतीय लोकतंत्र के चरित्र को उजागर कर दिया है। एक ओर ऐसा न्यायालय है जो कह रहा है कि सदियों पुरानी परंपरा और मंदिर के स्वामित्व को मानते हुए कार्तिगई दीपम वहां जलाया जाए, दूसरी ओर ऐसी राजनीति है जो इस आदेश को मानने की जगह आदेश देने वाले न्यायाधीश को ही हटाने की तैयारी कर रही है।

जब कोई पूछता है कि क्या केवल भाजपा ही हिंदुओं की पार्टी है तो जवाब भावनाओं से नहीं, तथ्यों से दिया जाना चाहिए। जहां जहां भाजपा या समान विचार वाली सरकारें रहीं, वहां अयोध्या से लेकर काशी और उज्जैन तक, हिंदू आस्था से जुड़े फैसले अदालत के मार्ग से लागू हुए और कानून व्यवस्था भी संभाली गई।

जहां जहां हिंदू विरोधी या खुलकर वोट बैंक की राजनीति करने वाले दल सत्ता में हैं, वहां मंदिरों पर सरकारी कब्जा, न्यायिक आदेश की अवमानना और हिंदू धार्मिक अधिकारों पर नियंत्रण सामान्य बात बन चुकी है।

थिरुप्परंकुंड्रम के दीपथून पर कार्तिगई दीपम का उजाला फिलहाल अदालत के आदेश के बावजूद नहीं जल पाया, पर इस प्रकरण ने इतना अवश्य कर दिया है कि देश के करोड़ों हिंदू मतदाताओं के सामने यह स्पष्ट रेखा खिंच गई है कि कौन दल दीप के साथ खड़ा है और कौन उसके धुएं से भी काँप उठता है। यही वह रेखा है जो अगली पीढ़ियों के भारत का चेहरा तय करेगी।

Mudit
Mudit
लेखक 'भारतीय ज्ञान परंपरा' के अध्येता हैं और 9 वर्षों से भारतीय इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिक्षा एवं राजनीति पर गंभीर लेखन कर रहे हैं।
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