Janmashtami: वृंदावन भारत की पवित्र भूमियों में से एक है। यहाँ देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान श्री कृष्ण की एक झलक देखने के लिए आते है। ऐसा कहा जाता है की वृंदावन के कण-कण में कृष्णा समाये है। पूरा वृंदावन ही उनकी नटखट लीला और चमत्कारों का प्रमाण है। मगर यहाँ का बांके बिहारी मंदिर यहाँ की जान है। इस मंदिर में भगवान श्री कृष्णा का भव्य सिंगार होता है और आरती के समय हज़ारो की तादात में भक्तो की भीड़ होती है। मगर क्या आप जानते है इस मंदिर की शुरुवात कैसे हुई थी। आइये आपको बताते है इससे जुड़ी कुछ रोचक बातें।
कैसे हुआ निर्माण
बांके बिहारी मंदिर के निर्माण की कथा काफी रोचक है। स्वामी हरिदास, भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। वो वृंदावन में स्थित निधिवन में बैठकर भगवान को अपने संगीत से रिझाया करते थे। इनकी भक्ति और गायन से प्रस्सन होकर भगवान श्री कृष्ण भी इनके सामने आ जाते। एक दिन इनके एक शिष्य ने भी श्री कृष्ण के दर्शन करने की इच्छा जताई। इसके बाद हरिदास जी भगवान की भक्ति में मगन हो कर भजन गाने लगे । उनकी भक्ति से प्रस्सन होकर राधा कृष्ण की जोड़ी प्रकट हुई। श्री कृष्ण और राधा ने हरिदास के पास रहने की इच्छा प्रकट की लेकिन हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको तो वस्त्र पहना दूंगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहां से लाकर दूंगा। भक्त की बात सुनकर राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर काले रंग की पत्थर की मूर्ति के रूप में प्रकट हुए। हरिदास जी ने इस मूर्ति को बांके बिहारी नाम दिया।
कैसे पड़ा बांके बिहारी नाम
बांके का अर्थ होता है तीन कोणों पर मुड़ा हुआ जो वास्तव में भगवान श्री कृष्ण की ही एक मुद्रा है। वहीँ बिहारी का अर्थ होता है युवक। भगवान श्रीकृष्ण बासुरी बजाते समय इसी मुद्रा में खड़े होते हैं, टेढ़ा ही मोरपंख लगाते हैं, इसीलिए बांके बिहारी कहलाते है।
बार-बार पर्दा लगाने की प्रथा
एक कथा के अनुसार एक बार एक भक्त बांके बिहारी के दर्शन के लिए श्रीधाम वृंदावन आये। तब वो भगवान कृष्ण की मूर्ति को एक टक देखने लगे। श्री कृष्ण भी उस भक्त के प्रेम में वशीभूत होकर उनके साथ ही चल दिए। जब पंडित जी ने मंदिर में देखा कि भगवान कृष्ण जी की मूर्ति नहीं है तो उन्होंने भगवान से बड़ी विनती की और वापस मंदिर में चलने को कहा। तब से ही बांके बिहारी जी की मूर्ति पर बार-बार पर्दा लगाने की परंपरा चली आ रही है।
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