Friday, June 6, 2025

मणिपुर पर मुखर, बंगाल की चीखों पर मौन क्यों है न्यायपालिका?

साल 2023 में मणिपुर की घटना ने देश को झकझोर दिया — दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर सड़क पर घुमाया गया। सुप्रीम कोर्ट तत्पर हुआ, सरकार से जवाब तलब किया, और कहा: “यह लोकतंत्र में अस्वीकार्य है।”

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लेकिन उसी देश के पश्चिमी छोर पर, बंगाल में महिलाओं पर वैसी ही, बल्कि कहीं अधिक व्यापक हिंसा हुई — हत्या, बलात्कार, पलायन और धार्मिक लक्षित उत्पीड़न — तब वही न्यायिक स्वर मौन क्यों रह गया?​ क्या न्याय भी अब स्थान, धर्म और राजनीति के तराजू पर तौला जाने लगा है?​

दो राज्य, एक विडंबना

मणिपुर:

3 मई 2023 से मणिपुर जातीय हिंसा की चपेट में रहा। बहुसंख्यक मैती और कुकी समुदायों के बीच शुरू हुई हिंसा में:​

  • 219 से अधिक लोगों की मौत​
  • 60,000 से अधिक लोग विस्थापित​
  • 1500 से अधिक घर जलाए गए​

4 मई को दो कुकी महिलाओं को निर्वस्त्र कर सड़क पर परेड कराए जाने का वीडियो वायरल हुआ, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया।​

20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने बेहद कठोर टिप्पणी करते हुए सरकार को चेतावनी दी: “Using women as an instrument in an area of communal strife – it’s the grossest of constitutional abuse.” www.ndtv.com

इसके बाद मार्च 2024 में सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय टीम — जिसमें जस्टिस बी. आर. गवई, विक्रम नाथ, एम. एम. सुंदरेश, के. वी. विश्वनाथन और एन. कोटीश्वर सिंह शामिल थे — ने मणिपुर जाकर राहत शिविरों का दौरा किया।​

पश्चिम बंगाल:

2 मई 2021 को विधानसभा चुनाव परिणाम आते ही राज्यभर में राजनीतिक हिंसा फूट पड़ी, जिसका शिकार विशेष रूप से भाजपा समर्थक, दलित और हिंदू समुदाय बने।​

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की विशेष रिपोर्ट (22 जुलाई 2021) के अनुसार:​

  • 11 से अधिक हत्याएँ​
  • 350+ बलात्कार और यौन हिंसा की घटनाएँ​
  • 4000 से अधिक परिवारों का पलायन​
  • कई गाँव पूरी तरह खाली हो गए ​

2023 और 2024 की रामनवमी पर भी मुर्शिदाबाद, बीरभूम, हावड़ा और उत्तर दिनाजपुर में:​

  • हिन्दू शोभायात्राओं पर हमले​
  • मंदिरों में तोड़फोड़​
  • स्त्रियों के साथ अमानवीय व्यवहार​
  • दंगों के बीच “सिंदूर मिटाओ, नहीं तो बलात्कार झेलो” जैसी धमकियाँ सुनी गईं​

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या 66,000 से अधिक रही — जो देश में तीसरे स्थान पर था। वहीं, मणिपुर में यही संख्या 1000 से भी कम थी। ​

परंतु, इन भयावह आँकड़ों और साक्ष्यों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल पर कोई स्वतः संज्ञान नहीं लिया, न ही कोई न्यायिक टीम वहाँ भेजी गई।​

जब न्याय में किया जाए भेदभाव

सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में न केवल सक्रिय हस्तक्षेप किया, बल्कि संवेदनशीलता का उच्चतम मानक भी प्रस्तुत किया। यह अनुकरणीय था। लेकिन प्रश्न यह है — क्या वही संवेदनशीलता बंगाल में क्यों नहीं दिखाई गई?​ क्या मणिपुर की दो बेटियों की पीड़ा संवैधानिक थी, और बंगाल की सैकड़ों महिलाओं का अपमान केवल ‘राजनीतिक हिंसा’ बनकर रह गया?​

जब NHRC, NCW, पत्रकार, वीडियो साक्ष्य — सभी यह प्रमाणित कर चुके हैं कि बंगाल में भयावह घटनाएँ हुईं, तब भी सुप्रीम कोर्ट का यह मौन, न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।​

क्या अनुच्छेद 14 केवल मणिपुर तक सीमित है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है: “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता से वंचित नहीं करेगा।”

अनुच्छेद 21 कहता है: “प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है।”

यदि यही अधिकार बंगाल की उन महिलाओं को नहीं मिल सके जो केवल अपने धर्म या राजनीतिक विचारधारा के कारण अपमानित की गईं, तो यह संविधान की आत्मा को घायल करता है।​

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था: “संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, जिसका उद्देश्य हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है।”

लेकिन जब यह जीवंतता मणिपुर में सक्रिय और बंगाल में निष्क्रिय हो जाए, तो प्रश्न यह उठता है — क्या अब न्याय भी चयन आधारित हो गया है? क्या देश की सर्वोच्च संस्था अब आँकड़ों की गंभीरता के आधार पर नहीं, राजनीतिक माहौल और मीडिया दबाव के अनुरूप संवेदित होती है?

सवाल सिर्फ निष्पक्षता का नहीं, संवैधानिक उत्तरदायित्व का भी है। जब संविधान हर नागरिक को एक समान संरक्षण देता है, तब न्यायपालिका की चुप्पी अपने आप में एक अन्याय बन जाती है।

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राजनीतिक और न्यायिक चुप्पी: यह मौन संयोग नहीं, प्रयोग है

बंगाल में जब रामनवमी और अन्य धार्मिक आयोजनों पर खुलेआम हमला हुआ, जब महिलाएँ न्याय के लिए दर-दर भटकती रहीं, जब राज्यपाल तक को रोक दिया गया —
तब न तो ममता बनर्जी वहाँ पहुँचीं, न ही केंद्र ने प्रभावी हस्तक्षेप किया, और न ही सुप्रीम कोर्ट ने कोई त्वरित न्यायिक पहल ली।

यह त्रिसूत्रीय मौन — कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपने आप में लोकतंत्र की उस नींव पर चोट है जिसे “न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व” के मूलभूत आदर्शों पर खड़ा किया गया था।

समाधान: चयनात्मक न्याय का विकल्प – संवैधानिक जवाबदेही

  1. स्वतः संज्ञान की प्रक्रिया को एक सुस्पष्ट और सार्वजनिक दिशा-निर्देशों पर आधारित बनाना होगा, जिससे वह प्रेस की हेडलाइन से नहीं, जमीनी सच्चाई और आँकड़ों की भयावहता से संचालित हो।
  2. प्रत्येक राज्य में एक स्वतंत्र ‘संवैधानिक संकट प्रकोष्ठ’ की स्थापना हो, जो न्यायपालिका को समय-समय पर उच्च संवेदनशीलता वाले मामलों की जानकारी दे और स्वतः संज्ञान के योग्य परिस्थितियों को रेखांकित करे।
  3. राष्ट्रीय महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग और राज्यपाल की रिपोर्टों को कानूनी रूप से न्यायिक विचार-विमर्श में अनिवार्य बनाया जाए, जिससे उन्हें सिर्फ “अनुशंसा” का पात्र न माना जाए।
  4. राज्यों की प्रशासनिक असफलताओं पर सीधा न्यायिक हस्तक्षेप सुनिश्चित किया जाए, खासकर तब जब हिंसा का स्तर सांप्रदायिक, लैंगिक या राजनीतिक आधार पर जानलेवा हो।

यदि न्याय मौन रहेगा, तो लोकतंत्र भी सो जाएगा

मणिपुर की घटना पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था: “This is not acceptable in democracy.”

तो फिर यह पूछा जाना चाहिए — क्या बंगाल में जो हुआ, वह लोकतंत्र में स्वीकार्य था?

यदि न्यायपालिका का दायित्व केवल प्रतीकात्मक हस्तक्षेप तक सीमित हो जाए, यदि पीड़िता का धर्म और भूगोल उसकी सुनवाई तय करे, यदि आँकड़े चिल्लाते रहें और संस्थाएँ सोती रहें, तो यह केवल संवैधानिक संकट नहीं — बल्कि नैतिक पतन का संकेत है।

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